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- पूर्णचन्द्र प्रसन्न हो अपने घर गया और उपर्युक्त घटना पिताजी को कई सुनाई। वीरनाग अपने पुत्र की यह आश्चर्यजनक घटना सुन प्रसन्न हुए । वीरनाग ने यह चमत्कारिक घटना मुनिचन्द्रसूरि के आगे निवेदन की। यह बात सुन सरिजी अपने हृदय में कहने लगे कि वास्तव में यह बालक होनहार है। यदि यह बालक साधु हो जाय तो जगत में धर्मध्वजा फरसकती है। इसलिये उन्होंने बीरनाग से पूर्णचन्द्र को मांगा।
वीरनाग अपने ऐसे प्रभावशाली पुत्र को देते समय संकोच करे उसमें कुछ आश्चर्य ही न था ?
सरिजी वीरनाग के संकोच को समझ गये अतः उसके मनका समाधान करते हुए कहने लगे मेरे पांच सौ साधु शिष्य हैं उन सबको तू अपने पुत्र ही समझना । यदि यह बालक विद्वान होगा तो तेरा नाम और कुल उज्वल करेगा। यह सुन वीरनाग ने गुरु की आज्ञा शिरोधार्य की और अपने पुत्र पूर्णचन्द्र को सहर्ष मुनिचन्द्रसूरि के हाथ से दीक्षित किया। उस समय उसका नाम रामचन्द्र मुनि रखा।
मुनि चन्द्रसरि समस्त शास्त्रों के प्रखर विद्वान थे मानो न्यायशास्त्र तों उन्हीं का था। उन्होंने इस विषय का अभ्यास प्रसिद्ध न्यायशास्त्री श्री वादी वेताल शान्तिमरि के पास किया था। मुनिचन्द्रसूरि ने रामचन्द्र मुनि को समस्त विषयों का ज्ञान देना आरम्भ किया। रामचन्द्र मुनि ने भी अपनी तीक्ष्ण बुद्धि के कारण थोड़े ही समय में व्याकरण, काव्य, छंद, अलंकार, दर्शन शास्त्र (तत्त्वज्ञान ) ज्योतिष आदि विषयों का गहरा ज्ञान प्राप्त कर लिया। ___ इस प्रकार विद्वान होने के पश्चात् रामचन्द्रमुनि गुरुआज्ञा लेकर भिन्न २ प्रदेशों में विहार करने लगे। उसमें खास कर घोलका, साचोर, नागोर, चित्तौड़ ग्वालियर, धार, पोकरण, भरुच आदि शहरों में विहार कर वहां के प्रसिद्ध विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ कर उनको परास्त किये । इससे उनका नाम विद्वानों में बहुत प्रसिद्ध हुआ और निम्न लिखित विद्वानों के साथ उनकी मित्रता होगई ।।
विमलचन्द्र, हरिचन्द्र, सोमचन्द्र, पार्श्वचन्द्र, शान्तिचन्द्र, कुलभूषण, अशोकचन्द्र आदि।