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(३६) उनके गृहस्थ शिष्यों में थाहड़, नागदेव, उदयन, वागभट मादि अनेक श्रीमंत श्रावक थे।
उनका विहार खास कर मारवाड़, मेवाड़ और गुजरात ही में हुआ था ।
इस प्रकार जीवन प्रर्यन जैन धर्म की अनन्य सेवा कर श्री वादिदेवसूरि वि० सं० १२२६ के श्रावण कृष्णा मप्तमी गुरुवार के दिन इस मनुष्य लोक को छोड़ स्वर्गवासी हुए । पृथ्वी पर उनकी पूर्ती करने वाला अब तक कोई उत्पन्न नहीं हुआ।
उपसंहार * आज वादिदेवसूरि अपने ममक्ष नहीं है किन्तु उनकी कृत्ति, कीर्ति प्रखर शासन सेवा जीती जागती खड़ी है।
धन्य हो इस पौरवाड़ जाति को कि जिसने वादिदेवसरि समान प्रमूठे नर रत्न को उत्पन्न कर अपना गौरव बढ़ाया है। कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रचार्य ने वादिदेवसूरि की इस प्रकार स्तुति की है।
यदि नाम कुमुदचन्द्र नाडजेस्य देवसूरिर हमरुधि । कटि परिधानम धास्यत्कतमः श्वेताम्बरो जगति ॥
हेमचन्द्रसरि । __अर्थ-यदि वादिदेवमूरि कुमुदचन्द्र को परास्त न करते तो जगत में कौन श्वेताम्बर कमर में कपड़ा धारण कर सकता था? अर्थात् दिगम्बर राना पड़ता।
प्यारे पोरवालों ! __आपके इस पुण्य सम्मेलन पर कुछ लिख कर भेजने का भाग्रह श्रीयुत् सिंघीजी ने मुझे किया है, अतः इस प्रसंग पर मैं भी कुछ इशारे के रूप में लिखकर मेरा कर्तव्य अदा कर लेता है। . * इस लेख के लिखने में मुझे न्याय साहित्य तीर्थ मुनिराज श्री हिमांशुविजयजी और जैन ज्योति कार्यालय से प्रकाशित बालग्रन्थावली की छठी श्रेणी से सहायता मिली है अतः उनका भाभारी हूँ। लेखक