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( २१ ) एक समय वहां देवबोध नामका भागवत पंडित आया । उसने पाटन के पंडितों की परीक्षा करने के वास्ते एक गूढ़ श्लोक उनके आगे रखा और उसका अर्थ करने को कहा। वह श्लोक निम्न लिखित था--
एक द्वित्रिचतुः पञ्चषणूमेनकमने नकाः ।।
देवबांधे मयि क्रुद्ध षण्मेनकमने नकाः ॥ * ... उपर्युक्त श्लोक को सुन समस्त पंडित चकित हो गये। इसके अर्थ की उन्होंने बहुत कोशिश की किन्तु असफल हुए। इस प्रकार छः मास का समय व्यतीत हो गया। यह देख सिद्धराज जयसिंह को सख्त अफसोस हुआ । वह मन में विचार करने लगा कि क्या गुजरात इस प्रकार निर्माल्य हो गया है कि एक श्लोक का अर्थ छः मास में भी कोई पूरा नहीं कर सका ? उस समय एक पुरुष ने निवेदन किया कि, महाराज! अपने नगर में देवसूरि नाम के श्वेताम्बर आचार्य हैं वे बहुत बड़े विद्वान् हैं। वे अवश्य इस श्लोक का अर्थ कर देंगे। . यह बात सुन राजा ने देवमूरि को सत्कारपूर्वक अपनी राजसभा में बुलाये उनोंने उस श्लोक का यथार्थ अर्थ कर दिया। इससे राजा, प्रजा तथा स्वयं देवबोध पंडित भी उन पर बहुत प्रसन्न हुए। ___ विक्रम सम्वत् ११७८ में श्री मुनि चन्द्र सूरि का स्वर्गवास हुआ। इससे देवमूरि को जबरदस्त आघात पहुंचा, किन्तु मन को धीरज दे शासन सेवा में लग गए। यहां से उन्होंने मारवाड़ की ओर विहार कर वे नागोर शहर में आए । उस समय वहां के राजा आह्लाद ने उनका अच्छा स्वागत किया। उस स्वागत में देवबोध पंडित भी साथ था। उसने मूरिजी को देखते ही एक भक्तिपूर्ण श्लोक कहा:
या वादिनो द्विजिह्वान सारोपं विषममान मुद्रितः। ___- शमयति स देवरि-नरेंद्र वंद्यः कथं न स्यात् १ ।। . अर्थ-भयङ्कर अभिमान रूपी विष को उगलने (डंख मारने ) वाली वादी रूपी फणिधरों को शान्त करते हैं, वह देवसूरि राजाओं को वंदनीय कैसे न हो।
* इस लोक का अर्थ जानना हो तो प्रभावक चरित्र के देवसूरि प्रबन्ध में देखो ।