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(३२) ... हमारी समाज में होने वाली कुप्रथाओं में से जीमन भी एक कुप्रथा है। जिनको रूढ़ियों के गुलामों ने उच्च पद देकर अच्छी तरह से अपना लिया है. पने यह मालूम नहीं कि इस प्रथा से हमारा भविष्य किस तरह होगा और यह कब से चालू हुई है क्यों हुई है और इस वक्त इसकी आवश्यक है. मा क्या! और है तो इसमें कितना फायदा व कितना नुक्सान है इसका कभी भी उनै खयाल नहीं होता व तो दूसरे के घर जाकर लड्डू उड़ाने में ही एक प्रकार का भानन्द समझते हैं-चाहे जिमान वाला गरीब क्यों न हो चाहे वह अपनी बहन, बेटी अथवा घर को किसी के यहां गिरव रख कर भी कर्ज लाता हो । जीमने वालों को इसकी परवाह नहीं रहती एक ही जीमन में सैकड़ों रुपयों का धुंआ जहाना ही अपना फर्ज अथवा धर्म समझ बैठे हैं।
इस जीमन को एक ही तरह से नहीं अपनाया। इसको कई रूपों में स्थान दे रखा है। यह सब कार्रवाई जीमन प्रेमियों की है जन्म, शादी, टोणामोसर, स्वामी वात्सल्य, उजमणे, नवकारसी इत्यादि इत्यादि रूपों में इसको अपनाकर समाज का लाखों रुपयों का धन इसी कुप्रथा की नदी में बहा दिया जाता है। इस खर्च का हिसाब यदि लगाने बैठे तो इसका अन्त नहीं पा सकता । सम्मेलन ने इस प्रथा को कई अंशों में कम करने का जो प्रस्ताव पास किया है उसको व्यवहार रूप में जाना जीमन प्रेमियों के लिये कुठार की घात सा हो गया है। समाज के अग्रेसरों से समाज हितैषी प्रार्थना करते करते थक गये हैं परन्तु उनकी मांख कब खलने लगेगी। वे समझते हैं कि यदि इस प्रकार के जीमन बन्द हो गये तो हमारे हायों में से हुकूमत रूपी पंचायत की डोर जाती रहेगी और हमे समानहितेषी कुछ भी नहीं गिनेंगे। अपनी हुकूमत और बड़प्पन के आगे अगर समाज डूब जाय तो डुबाने को तैयार हैं परन्तु बड़प्पन को छोड़ने के लिये नहीं। - पहिले वक्त में यह जीमण की प्रथा क्यों चालू की गई थी ? अगर इस पर दृष्टि डालेंगे तो हमें अच्छी तरह ज्ञात हो जायगा कि ऐसा करने में एक तसा का लाभ माना गया था वह लाभ सिर्फ इतना ही है कि समाज में यदि कोई गरीब हो और उसको मीठा पदार्थ खाने को हाथ न आता हो तो उन सब के लिये यह जीमन की प्रथा कायम की थी जिसको गरीब लोग जीमकर आशीष दिया करते थे। इसी तरह धीमे धीमे हमारे जीमन प्रेमियों ने इसको नाति