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( २५ ) .(३.) जीवानुशासन । ( ४ ) मुनिचन्द्राचार्यस्तुति । ( ५ ) गुरुविरह विलाप । ( ६ ) द्वादशवत स्वरुप । (७). कुरुकुन्नादेवीस्तुति । (८) पार्श्वघरणेन्द्रस्तुति । (६) कालिकुण्ड पार्श्वजिन स्तवन । (१०) यतिदिनचर्या । (११) जीवाभिगमलघुवृत्ति । (१२) उपधानस्वरूप । (१३) प्रभातस्मरणस्तुति । (१४) उपदेश कुलक । (१५) संसारीद्विग्नमनोरथकुलक।
वादिदेवसरि ने साहित्य सेवा के अतिरिक्त अनेक जैनेतरों को जैन बनाये हैं। उनकी संख्या लगभग पैंतीस हजार की मानी जाती है। इसके अतिरिक्त उन्होंने घोलका. पाटन, फलौदी, पारासण आदि गांवों में प्रतिष्ठा मी करवाई है। उनके दीक्षित किये हुए शिष्यों की संख्या सैकड़ों की थी। जिनमें से मुख्य २ शिष्यों के नाम निम्नलिखित हैं। (१) भद्रेश्वरसूरि
(८) पद्मचन्द्रगणि (२) रत्नप्रभसूरि
(६) पद्मप्रभमूरि ( ३ ) माणिक्य
(१०) महश्वरसूरि (४) अशोक
(११) गुणचन्द्र (५) विजयसेन
(१२) शालिभद्र (६.) पूर्णदेवाचार्य
(१३) जयमंगल (७) जयप्रभ
(१४) रामचन्द्र इसकी टीका स्याद्वादरत्नाकर का नाम प्रमाणनय तत्त्वालोकालंकार है। यह बात उक्त मुनिराज सम्पादित किये हुये प्रमाणनय तत्त्वालोक की प्रस्तावना में सिद्ध किया है। अधिकांश विद्वानों ने पार को स्वीकार किया है।