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मौसम में इन्हीं जीमनों से बीमारियों को एक तरह का न्यौता देकर अपनी समाज को बीमारियों का ग्रास बना देते हैं। कहिये यह धर्म के नाम अधर्म हुआ या क्या ? आज जैन समाज कीड़ी तक को बचाने का प्रयत्न करती है। तिथियों के रोज हरा साग खाने में समाज परहेज रखता है, रात्री भोजन को दोष समझता है परन्तु तिथि के रोज कटा हुआ साग व बनाया हुआ भोजन दूसरे दिन जीमने में धर्म समझता है। यह कहां तक न्याय का नमूना है तिथि के रोज रात को बनाया हुआ भोजन जिसमें अत्यन्त जीवों का संहार क्यों नहीं होता हो दूसरे रोज बड़े चाव से जीमते हैं। नवकारसी उजमना स्वामी वात्सल्य इत्यादि धर्म जीमन कहे जाते हैं जिनके बनाने में अत्यन्त जीवों का स्वाहा हो जाना भी जीमन प्रेमियों की दृष्टि में धर्म जीमन ही रहता है । ___टाणा मोसर का जीमण हमारी समाज में कई वर्षों से चला आ रहा है। मरने के पीछे उसकी बची हुई पूंजी का उपयोग इन्हीं जीमणों में किया जाता है। मरने वाला मर जाता है। उसके पीछे रंज करना तो दूर रहा। लड्डू वगैरह बना कर उसकी पूंजी का नाश करने में ही समाज लाम समझती है। इस तरह उसकी बची पूंजी का धुंपा थोड़ी ही देर में हमेशा के लिये अदृष्य हो जाता है। जब तक धुंआ कायम रहता है लोग मरने वाले को याद भी करते हैं और जब धुंआ सर्वदा के लिये अदृष्य हो जाता है उस वक्त उसका नामोनिशान तक इस सृष्टी पर कायम नहीं रहता है। मरने वाले के पास पूंजी है या क्या। वह अपनी जीवन भवस्था में सांसारिक कार्य किस तरह चलाता था। उसके पीछे उसकी संतान क्या करेगी वे किस अवस्था पर पहुंचेगी ये बातें हमारे समाज के अग्रेसरों को व जीमणप्रेमियों को तनिक भी विचार में नहीं आती है। वे तो इस कार्य को रुदी रूपी लोहे की जंजीर में जकड़ कर बैठे हैं और मरने वाले की औलाद से डंडा ठोक कर वसूल करते हैं। अगर कोई इस हक्क को अदा करने में उजर करता है तो अग्रेसर उसको समाज द्रोही समझ कर उससे व्यवहार बंद कर देते हैं। इस उपरान्त भी अगर सख्त सजा देना चाहते हैं तो उसका हुक्का पानी भी बंद कर देते हैं आखिर में अपना हक लिये बगैर उसे जाति में सम्मिलित तक नहीं करते हैं। वह चाहे गरीब स्थिति का क्यों नहीं हो उसका जेवर घरबार तक बिकवा कर उसके पुरखों का मृत्यु भोज लिये बगैर नहीं रहते हैं। ऐसे मृत्यु भोज को हमारे सम्मेलन ने सर्वथा त्याग योग्य ठहरा कर सर्वानुमत से