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जोर से घंट बजाने लगा। उस घण्ट की विजय नाद के साथ साथ उसकामासिरी स्वांस भी चला गया; उसका नश्वर शरीर उसी स्थान पर गिर पड़ा। ... इस प्रकार वीर विक्रमसी अपना जीवन अर्पण कर सिंह को मार सिद्धाचल
जी की यात्रा खुली कराकर यात्रियों को सिंह के भय से बचाया। परोपकारी विक्रमसी ने आत्म समर्पण कर नश्वर शरीर को छोड़ कर अपना नाम अमर कर दिया। . आज भी उसका स्मारक शश्रृंजय पर्वत पर कुमारपाल राजा के मन्दिर के सामने पाम्र वृक्ष के नीचे मौजूद है। उसके ऊपर वीर नर के योग्य सिन्दूर की पोशाक शोभा दे रही हैं। सुना जाता है कि आज भी टीमाणिया गोत्र के भावसार नवविवाहित वरवधूलों के छेड़ा छेड़ी वहीं खोलते हैं। । अब जब मैं शचुंजय की यात्रा करने जाता है तब उस वीर विक्रमसी के स्मारक को भाव पूर्ण नमस्कार करता हूं; उस समय वीर विक्रमसी की वीर कया मेरे समक्ष खड़ी हो जाती है; और हृदय से सहसा यह उद्गार निकलते हैं 'धन्य वीर विक्रमसी तूने ही भाभी के ताने को सचा कर दिखाया" । इतिः
बनोरिया जैन मेवाड़ी