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________________ ( ६६ ) .. (५) आधुनिक संसार में आज भी जैन समाज के पास अच्छा धन है जो कि कुछ दिन पूर्व तो बहुत ही ज्यादा था, इसलिये लार्ड कर्जन साहिब को कहना पड़ा था कि भारत का आधे से ज्यादा धन जैनियों के पास है । परन्तु अब भी काफी कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है और उसके साथ २ एक बड़ा गुण हमारे समाज में ( Generosity ) उदारता का है। तुलनात्मक दृष्टि से देखे तो जैन समाज भारत की एक ( Philanthropist Community ) उदार कोम है। आज भी लाखों रुपये खर्च ने की उदारता शक्ति जैसी हमारे जैन समाज में है. वैसी औरों में कम नजर आती है। सिर्फ शंका यह है कि उस धन का ( Mis-use or proper use ) यथार्थ उपयोग होता है या नहीं। वो एक दसरा सवाल है परन्तु यहां तो उदारता की प्रशंसा है। बाकी जितना पैसा स्वनाम सेवा के लिये खर्चा जाता है उतना स्वधर्म सेवा के लिये खर्चना शुरु कर लेवे तो सहज ही में जैन धर्म प्रचार अखिल संसार में हो सका है। यदि ( Public institutions ) साधारणोपयोगी संस्थाओं को स्थापित कर हर तरह से संसार की सेवा बनाने का लक्ष हो जावे तो कोई तरह से धर्मप्रचार असम्भव नहीं है। ___अपने धर्मप्रचारार्थ मानसिक शक्ति का उपयोग देकर स्कीम बनाने बैठे तो सैकड़ों मार्ग नजरों के सामने आते हैं, परन्तु सबसे पहली बात हमारे में स्वनाम सेवा का मोह कम होना चाहिये । मुझे तो केवल इस समय की सम्मेत शिखर यात्रा के अनुभव से कहना पड़ता है कि अखिल भारत का जैन समाज तो बहुत बड़ा है, परन्तु सिर्फ एक बङ्गाल प्रान्तवासी कलकत्ता और मुर्शिदाबाद के समाज भूषण पुरुष ऐसे हैं कि यदि वे धारे तो बहुत कुछ कार्य कर सक्ने हैं, क्योंकि जैसे वे धनवान हैं वैसे विद्वान भी हैं और राजा महाराजाओं की तरह उनका उस देश में बड़ा प्रभाव है और उच्चे २ पद प्राप्त करने में धारा सभाओं तथा म्युनिसिपालिटी आदि राजतंत्रिक स्थानों में मान प्राप्त करने के लिये और अपने सांसारिक सुखों के साधनरूप बड़े २ महलात, सुन्दर बाग बगीचे बनाने में उदार हृहय से जो द्रव्य खर्च करते हैं उसी तरह स्वधर्म सेवा के लिये खर्च ने लग जावे तो अनेक आत्माओं का उद्धार कर सक्ते हैं। मेरे जानने में आया है कि बङ्गाल व बिहार, उड़ीसा में लगभग पचास हजार मनुष्य हैं जो अपने को आग कहते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से पूर्व काल में उनका जैन श्रावक होना सम्भव होता है क्योंकि आज भी उनके रीति रिवाज जैनों जैसे हैं, वे मांसाहारादि
SR No.541505
Book TitleMahavir 1934 08 to 12 Varsh 01 Ank 05 to 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Dosi and Others
PublisherAkhil Bharatvarshiya Porwal Maha Sammelan
Publication Year1934
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Mahavir, & India
File Size11 MB
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