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* आचारांग सूत्र *
( गुजराती छायानुवाद का हिन्दी अनुवाद )
'नेव संयं लोगं अभाइक्खज्जा'। मनुष्य मरे जीवो के प्रति असावधान न रहे। मूत्र १-२
- मूल गुजराती संपादक - गोपालदास जीवाभाई पटेल
वीर सवन् २४६४ ]
[ इम्वी सन १८
मूल्य ६ आना प्रधाममममममा
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श्री हंसराज जिनागम विद्याप्रचारक फंड समिति : ग्रथ चौथा
इस ग्रंथमालासे प्रकाशित अन्य ग्रन्थ
9 श्री उत्तराध्ययनजी सूत्र पृष्ट ५०० पक्की जिल्ड २ श्री दशवैकालिक सूत्र २५०
३ श्री सूत्रकृतांग सूत्र
१६०
प्रकाशक
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प्रथम आवृति ]
33
29
वि. सं १९९४
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मूल्य पॉस्टेज १) 이
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श्री . स्थानकवासी जैन कॉन्फरन्स ९ भांगवाडी. बम्बई २.
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[ २००० प्रति
मुद्रक :
'हर्पचंद्र कपूरचंद दोशी न्यायव्याकरणतीर्थ श्री सुखदेव सहाय जैन कॉन्फरन्स प्रि प्रेस. ६ भांगवाडी, बंबई नं. २
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आमुख
श्री हंसराज जिनागम विद्या प्रचारक फंड ग्रंथमाला का यह चतुर्थ पुप्प जनता की सेवामें प्रस्तुत है । तीसरे पुष्प के आमुख में मूचित किये अनुसार यह पुस्तक भी 'श्री आचारांग मुत्र' का छायानुवाद है । मूल ग्रंथ के विपयो का स्वतंत्र शैलीसे इसमें सम्पादन किया गया है इतना ही नहीं मूल ग्रंथ की सम्पूर्ण छाया प्रामाणिक स्वरूप में रखने का पूर्ण प्रयत्न किया गया है। इस प्रकार करनेसे स्वाभाविक रूपसे ग्रंथ में संक्षेप हो गया है इसके साथ ही विषयोका निरूपण क्रमबद्ध हो गया है और पिष्टपेपण भी नहीं हुआ है । तत्वज्ञान जैसे गहन विषय को भी सर्व साधारण सरलतासे समझ सके इस लिये भाषा सरल रक्खी गई है। ऐसे भाववाही अनुवादो से ही अाम जनतामें धार्मिक साहित्यका प्रचार हो सकता है ।
___ यह ग्रन्थ मूल गुजराती पुस्तकका अनुवाद है । गुजराती भापाके सम्पादक श्री गोपालदास जीवाभाई पटेल जैन तत्वज्ञान के अच्छे विद्वान है।
श्री पूंजाभाई जैन ग्रन्थमाला की कार्यवाहक समितिने इस ग्रन्थ का अनुवाद करने की अनुमति दी, उसके लिये उनका आभार मानता हूं।
सेवक
बम्बई
)
चिमनलाल चकुभाई शाह
सहमंत्री श्री. अ. भा. श्वे. स्था. जैन कॉन्फरन्स
ता. २५-६-१९३८)
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अनुक्रमणिका
अध्ययन
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आमुख
प्रथम खण्ड हिंसा का विवेक लोकविजय सुख और दुःख सम्यक्त्व . लोकसार कर्मनाश ... महापरिन विमोह भगवान महावीर का तप
द्वितीय खएड. मिक्षा ... . गय्या विहार
For morn.
भापा
or rr10.100 '20r १
वस्त्र पात्र अवग्रह ... खडा रहनेका स्थान निशिथिका मलमूत्र का स्यान शब्द
११८
0
૧૨૨ १२३
पर क्रिया अन्योन्य क्रिया भावनाएं विमुक्ति सुभापिन
१०४
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श्री हंसराज जिनागम विद्या-प्रचारक फंड समिति .. . ग्रथ चौथा
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दानवीर श्रीमान् सेठ हसराजभाई लक्ष्मीचन्द
अमरेली (काठियावाड)
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* आचारांग सूत्र *
प्रथम खण्ड
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पहिला अध्ययन
-(०)हिंसा का विवेक
श्री सुधर्मास्वामी कहने लगे
हे श्रायुष्मान् जंबु ! भगवान् महावीर ने कहा है कि संसार में अनेक मनुष्यो को यह ज्ञान नहीं है कि वे कहाँ से आये है और कहाँ जाने वाले हैं। अपनी आत्मा जन्म-जन्मान्तर को प्राप्त करती रहती है या नहीं, पहिले कौन थे और बाद में कौन होने वाले हैं, इसको वे नहीं जानते । [१-३]
परन्तु, अनेक मनुष्य जातिस्मरण ज्ञान से अथवा दूसरो के कहने से यह जानते हैं कि वे कहां से आये और कहां जाने वाले हैं । यह श्रात्मा जन्म-जन्मान्तर को प्राप्त करती है, अनेक लोक और योनियो में अपने कर्म के अनुसार भटकती रहती है और वे स्वयं आत्मा होने के कारण ऐसे ही है, इसको वे जाने हुए होते है । [४]
ऐसा जो जानता है, वह आत्मवादी कहा जाता है-कर्मवादी कहा जाता है-क्रियावादी कहा जाता है और लोकवादी कहा जाता
टिप्पणी-कारण यह कि 'आत्मा है। ऐसा मानने पर वह ‘क्रिया का
का-क्रियावादी' होता है और क्रिया से कर्मबन्ध को प्राप्त होने पर कर्मवादी होने से लोकान्तर को-जन्म-जन्मान्तर को प्राप्त करता रहता है।
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याचारांग सूत्र
'मैंने ऐसा किया', 'मैं ऐसा कराऊंगा,' या 'मैं ऐसा करने की की अनुमति दूंगा'- इस प्रकार सारे संसार में विविध प्रवृत्तियां हो रही है। किन्तु ऐसी प्रवृत्तियो से कैसा कर्मबन्ध होता है, इसको थोडे लोग ही जानते हैं ! इसी कारण वे अनेक लोक और योनियो में जन्म लेते रहते है, विविध वेदनाएं सहन करते रहते है और इस प्रकार असह्य दुखो को भोगते हुए संसार में भटकते रहते हैं। [६-६]
भगवान् महावीर ने इस सम्बन्ध मे ऐसा समझाया है कि लोग शब्दादि विषयो और रागद्वेपादि कपायो से पीडित है, इस कारण उनको अपने हिताहित का भान नहीं रहता, उन्हें कुछ समझा सकना भी कठिन है। वे इसी जीवन में मानसम्मान प्राप्त करने और जन्ममरण से छूटने के लिये या दुःखो को रोकने के लिये अनेक प्रवृत्तिया करते रहते हैं। अपनी प्रवृत्तियो से वे दूसरो की हिंसा करते रहते है उन्हें परिताप देते रहते है। यही कारण है कि उन्हें सच्चा ज्ञान नही हो पाता।
भगवान् के इस उपदेश को बरावर सम्झने वाले और सन्य के लिये प्रयत्नशील मनुष्यो ने भगवान् के पास से अथवा उनके साधुओ के पास से जान लिया होता है कि अनेक जीवो की घात करना ही बन्धन है, मोह है मृत्यु है और नरक है । जो मुनि इसको जानता है, वही सच्चा कर्मज्ञ है क्योकि जानने के योग्य यही वस्तु है । हे संयमोन्मुख पुरुषो । तुम बारीकी से विचार कर देखो। [१०-१६]
मनुष्य दूसरे जीवो के प्रति असावधान न रहे । दूसरो के प्रति जो श्रमावधान रहता है, वह अपनी आत्मा के प्रति असावधान रहता है
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हिसा का विवेक
और जो श्रात्मा के प्रति असावधान रहता है, वह दूसरे जीवो के प्रति भी असावधान रहता है [२२]
सब जगह अनेक प्रकार के जीव है, उनको भगवान् की श्राज्ञा के अनुसार जानकर भय रहित करो। जो जीवो के स्वरूप को जानने मे कुशल है, वे ही अहिसा के स्वरूप को जानने मे कुशल है, और जो अहिंसा का स्वरूप जानने में कुशल है, वे ही जीवो का स्वरूप जानने में कुशल है। वासना को जीतनेवाले, संयमी, सदा प्रयत्नशील और प्रमाद हीन वीर मनुष्यो ने इसको अच्छी तरह जान लिया है । [१५, २१, ३२-३३]
विषयभोग मे आसक्त मनुष्य पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि वनस्पति और त्रस जीवो की हिसा करते है, उन्हे इस हिंसा का भान तक नही होता । यह उनके लिये हितकारक तो है ही नहीं, बल्कि सच्चे ज्ञान की प्राप्ति के लिये भी वाधक है। इसलिये इस सम्बन्ध में भगवान् के उपदेश को ग्रहण करो ।
जैसे कोई किसी अन्धे मनुष्य को छेदे-भेदे या मारे-पीटे तो वह उसे न देखते हुए भी दु.ख का अनुभव करता है, वैसे ही पृथ्वी भी न देखते हुए भी अपने ऊपर होने वाले शस्त्र प्रहार के दुख को अनुभव करती है, वे आसक्ति (स्वार्थ) के कारण उसकी हिंसा करते हैं, उनको अपनी आसक्ति के सामने हिसा का भान नहीं रहता। परन्तु पृथ्वी की हिंसा न करने वाले संयमी मनुष्यो को इसका पूरा भान रहता है। बुद्धिमान् कभी पृथ्वी की हिसा न करे, न करावे, न करते को अनुमति दे । जो मुनि अनेक प्रवृत्तियो से होने वाली पृथ्वी की हिसा को अच्छी तरह जानता है वही सच्चा कज है। [१६-१७ ]
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याचारांग सूत्र
इसी प्रकार जल मे अनेक जीव हैं। जिनप्रवचन में साधुयो को कहा गया है कि जल जीत्र ही है, इस कारण उसका उपयोग करना हिसा है । जल का उपयोग करते हुए दूसरे जीवो का भी नाश होता है। इसके सिगय, दूसरो के शरीर का उनकी इच्छा विरुद्ध उपयोग करना चोरी भी तो है। अनेक मनुष्य ऐसा समझ कर कि जल हमारे पीने और म्नान करने के लिये है उसका उपयोग करते है और जल के जीवो की हिंसा करते हैं। यह उनको उचित नहीं है। जो मुनि जल के उपयोग से होने वाली हिंसा को बराबर जानता है, वही सच्चा कमज्ञ है। इसलिये बुद्धिमान् नीन प्रकार (करना, कराना और करते को अनुमति देना) से जल की हिसा न करे। [२३-३०]
इसी प्रकार अभि का समझो । जो अग्निकाय के जीवो के स्वरूप को जानने मे कुशल है, वे ही अहिसा का स्वरूप जानने में कुशल है। मनुष्य विषय भोग की आसक्ति के कारण अग्नि तथा दूसरे जीवो की हिसा करते रहते हैं क्योकि श्राग जलाने मे पृथ्वी काय के, घास-पान के, गोबर-कचरे में के तथा आस पास उडने वाले, फिरने वाले अनेक जीव जल मरते है दुखी होकर नाश को प्राप्त होते है । [३६-३८]
इसी प्रकर अनेक मनुष्य आसक्ति के कारण वनस्पति की हिसा करते हैं । मेरा कहना है कि अपने ही समान वनस्पति भी जन्मशील है, और सचित्त है । जैसे जब कोई हमको मारे-पीटे तो हम दुखी हो जाते हैं, वैसे ही वनस्पति भी दुःखी होती है। जैसे हम आहार लेते है वैसे ही वह भी, हमारे समान वह भी अनित्य और श्रशाश्वत है, हम घटते-बढ़ने है. उमी प्रकार वह भी, और अपने मे
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हिंसा का विवेक
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जैसे विकार होते है, वैसे ही उसमे भी होते है । जो वनस्पति की हिंसा करते है, उनको हिंसा का भान नहीं होता । जो मुनि वनस्पति की हिंसा को जानता है, वही सच्चा कमैन है । [४५-४७ ]
___ अंडज, पोतज, जरायुज, रमज, संस्वेदज, संमूर्छिम उनभिज और औपपातिक ये सब स जीव है। अज्ञानी और मंदमति लोगो का बारबार इन सब योनियों में जन्म लेना ही संसार है। जगत् में जहा देखो वही अातुर लोग इन जीवो को दु.ख देते रहते हैं। ये जीव सब जगह त्रास पा रहे हैं। कितने ही उनके शरीर के लिये उनका जीव लेते हैं, तो कितने उनके घमहे के लिये, मांस के लिये, लोही के लिये, हृदय के लिये, पीछी के लिये, वाल के लिये, सींग के लिये, दांत (हाथी के ) के लिये, दाढ़ के लिये, नख के लिये, प्रांत के लिये, हड्डी के लिये, अस्थि मज्जा के लिये, आदि अनेक प्रयोजनो के लिये ब्रस जीवो की हिंसा करते हैं, और कुछ लोग बिना प्रयोजन के ब्रस जीवो की हिंसा करते हैं। परन्तु प्रत्येक जीव की शांति का विचार कर के, उसे बराबर समझ कर उनकी हिंसा न करे। मेरा कहना है कि सब जीवो को पीडा, भय और अशांति दुःखरूप है, इसलिये, बुद्धिमान् उनकी हिंसा न करे, न करावे । [४८-५४ ]
इसी प्रकार वायुकाय के जीवो को समझो । श्रासक्ति के कारण विविध. प्रवृत्तियो द्वारा वायु की तथा उसके साथ ही अनेक जीवों की वे हिंसा करते हैं क्योकि अनेक उड़ने वाले जीव भी झपट में आ जाते है और इस प्रकार आघात, संकोच, परिताप और विनाश को प्राप्त होते हैं। [२८-२६] .
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प्राचारांग सूत्र
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___ जो मनुष्य जीवो की हिंसा में अपना अनिष्ट समझता है, वही उसका त्याग कर सकता है। जो अपना दुख जानता है, वह अपने से बाहर के का दुःख जानता है; और जो अपने से बाहर का दुख जानता है वही अपना दुग्व जानता हैं । यह दोनो समान हैं । शांति को प्राप्त हुए संयमी दूसरे जीवों की हिंसा करके जीने की इच्छा नहीं करते । [५५-४७ ]
प्रमाद और उसके कारण कामादि में आसक्ति ही हिंसा है। इस लिये बुद्धिमान् को, प्रमाद से मैंने जो कुछ पहिले किया, धागे नहीं करूंगा ऐसा निश्चय करना चाहिये । [ ३४-३५]
हिंसा के मूल रूप होने के कारण कामादि ही संसार में भटकाते हैं । संसार में भटकना ही कामादि का दूसरा नाम है। मनुष्य अनेक प्रकार के रूप देख कर और शब्द सुनकर रूपों और शब्दों में मूर्छित हो जाता है। इसी का नाम संसार है। ऐसा मनुष्य जिनो की आज्ञा के अनुसार चल नहीं सकता, किन्तु वारवार कामादि को भोगता हुआ हिंसा आदि वक्र प्रवृत्तियों को करता हुआ प्रमाद के कारण घर में ही मूर्छित रहता है। [४०-४४] ।
विविध कर्मरूपी हिंसा की प्रवृत्ति मैं नहीं करूं' इस भाव से उद्यत हुअा और इसी को माननेवाला तथा अभय अवस्था को जाननेवाला बुद्धिमान ही इन प्रवृत्तियो को नहीं करता । जिन प्रवचन में ऐसे ही मनुष्य को 'उपरत' और 'अनगार' कहा है । संसार मे होने वाली छ काय जीवो की हिंसा को वह बराबर जानता है, वही मुनि कर्मों को बराबर समझता है, ऐसा मैं कहता हूँ। बुद्धिमान् छ काय जीवो की हिंसा न करे, न करावे और करते हुए को अनु
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हिसा का विवेक
mamar मति न दे। हिसा से निवृत्त हुआ विवेकी वसुमान् (गुणसंपत्तिवान्) अकरणीय पापकर्मों के पीछे न दौडे | पापकर्म मात्र में छ. में से किसी न किसी काय के जीवों की हिंसा या परिताप होता ही है । [३६, ६१]
इतने पर भी कितने ही अपने को 'अनगार' कहलाते हुए भी अनेक प्रवृत्तियो से जीवो की हिंसा किया करते है । वे अपनी मान-पूजा के लिये, जन्म-मरण से बचने के लिये, दुःखो को दूर करने के लिये या विषयासक्ति के कारण हिंसा करते हैं। ऐसे मनुष्य अपने लिये बन्धन ही बनाते है वे प्राचार में स्थिर नही होते और हिसा करते रहने पर भी अपने को 'संयमी' कहलाते हैं किन्तु वे स्वछन्दी, पदार्थों में आसक्ति रखने वाले और प्रवृत्तियो में लवलीन लोगो का संग ही बढ़ाते रहते हैं । [६०]
' जो सरल हो, मुमुनु हो और अदम्भी हो वही सच्चा अनगार है। जिस श्रद्धा से मनुष्य गृहत्याग करता है, उसी श्रद्धा को, शंका और श्रासक्ति का त्याग करके सदा स्थिर रखना चाहिये। वीर पुरुष इसी महामार्ग पर चलते आये है 1 [१८-२०]
ESSA
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दूसरा अध्ययन
-(०)लोकविजय aaree
__ जो कामभोग है वे ही संसार के मूलस्थान है और जो संसार के मूलस्थान है वे ही कामभोग हैं। कारण यह कि कामभोगो में थासक्त मनुष्य प्रमाद से माता-पिता, भाई-बहिन, स्त्री-पुत्र, पुत्रवधुपुत्री, मित्र परिचित और दूसरी भोग सामग्री तथा अन्नवस्त्र आदि की ममता मे लीन रहता है। वह सब विषयों की प्राप्ति का इच्छुक
और उसी में चित्त रखने वाला रात दिन परिताप उठाता हुश्रा, समय-कुसमय का विचार किये बिना कठिन परिश्रम उठाता हुया बिना विचारे अनेक प्रकार के कुकर्म करता है, और अनेक जीवों का वध, छेद, भेद तथा चोरी, लूट, त्रास अादि पाप कर्म करने के लिये तैयार होता है। इससे भी श्रागे वह किसीने न किया हुआ कर्म भी करने का विचार रखता है। [ ६२,६६]
__ स्त्री और धन के कामी किन्तु दु खो से डरने वाले वे मनुष्य अपने सुख के लिये शरीरबल, ज्ञातिबल, मित्रवल, प्रेत्यबल (दानव श्रादि का), देवबल, राजवल, चोरबल, अतिथिबल और श्रमणबल (इनसे प्राप्त मत्रतंत्र का अथवा सेवादि से संचित पुण्यका) को प्राप्त करने के लिये चाहे जो काम करते रहते है और ऐसा करते हुए जो हिसा होती है उसका जरा भी ध्यान नहीं रखते । [१]
कामिनी और कांचन मे मूढ़ उन मनुष्यो को अपने जीवन से अत्यन्त मोह होता है। मणि, कुंडल और हिरण्य (मोना)
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लोकविजय
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आदि में प्रीति रखने वाले तथा स्त्रियो में अत्यन्त आसक्ति वाले उन लोगो को ऐसा ही दिखाई देता है कि यहां कोई तप नहीं हैं, दम नहीं है और कोई नियम नहीं है । जीवन और लोगो की कामना वाले वे मनुष्य चाहे जो बोलते हैं और इस प्रकार हिताहित से शून्य वन जाते हैं । [ ७६ ]
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ऐसे मनुष्य स्त्रियों से हारे हुए होते है । वे तो ऐसा ही हो मानते है कि स्त्रियों ही सुख की खान है। वास्तव में तो वे दुःख, मोह, मृत्यु नरक और नीच गति (पशु) का कारण हैं । [ ८४ ]
काम भोगो के ही विचार में मन, वचन और काया से मन रहने वाले वे मनुष्य अपने पास जो कुछ धन होता है, उसमें प्रत्यन्त ग्रासक्त रहते हैं और द्विपद (मनुष्य) चौपाये (पशु) या किसी भी जीव का वध या आघात करके भी उसको बढाना चाहते है | [ ८० ]
परन्तु मनुष्य का जीवन अत्यन्त श्रल्प है । जब श्रायुष्य मृत्यु से घिर जाता है, तो श्रंख, कान आदि इन्द्रियों का बल कम होने पर मनुष्य मूढ हो जाता है । उस समय अपने कुटुम्बी भी जिनके साथ वह बहुत समय से रहता है उसका तिरस्कार करते हैं । वृद्धावस्था में हंसी, खेल, रतिविलास और श्रृंगार अच्छा नहीं जीवन और जवानी पानी की तरह वह जाते हैं, । प्रियजन मनुष्य की मौत से रक्षा नहीं कर सकते । पिता ने बचपन में उसका पालन-पोषण किया था और पर वह उनकी रक्षा करता था । वे भी उसको सकते । [ ६३-६ ]
मालुम होता ।
उस
समय वे
जिन माता
चडा होने नहीं बचा
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१२]
याचारांग मुन
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अथवा, असंयम के कारण अनेक बार उस को रोग होते है । या जिसके साथ वह बहुत समय से रहता पाया हो वे अपने मनुष्य उसे पहिले ही छोड़ कर चले जाते हैं । इस प्रकार चे सुन के कारण नहीं बन सकते और न दुखो से ही बचा सकते हैं और न वह ही उनको दुखों से बचा सकता है। प्रत्येक को अपना सुस-दुग्य खुद ही भोगना पटता है। [2]
उसी प्रकार जो उपभोग सामग्री उमने अपने सगेसम्बन्धियों के साथ भोगने के लिये बड़े प्रयत्न से अथवा चाहे जसे कुकर्म करके इकट्टी की हुई होती है, उसको भोगने का अवसर प्राने पर या तो वह रोगों से घिर जाता है या वे सगे-सम्बन्धी ही उसको छोडकर चले जाते है या वह स्वयं ही उनको छोड़ कर चला जाता है । [६७]
अथवा, कभी उसको अपनी इक्ट्ठी की हुई संपत्ति को बाटना पड़ता है, चोर चुरा ले जाते हैं, राजा छीन लेता है, या वह खुद ही नष्ट हो जाती है, या आग में जल जाती है। यो सुख की श्राशा से इकट्ठी की हुई भोग सामग्री दुःख का ही कारण हो जाती है किन्तु मोह से मूढ़ हुए मनुष्य इसको नहीं समझते [३]
इस प्रकार कोई किमी की रक्षा नहीं कर सक्ता और न कोई किसी को बचा ही सकता है । प्रत्येक को अपने सुख-दुख खुद ही भोगने पड़ते हैं । जब तक अपनी अवस्था मृत्युसे घिरी हुई नहीं है, कान आदि इन्दियों, स्मृति और बुद्धि प्रादि बराबर हैं तब तक अवसर जान कर बुद्विमान् को अपना क्ल्याण साध लेना चाहिये । [६८-७१]
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लोकविजय
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जरा विचार तो करो ! संसार में सब सुख ही चाहते हैं और सब के सब सुख के पीछे ही दौड़ते है । इतने पर भी जगत में मर्वत्र अंधा, बहरा, गंगा, काना, तिरछा कूबडा, काला कोढी होने के दुःख देखे जाते हैं, वे सब दुख विषयसुख में लगे रहने वाले मनुष्यो को अपनी प्रासक्तिरूप प्रमाद के कारण ही होते है। ऐसा सोचकर बुद्धिमान सावधान रहे । अज्ञानी मनुष्य ही विषयसुखों के पीछे पड़कर अनेक योनियो में भटकते रहते हैं। [७७-७८ ]
'मैंने ऐसा क्यिा है और आगे ऐसा ऐसा करूंगा' इस प्रकार से मन के घोड़े दौड़ाने वाला वह मायावी मनुष्य अपने कर्तव्या में मृढ होकर वारवार लोभ बढा कर खुद अपना ही शत्रु बन जाता है । उस सुखार्थी तथा चाहे जो बोलने वाले और दुख से मूढ़ बने हुए मनुष्य की बुद्धि को सब कुछ उल्टा ही सूझता है । इस प्रार व, अपने प्रमाद से अपना ही नाश करता है । [१४-१७]
काम (इच्छाएँ) पूर्ण होना असम्भव है और जीवन बढ़ाया नहीं जा सकता । काम भोगो का इच्छुक मनुष्य शोक करता रहता है और चिन्तित रहता है । मर्यादायो का लोप करता हुया वह अपनी कामासक्ति और झोह के कारण दुखी रहता है और परिताप को प्राप्त होता है । जिसके दुख कभी नाश नहीं होते ऐसा वह मृढ मनुष्य दुख के चक्कर में भटकता रहता हैं । [९२, ८ ]
भोग से तृपणा का शमन कभी नहीं होता । वे तो महाभय रूप हैं और दुखों के कारण हैं । इसलिये उनकी इच्छा छोड़ दो
और उनके लिये किसी को दुख न दो । अपने को अमर के समान समझने वाला जो मनुष्य भोगो में अत्यन्त श्रद्धा रखता है, वह
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याचारांग सूत्र
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दुखी होता है । इसलिये तृष्णा को त्याग दी । कामभोगो के स्वरूप और उनके विकट परिणाम को न समझने वाला कामी अन्त मे रोता और पछताता है । [ ८४-२२, ४, ५ ]
शांति के मूलरूप
भगवान् ने कहा
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विषय कपायादि में प्रति मूढ मनुष्य सच्ची धर्म को समझ ही नहीं सकता । इस लिये, वीर है कि महामोह में जरा भी प्रमाद न करो । हे धीर पुरुष श्राशा और स्वच्छन्दता का त्याग कर । इन दोनो के कारण ही तू भटकता रहता है। सच्ची शांति के स्वरूप औौर मरण (मृत्यु) का विचार करके तथा शरीर को नाशवान् समझ कर कुशल पुरुष क्यो कर प्रमाद करेगा ? [ ८४ ]
जो मनुष्य ध्रुव वस्तु की इच्छा रखते है, वे क्षणिक और दुखरूप भोगजीवन की इच्छा नहीं करते । जन्म और 'मरण का विचार करके बुद्धिमान् मनुष्य दृढ (ध्रुव) संयम में ही स्थिर रहे और एक बार संयम के लिये उत्सुक हो जाने पर तो कर एक मुर्हुत भी प्रमाद न करे क्योकि वाली है । [ ८०, ६५ ]
अवसर जान थाने ही
मृत्यु तो
ऐसा जो बारबार कहा गया है, वह संयम की वृद्धि के लिये ही हे । [ ४ ]
कुशल मनुष्य काम को निर्मूल करके, सब सांसारिक सम्बन्धो और प्रवृत्तियो से मुक्त होकर प्रत्रजित होते हैं । वे काम भोगो के स्वरूप को जानते है और देखते हैं । वे सब कुछ बराबर समझ कर किसी प्रकार की भी ग्राकांक्षा नहीं रखते । [ ७५ ]
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लोकविजय
जो कामभोगो से ऊपर उठ जाते है वे वास्तव में मुक्त ही है । अकाम से काम को दूर करते हुए वे प्राप्त हुए कामभोगो में __ नहीं फंसते । [४]
भगवान् के इस उपदेश को समझने वाला और सत्य के लिये उद्यत मनुष्य फिर इस तुच्छ भोगजीवन के लिये पापकर्भ न करे और अनेक प्रवृत्तियो द्वारा किसी भी जीव की हिंसा न करे और न दूसरो से करावे । सब जीवो को आयुष्य और सुख प्रिय है तथा दुख और आघात प्रिय है। सब ही जीव जीवन की इच्छा रखते हैं और इसी को प्रिय मानते हैं । प्रमाद के कारण अब तक जो कष्ट जीवो को दिया हो, उसे बराबर समझ कर, फिर वैसा न करना ही सच्चा विवेक है । और यही कर्म की उपशांति है । आर्य पुरुषो ने यही मार्ग बताया है । यह समझने पर मनुष्य फिर संसार में लिप्त नहीं होता । [ ६६, ८०, ६७, ७६ ]
(२) जैसा भीतर है, वैमा बाहर है, और जैसा बाहर है वैसा भीतर है। पंडित मनुष्य शरीर के भीतर दुर्गन्ध से भरे हुए भागो को जानता है और शरीर के मल निकालने वाले बाहरी भागो के स्वरूप को बराबर समझता है। बुद्धिमान इसको बराबर समझ कर, बाहर निकाली हुई लार को चाटने वाले वालक की तरह त्यागे हुए भोगो में फिर नहीं पडना । [६३-६५ ]
विवेकी मनुष्य अरति के वश नहीं होता, उसी प्रकार वह रति के वश भी नहीं होता । वह अविमनस्क (स्थितप्रज्ञ ) है । वह
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प्राचारांग सूत्र mommmmmmmmmwww mom कहीं राग नहीं रखता । प्रिय और अप्रिय शब्द और स्पर्शी सहन करने वाला वह विवेकी, जीवन की तृष्णा से निर्वेद पाता है और संयम का पालन करके कर्म शरीर को खखेर देता है । [१-६६]
चीर पुरुष ऊंचा, नीचा और तिरछा सब ओर का सब कुछ समझ कर चलता है । वह हिसा आदि से लिप्त नहीं होता । जो अहिंसा में कुशल है और बंध से मुक्ति प्राप्त करने के प्रयत्न मे रहता है, वही सच्चा बुद्धिमान है। वह कुशल पुरुष संयम का प्रारंभ करता है पर हिंसा आदि प्रवृत्तियो का नहीं । [१०२-१०३]
जो एक (काय) का प्रारम्भ (हिसा) करता है, वह छ.काय के दूसरे का भी करता है । कर्म को बराबर समझ कर उसमे प्रवृत्ति न करे । [१७-१०१ ] _ 'यह मेरा है। ऐसे विचार को वह छोड़ देता है, वह ममत्व को छोड देता है । जिसको ममत्व नहीं है, वही मुनि सच्चा मार्गदृष्टा है । [2]
संसारी जीव अनेक बार ऊँच गोत्रमे प्राता है, वैसे ही नीच गोत्रमें जाता है । ऐसा जान कर कौन अपने गोत्र का गौरव रखे, उसमें आसक्ति रखे या अच्छेबुरे गोत्र के लिये हर्ष-शोक करे ? [७७]
लोगो के सम्बन्ध को जो वीर पार कर जाता है, वह प्रशंसा का पात्र है । ऐमा मुनि ही 'ज्ञात' अर्थात् 'प्रसिद्ध' कहा जाता है । मेधावी पुरुष संसार का स्वरूप बराबर समझ कर और लोकसंज्ञा (लोक-प्रवृत्ति) का त्याग करके पराक्रम करे, ऐसा मैं कहता हूं। [१००, १८]
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लोकविजय
[१७
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पढार्थों को जो यथावस्थित रूप में (जैसा का तैसा) जानता है, वही यथार्थता मे रहता है; और जो यथार्थता में रहता है, वही पढार्थों के यथावस्थित रूप को जानता है। ऐसे ही मनुष्य दूसरो को दु.खो का सच्चा जान करा सकते हैं। वे मनुष्य संसार योघ के पार पहुंचे होते हैं और वे ही नीर्ण, मुक्त और विरक्त कहे जाते हैं, ऐसा मैं कहता हूं। [ १०१,६] ___जो मनुष्य ज्ञानी है, उसके लिये कोई उपदेश नहीं है। ऐसा कुशल मनुष्य कुछ करे या न करे उससे वह न बद्ध है और न मुक्त है। तो भी लोक संज्ञा को सब प्रकार बराबर समझ कर और समय को जान कर वह कुशल मनुष्य उन कर्मों को नहीं करता जिनका प्राचरण पूर्व के महापुरुषोने नहीं किया। [८१,१०३ ]
जो बंधे हुो (कमों से) को मुक्त करता है, वही वीर प्रशंसा का पात्र है। [१०२]
अपने को संसारियों के दुखो का वैद्य बताने वाले, अपने को पंडित मानने वाले कितने ही तीर्थक (मत प्रचारक) घातक, छेदक, भेदक, लोपक उपद्रवी और नाश करने वाले होते है । वे ऐसा मानते है कि क्सिीने नहीं किया, वह हम करेंगे। उनके अनुयायी भी उनके समान ही होते हैं । ऐसे मूढ मनुष्यों का संसर्ग न करो। वैसे दुर्वसु, असंयमी और जीवन चर्या में शिथिल मुनि सत्पुरुषो की श्राज्ञा के विगधक होते हैं । [१५-१००]
मोह से घिरे हुए और मंद कितने ही मनुष्य संयम को ' म्वीकार करके भी विषयों का सम्बन्ध होते ही फिर स्वछन्द हो
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श्राचागंग सत्र
जाते हैं । 'अपरिग्रही रहेंगे ऐसा सोचकर उद्यत होने पर भी ये कामभोगो के प्राप्त होते ही उनमें फंस जाते हैं और स्वछन्द रहकर बारवार मोह में फंसते है। वे न तो इन पार है और न उस पार । सच्चा साधु ऐसा नहीं होता । संयम में से अरति दूर करने वाले और संयम से न ऊबने वाले मेधावी बीर प्रशंसा के पात्र है । ऐसा मनुष्य शीघ्र ही मुक्त होता है । [७३, ६५, ७२, ८५]
उद्यमवंत, श्रार्थ, पार्यप्रन और श्रार्थदर्शी ऐमा, संयमी मुनि समय के अनुसार प्रवृत्ति करता है । काल, बल, प्रमाण, क्षेत्र, अवसर, विनय, भाव और स्व-पर सिद्धान्तो को जानने वाला, परिग्रह से ममत्वहीन, यथासमर प्रवृत्ति करने वाला ऐसा वह नि संकल्प भिक्षु राग और द्वेष को त्याग कर संयमधर्भमें प्रवृत्ति करता है । अपनी जरूरत के अनुसार वस्त्र, पात्र, कंबल, रजोहरण, स्थान और श्रासन यह सब वह निय रीति से गृहस्थों के पास से मांग लेता है । गृहस्थ अपने लिये या अपने स्वजनो के लिये अनेक कर्म-समारम्भो के द्वारा भोजन, व्यालू, कलेवा या उत्सवादि के लिये आहार श्रादि खाद्य तयार करते हैं या संग्रह कर रखते है । उनके पास से वह भिक्षु अपने योग्य आहार विधिपूर्वक मांग लेता है।
___ वह भिक्षु महा श्रारम्भ से तैयार किया हुअा अाहार नहीं लेता न दूसरो को दिलाता है या दूसरो को उसकी अनुमति देता है । सत्यदर्शी वीर गाढा-पतला और रूखा-सूखा भिक्षान्न ही लेते हैं। भिक्षा के सब प्रकार के दोप जान कर, उन दोपो से मुक्त होकर वह मुनि अपनी चर्या में विचरता है। वह न तो कुछ खरीदता है, न खरीदवाता है और न खरीदने की किसी को अनुमति देता है। कोई
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लोकविजय
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मुझे नहीं देता, ऐसा कह कर वह क्रोध नहीं करता; थोढा देने वाले की निंदा नहीं करता, कोई देने का नकारा कहे तो वह लौट जाता है, देदे तो वापिस स्थान पर आ जाता है; अाहार मिलने पर प्रसन्न नहीं होता, न मिले तो शोक नहीं करता; श्राहार मिलने पर उसको अपने परिमाण से लेता है, अधिक लेकर संग्रह नहीं करता, तथा अपने आप को सब प्रकार के परिग्रह से दूर रखता है। पार्य पुरुषो ने यही मार्ग बताया है, जिससे बुद्धिमान् लिप्त नहीं हो पाता ऐसा मैं कहता हूँ। [८५-६१]
वह संयमी मुनि जिस प्रकार धनवान को उपदेश देता है उसी प्रकार तुच्छ गरीव को भी; और जिस प्रकार गरीब को उपदेश देता है, उसी प्रकार धनवान को भी। धर्मोपदेश देते समय यदि कोई उसे अनादर से मारने को तैयार होता है तो उसमें भी वह अपना कल्याण समझता है। उसका श्रोता कौन है, और वह किस का अनुयायी है, ऐसा सोचने में वह अपना कल्याण नहीं समझता । [१०१-१०२]
बंध को प्राप्त हों को मुक्त करने वाला वह वीर प्रशंसा का पात्र है। [१०२]
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तीसरा अध्ययन
-(6)सुख और दुःख
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संसार के लोगो की कामनायो का पार नहीं है। वे चलनी में पानी भरने का प्रयत्न करते है। उन कामनाओं को पुरी करने में दूसरे प्राणियो का वध करना पढे, उनको परिताप देना पड़े, उनको वश में करना पड़े या सारे के सारे समाज को वैसा करना पड़े तो भी वे धागे-पीछे नहीं देखते है । काममूढ और रागटेप में फंसे हुए वे मन्द मनुष्य इस जीवन की मान-पूजा में श्रासक्त रहते हैं। और अनेक वासनाओ को इक्ट्ठी करते हैं। इन वासनायो के कारण वे वारबार गर्भ को प्राप्त होते हैं। विषयो में मूढ़ मनुष्य धर्म को न जान सकने के कारण जरा और मृत्यु के वश ही रहता है । [११३, १११, ११६, १०८ ]
इसी लिये बीर मनुष्य विषयसंग से प्राप्त होने वाले बंधन के स्वरूप को और उसके परिणाम में प्राप्त होने वाले जन्ममरण के शोक को जान कर संयमी बने तथा छोटे और बड़े सब प्रकार की अवस्था में वैराग्य धारण करे । हे ब्राह्मण ! जन्म और मरण को समझ कर तू संयम के सिवाय दूसरी तरफ न जा, हिंसा न कर, न करा, तृष्णा से निर्वेद प्राप्त कर, स्त्रियो से विरक्त होकर उच्चदर्शी वन, और पापकर्मों से छट । संसार की जाल को समझकर राग
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सुख और दुःख
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और द्वेप से अस्पृष्ट रहने वाला छेदन-भेटन को प्राप्त नहीं होता, न वह जलता और न मारा ही जाता है । [११४, ११६ ]
माया श्रादि कपायो से और विषयासक्ति रूप प्रमाद से युक्त मनुष्य बारबार गर्भ को प्राप्त होता है। किन्तु शब्दरूपादि विषयो में तटस्थ रहनेवाला सरल और मृत्यु से डरने वाला जन्ममरण से मुक्त हो सकता है । ऐमा मनुष्य कामो मे अप्रमत्त, पापकर्मी से उपरत, वीर, और श्रात्मा की सब प्रकार से (पापो से) रक्षा करने वाला, कुशल तथा संसार को भयस्वरूप समझने वाला और संयमी होता है । [१०६, १११]
लोगो में जो अज्ञान है, वह अहित का कारण है । दुःख मात्र प्रारंभ (मकाम प्रवृत्ति और उसके परिणाम में होने वाली हिमा) से उत्पन्न होता है, ऐसा समझ कर, प्रारंभ अहितकर हैं, यह मानो । कर्म से यह सब सुखदुःखरूपी उपाधि प्राप्त होती है । निष्कर्म मनुष्य को संमार नहीं बंधता | इस लिये कर्म का स्वरूप समझ कर और कर्ममूलक हिंसा को जान कर, सर्व प्रकार से संयम को स्वीकार करके; राग और द्वेप से दूर रहना चाहिये । बुद्धिमान लोक का स्वरूप समझ कर, कामिनी-कांचन के प्रति अपनी लालसा का त्याग कर के, दूसरा सब कुछ भी छोडकर संयम धर्म में पराक्रम करे । [१०६, १०६, १००]
कितने ही लोग भागे-पीछे का ध्यान नहीं रखते, क्या हुया और क्या होगा, इसका विचार नहीं करते । कितने ही ऐसा भी कहते है कि जो हुया है, वहीं होगा। परंतु तथागत (सत्यदर्शी)
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श्राचागंग सूत्र
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पुरुप कहते है कि कर्म की विचित्रता के कारण जैसा हुया है, वैसा ही होगा, यह बात नहीं है और जैसा होता है, वैसा ही होना चाहिये, यह बात भी नहीं है। इस को अच्छी तरह समझ कर मनुष्य शुद्ध आचरण वाला बनकर कर्म का नाश करने में तत्पर बने । [११६ ]
हे धीर पुरुष | तू संसारवृक्ष के मूल और डालियो को तोड़ फैक । इसका स्वरूप समझकर नै कम्यदर्शी (आत्मदर्शी) बन | दुःख के स्वरूप को समझने वाला सम्यग्दर्शी मुनि परम मार्ग को जान लेने के बाद पाप नहीं करता । पदार्थों का स्वरूप समझ कर उपरत हुआ वह बुद्धिमान् सब पापकर्मों को त्याग देता है । [१]
समझ कर मासम्बन्ध की पाशी बनकर जन्न
हे पार्थ पुरुष ! तू जन्म मरण का विचार करके और उसे समझ कर प्राणियों के सुख का ध्यान रख । तू पाप के मूल कारण रूप लोगो के सम्बन्ध की ,पाश (जाल) को तोड दे। इस पाश के कारण ही मनुष्य को हिंसा जीवी बनकर जन्ममरण देखना पडता है। [१११]
बुद्धिमान को सब पर समभाव रख कर तथा संसार के सम्बन्धो को बरावर जान कर सब प्राणियो को अपने समान ही समझना चाहिये । और हिंसा से विरत होकर किसी का हनन करना और करवाना नहीं चाहिये । मूर्ख मनुष्य ही जीवो की हिंसा करके प्रसन्न होता है । पर वह मूर्ख यह नहीं जानता कि वह खुद ही वैर बढा रहा है । अनेक बार कुगति प्राप्त होने के बाद बड़ी कठिनता से मनुष्यजन्म को प्राप्त करने पर किसी भी जीव के प्राणो
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“सुख और दुख
[२३
की हिसा न करे, ऐसा मैं कहता हूँ । श्रद्धावान् और जिनाना को मानने वाला बुद्धिमान् लोक का स्वरूप बरावर समझ कर किसी भी तरह का भय न हो, इस प्रकार प्रवृत्ति करे । हिंसा मे कमी करे पर अहिसा में नहीं। [१०६, १११, ११४, १२४, ]
जो मनुष्य शब्द आदि कामभोगो की हिसा को जानने मे कुशल है, वे ही अहिसा को समझने में कुशल हैं । और जो अहिसा को समझने में कुशल है, वे ही शब्द आदि कामभोगो की हिंसा को जानने में कुशल हैं । जिसने इन शब्द रूप, गन्ध, रस और स्पर्श का स्वरूप बराबर समझ लिया है, वही आत्मवान, ज्ञानवान, वेदवान धर्मवान और ब्रह्मवान है । वह इस लोक के स्वरूप को बरावर समझता है। वही सच्चा मुनि है । वह मनुष्य संसार के चक्र और उस के कारण रूप मायाके संग को बरावर जानता है। [१०६, १०६-७]
जगत् के किंकर्तव्यमूढ और दु खसागर में डूबे हुए प्राणियो को देख कर अप्रमत्त मनुष्य सब कुछ त्याग कर संयम धर्म स्वीकार करे
और उसके पालन में प्रयत्नशील बने । जिनको संसार के सब पदार्थ प्राप्त थे, उन्होने भी उसका त्याग करके संयम धर्म स्वीकार क्यिा है। इस लिये ज्ञानी मनुष्य इस सबको नि सार समझ कर संयम के सिवाय दूसरी किसी वस्तु का सेवन न करे। [ १०६,११४ ]
हे पुरुष! तू ही तेरा मित्र है। बाहर मित्र को क्यो ढूंढता है ? तू अपनी प्रात्मा को निग्रह में रख । इस प्रकार तू दुख से मुक्त हो जावेगा। [ ११७, ११८]
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श्राचागग सूत्र
है वह
जो उत्तम है, वह दूर है; और जो दूर उत्तम है । हे पुरष । तू सत्य को पहिचान ले । सत्य की साधना करने वाला, प्रयत्नशील, स्वहित में तत्पर, तथा धर्म को मानने वाला मेधावी पुरुष ही मृत्यु को पार कर जाता है और अपने श्रेय के दर्शन कर पाता है । कपायो का त्याग करने वाला वह अपने पूर्व कर्मों का नाश कर सकता है । [१८]
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२४ ]
प्रमादी मनुष्य को ही सब प्रकार का भय होता है, अप्रमादी को किमी प्रकार का भय नहीं होता । लोक का दुख जानकर और लोक के संयोग को त्याग कर वीर पुरुष महामार्ग पर बढ़ते है । उत्तरोत्तर ऊपर ही चढने वाले वे, असंयमी जीवन की इच्छा नहीं करते । [ १२३ ]
संसार में रति और यरति दोनों को ही मुमुक्षु त्याग दे । सब प्रकार की हंसी को छोड़कर मन, वचन और काया को संयम मे स्थिर रखकर बुद्धिमान विचरे । [ ११७ ]
अपने श्रेय (कल्याण) को साधने से प्रयत्नशील रहने वाला संयमी दुखो के फेर में था जाने पर भी न घबराये । वह सोचे कि इस संसार से संयमी मनुष्य ही लोकालोक के प्रपंच से मुक्त हो सकता है। [ १२० 1
प्रमुनि (संसारी) ही सोते होते है, मुनि तो हमेशा जागते होते है । वे निर्ग्रन्थ शीत और ऊण श्रादि द्वन्द्वो को त्याग देते है, रति और रति को सहन करते है और कैसे ही कष्ट श्रा पडने पर शिथिल नहीं होते । वे हमेशा जागते हैं और पैर से विरत होते है ।
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सुख और दुःख
हे वीर ! तू ऐसा बनेगा तो सब दुखो से मुक्त हो सकेगा ।
[ 90%, 905]
[ २५
श्रात्मा
संयम को उत्तम मानकर ज्ञानी कभी प्रमाद न करे । की रक्षा करने वाला वीर पुरुष संयम के अनुकूल मिताहार के द्वारा शरीर को निभावे और लोक में सदा परदर्शी, एकान्तवासी, उपशांत समभावी, सहृदय और सावधान होकर काल की राह देखता हुया विचरे । [ ११६ १११]
एक-दूसरे की शर्म रखार या भय के कारण पापकर्म न करने चाला क्या मुनि है? सच्चा मुनि तो समता को बराबर समझ कर अपनी श्रात्मा को निर्मल करने वाला होता है । [ ११ ]
क्रोध मान, माया और लोभ को छोडकर ही संयमी प्रवृत्ति करे | ऐसा हिंसा को त्याग कर संसार का अन्त कर चुकनेवाले दृष्टा कहते हैं । जो एक को जानता है, वही सबको जानता है, और जो सबको जानता है, वही एक को जानता है । जो एक को मुकाता है, वही सबको झुकाता हैं, और जो सबको झुकाता है, वही एक को काता है। इसका मतलब यह है कि जो क्रोध आदि चार कपायों में से एक का नाश करता है, वही बाकी के तीनो का नाश करता है, और जो बाकी के तीनोका नाश करता है, वही एक का नाश करता है । [ १२१, १२४ ]
जो क्रोधदर्शी है, वही मानदर्शी है, जो मानदर्शी है वही मायादर्शी है, जो, मायादर्शी है, वही लोभदर्शी है; जो लोभदर्शी है, वही रागदर्शी है; जो रागदर्शी है, वही पदर्शी है, जो द्वैपदर्शी है, वही मोहदर्शी है; जो मोहदर्शी है, वही गर्भदर्श है, जो गर्भदर्शी है, वही जन्मदर्शी है,
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२६ ]
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जो जन्मदर्शी है, वहीं मृत्युदर्शी है, जो मृत्युदर्शी है, वही नरकदर्शी है; जो नरकदर्शी है, वही तिर्यचदर्शी है, जो तिर्यचदर्शी है, वही दुखदर्शी है । इस लिये बुद्धिमान मनुष्य क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष और मोह को दूर करके गर्म, जन्म, मृत्यु, नरक और नियंचगति के दुःख दूर करे, ऐसा हिंसा को त्याग कर संसार का अन्त कर चुकने वाले दृष्टा कहते है ।
संक्षेप में नये कर्मों को रोकने वाला ही पूर्व के कर सकता है । दृष्टा ( सत्य को जानने और मानने कोई उपाधि नही होती । [ १२५ ]
श्राचाराग सूत्र
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कमों का नाश वाले) को
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चौथा अध्ययन
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सम्यक्त्व
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( 2 )
जो अरिहंत पहिले हो गये है, वर्तमान में हैं और भविष्य में होगे, उन सबने ऐसा कहा है कि किसी भी जीव की हिंसा नहीं करना चाहिये, उस पर सख्ती नहीं करना चाहिये, उसे गुलाम या नौकर बनाकर उस पर बलात्कार नहीं करना चाहिये या उसे परिताप देना अथवा मारना नहीं चाहिये । यह धर्म शुद्ध है, नित्य है, शाश्वत है और लोक के स्वरूप को समझ कर ज्ञानी पुरुषोने गृहस्थ और त्यागी सबके लिये कहा है । यही सत्य है, और जिन प्रवचन से इसी प्रकार कहा है । [ १२६ ]
परन्तु विभिन्न वादों के प्रवर्तक कितने ही श्रमण-ब्राह्मण ऐसा कहते हैं कि, " हमारे देखने, जानने सुनने और मानने के अनुसार और सत्र दिशा को खोजने के बाद हम कहते है कि सत्र जीवो की हिसा करने और जबरदस्ती से उनसे काम लेने आदि में कोई दो नहीं है । परन्तु ग्रार्यपुरुष कहते है कि उनका ऐसा कहना नार्थ वचन है जो ठीक नहीं है । सब प्राणियो की हिंसा नहीं करना चाहिये, उनको परिताप नहीं देना चाहिये, नहीं मारना चाहिये, उनकी गुलाम या नौकर बना कर उन पर बलात्कार नहीं करना चाहिये ।' यही आर्यवचन है।
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maAjme-o
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प्राचागंग सूर
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ऐसा कहने वाले प्रत्येक श्रमण-ब्राह्मण को बुलाकर पूछो कि, 'भाई, तुमको सुख दुखरूप है या दु.प दु यरूप?' याद वै मत्व बोलें तो यही कहेंगे कि, 'हमको दुख ही दुग्वरूप है। फिर उनसे कहना चाहिये कि, 'तुमको दुब जैसे दुखरूप है वैसे ही सब जीवों को भी दु.ख महा भय का कारण और अशांति कारक है।' मेलार में बुद्धिमान मनुष्य इन अधर्मियों की उपेक्षा करते हैं। धर्मज्ञ और सरल मनुष्य शरीर की चिन्ता दिये बिना, हिमा का त्याग करके कमों का नाश करते हैं। दुःस्वमात्र प्रारम्भसकाम प्रवृत्ति और उससे होने वाली हिंसा से होता है, ऐसा जान कर वे ऐसा करते हैं। दुःख के स्वरूप को समझने में कुशल वे मनुष्य कर्भ का स्वरूप बराबर समझ कर लोगो को सच्चा ज्ञान दे मकते है [ १३३-१३५]
संसार में अनेक लोगों को पापकर्म करने की प्रादत ही होती है, इसके परिणाम में वे अनेक प्रकार के दु.ख भोगते है। वर कर्म करने वाले वे अनेक वेटना उठाते हैं। जो ऐसे कर्म नहीं करते वे ऐसी वेठना भी नहीं उठाते, ऐसा ज्ञानी कहते है। [ १३२ ]
अज्ञानी और अन्धकार में भटकने वाले मनुष्य को जिन की अाना का लाभ नहीं मिलता। जिस मनुष्य में पूर्व में भोगे हुए भोगों की कामना नष्ट हो गई है और जो (भविष्य के) परलोक के भोगों की कामना नहीं रखता, उसको वर्तमान भोगो की कामना क्यो होगी? ऐसे शमयुक्त श्रात्म-कल्याण में परायण, सदा प्रयत्नशील, शुभाशुभ के जानकार, पापकर्मों से निवृत्त, लोक (संसार) को बराबर समझ कर उसके प्रति तटस्थ रहने वाले और सब विषयों में सत्य पर दृढ रहने वाले वीरों को ही हम ज्ञान देंगे। ज्ञानी और बुद्ध
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सम्यक्त्व
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मनुष्य प्रारम्भ के त्यागी होते है, इस सचाई को ध्यान में रखो। जिलने वध, बंध, परिताप और बाहर के (पाप) प्रवाहों को रोक दिया है और कर्म के परिणामो को समझ कर जो नैकर्म्यदर्शी (आत्मदर्शी) हो गया है वह वेदवित् (वेद अर्थात् ज्ञान को जानने वाला) कर्मवन्धन के कारणो से पर (दर) रहता है। [१३८-१३६]
अज्ञानियो को जो बन्ध के कारण है, वे ही ज्ञानियो को मुक्ति के कारण हैं, और जो ज्ञानियो को मुक्ति के कारण है, वे ही अज्ञानियो को बन्ध के कारण है। इसको समझने वाले संयमी को ज्ञानियो की आज्ञा के अनुसार लोक के स्वरूप को समझ कर, उनके बताए हुए मार्ग पर चलना चाहिये । संसार में पडकर धक्के खाने के बाद जागने और समझने पर मनुप्यो के लिये ज्ञानी पुरुप मार्ग बतलाते है। [१३०-१३१]
ज्ञानी पुरुपो से धर्म को समझ कर, स्वीकार करके पडा न रहने दे। परन्तु जो सुन्दर और मनोवाछित भोग पढार्य प्राप्त हुए हैं, उनसे वैराग्य धारण करके लोकप्रवाह का अनुसरण करना छोड़ दे। मने देखा है और सुना है कि संसार में आसक्त होकर विपयो में फंसने वाले मनुष्य बारबार जन्म को प्राप्त होते है। ऐसे प्रमादियो को देख कर, त्रुद्विमानको सदा सावधान, अप्रमत्त और प्रयत्नशील रह कर पराक्रम करना चाहिये, ऐसा मै कहता हूं। [१२७-१२८]
जिन की आज्ञा मानने वाले निस्पृह बुद्धिमान मनुष्य को अपनी आत्मा का बराबर विचार करके उसको प्राप्त करने के लिये
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याचागंग सुत्र
शरीर की ममता छोडना चाहिये। जैसे अग्नि पुरानी लकडियों को एकदम जला डालनी है, वैसे ही प्रात्मा में समाहित और स्थिरबुद्धि मनुष्य क्रोध आदि कपायो को जला दे। यह शरीर नाशवान् है,
और भविष्य में अपने कर्मों के फलस्वरूप दुःख भोगना ही पड़ेंगे। कर्मों के कारण तडफते हुए अनेक मनुग्यो और उनके कटु अनुभवी की ओर देखो। अपने पूर्वसम्बन्धो का त्याग करके, विषयामक्ति से उपशम प्राप्त करके शरीर को (संयम के लिये) बराबर तैयार कगे। भविष्य में जन्म न प्राप्त करने वाले वीर पुरुषो का मार्ग कठिन है । अपने मांस और लोही को सुखा डालो। स्थिर मन वाले वीर संयम में रत, सावधान, अपने हित में तत्पर और हमेशा प्रयत्नशील होते है। ब्रह्मचर्य धारण करके कर्म का नाश करने वाले संयमी वीर मनुष्य को ही ज्ञानी पुरुषोने माना है। [१३५-१३७ ]
नेत्र अादि इन्द्रियो को वश में करने के पश्चात् भी मंदमति मनुष्य विषयो के प्रवाह से वह जाते हैं। संयोग से मुक्त नहीं हुए इन मनुष्यो के बन्धन नहीं कटते । विषयभोग के कारण दु खो से पीडित और अब भी उनमें ही प्रमत्त रहनेवाले हे मनुप्यो ! मैं तुम्हें सच्ची बात कहता हूं कि मृत्यु अवश्य आवेगी ही। अपनी इच्छायो के वशीभूत, असंयमी, काल से घिरे हुए और परिग्रह में फंसे हुए लोग बारबार जन्म प्राप्त करते रहते हैं। [१३८, १३१]
जो मनुष्य पापकर्म से निवृत्त हैं, वे ही वस्तुत. वासना से रहित है। इसलिये बुद्धिमान तथा संयमी मनुष्य कपायो को त्याग दे । जिसको इस लोक में भोग की इच्छा नहीं है, वह अन्य निद्य प्रवृत्ति क्यो करेगा ? ऐसे वीर को कोई उपाधि क्यो होगी ? दृष्टा को उपाधि नही होनी, ऐसा मैं कहता हूं । [ १३६,१२८,१४० ]
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पांचवां अध्ययन
-(.)लोकसार
विपयी मनुप्य अपने भोगो के प्रयोजन से अथवा बिना किसी प्रयोजन से हिंसा आदि प्रवृत्ति करते रहते हैं। इस कारण वे अनेक योनियो मे भटकते रहते है। उनकी कामनाएँ बढी-बड़ी होती हैं। इस कारण वे मृत्यु से घिरे रहते हैं। अपनी कामनाओं के कारण ही वे सच्चे सुख से दूर रहते हैं। ऐसे मनुष्य न तो विपयो को भोग ही सकते हैं और न उनको त्याग ही सकते है। [१४१]
रूप आदि में आसक्त और दुर्गति में भटकने वाले जीवो को देखो। वे वारवार अनेक दु.खो को भोगते रहते है। अपनी प्रासक्ति के वश में होकर वे अशरण को शरण मानकर पापकर्मों में ही लीन रहते है। अपने सुख के लिये चाहे जैसे क्रूर कर्म करने और उनके परिणामो से दुखी वे सूढ और मन्द मनुष्य विपर्यास (सुख के बदले दुःख) को प्राप्त करते हैं और वारवार गर्भ, मृत्यु और मोह को ही प्राप्त होते है। ऐसे मनुग्यो की एक समान यही चर्चा होती है, वे अति क्रोधी, अति मानी, अति मायावी, अति लोभी, अति श्रासक्त, विषयो के लिये नट के समान आचरण करने वाले, अति शठ, अति संकल्पी, हिसा आदि पापकर्मी में फसे हुए और अनेक कर्मों से घिरे हुए होते है । कितने ही त्यागी कहलाने वाले साबुनो की
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૩૨ ]
श्राचारांग सूत्र
भी यही दशा होती है । वे चाहते है कि उनकी इस प्रकार की चर्या को कोई न जान ले वे सब सूट मनुष्य ज्ञान और प्रमाद के दोष से धर्म को जान नहीं सकते । [ २४१-१४२ ] हे भाई! ये मनुष्य दुखी है और पापक्रमों में नेक प्रकार के परिग्रह वाले से मनुष्य उनके पास जो छोटा-बड़ा सचित्त या चित्त है, उसमें ममता रखते उनके लिये महा भय का कारण है । [ १४५, १४६ ]
कुशल हैं।
कम - अधिक, है । यहीं
अज्ञानी, मंत्र और मूड मनुष्य के जीवन को, संयमी दूब के भाग पर स्थित, हवा से हिलना हुया और गिरने को तैयार पानी के वृन्द के समान समझते हैं [ १४२ ]
जो मनुष्य विषयो के स्वरूप को बराबर सममता है, वह संसार के स्वरूप को बराबर समझता है, और जो विपयो के स्वरूप को नही जानता, वह संसार के स्वरूप को नहीं जानता । कामभोगो को सेवन करके उनको न समझने वाला मूढ मनुष्य दुगुनी भूल करता है । अपने को प्राप्त विषयो का स्वरूप समभकर उनका सेवन न करे, ऐसा मै कहता हूं । कुशल पुस्प कामभोगो को सेवन नहीं करता । [ १४३, १४४ ]
संयम को स्वीकार करके हिंसा आदि को त्यागने वाला जो मनुय यह समझता है कि इस शरीर से संयम की साधना करने का अवसर मिला है उसके लिये कहना चाहिये कि उसने अपना कर्तव्य पालन किया । बुद्धिमान ज्ञानियों से प्रायों का उपदेश दिया हुआ समता धर्म प्राप्त कर ऐसा समझता है कि मुझे यह अच्छा अवसर मिला । ऐसा अवसर फिर नहीं मिलता । इसलिये मैं कहना हूं कि अपना वल संग्रह कर मत रसो । [ १४६, १५३ ]
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लाक्सार
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मैंने सुना है और अनुभव किया है कि बन्धन से छूटना प्रत्येक के अपने हाथ में है। इस लिये, ज्ञानियो के पास से समझ कर, हे परमचतुवाले पुरुष ! तू पराक्रम कर । यही ब्रह्मचर्य है ऐसा मैं कहता हूं। [१ ]
संयम के लिये उद्यत हुश्रा मनुष्य, ऐसा जानकर कि प्रत्येक को अपने कर्म का सुख-दुख रूपी फल स्वयं ही भोगना पड़ता है, प्रमाद न करे । लोक-व्यवहार की उपेक्षा करके सब प्रकार चे संगो से दूर रहने वाले मनुष्य को भय नहीं है। [१४६, १४६]
कितने ही मनुष्य ऐसे होते है जो पहिले सत्य के लिये उद्यत होते हैं और पीछे उसी मे स्थिर रहते हैं; क्तिने ही ऐसे होते हैं जो पहिले उद्यत होकर भी पीछे पतित हो जाते है। ऐसे असंयमी दूसरों से ऐसा कहते हैं कि अविद्या से भी मोक्ष मिलता है। वे संसार के चक्कर में फिरते रहते है। तीसरे प्रकार के ऐसे होते है जो पहिले उद्यत भी नहीं होते और पीछे पतित भी नहीं होते। ऐसे असंयमी लोक के स्वरूप को जानते हुए भी संसार में ही इवे रहते है। ऐसा जानकर मुनियोने कहा है कि बुद्धिमान को ज्ञानी की अाज्ञा को मानकर स्पृहा रहित, सना प्रयत्नशील होकर तथा शील
और संसार का स्वरूप सुनकर, समझ कर काम रहित और द्वन्द्वहीन बनना चाहिये। [५५२-१४५,१५३]
हे बन्धु ! अपने साथ ही युद्ध कर, बाहर युद्ध करने से क्या होगा? खुद के सिवाय युद्ध के योग्य दूसरी वस्तु मिलना दुर्लभ है। जिन प्रवचन में कहा है कि जो रूप प्रादि में ग्रासक्त रहते है, वे ही हिमा में प्रासक्त रहते है। कर्मका स्वरूप समझ कर किसी की
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याचारांग सून
हिसा न करे और संयमी हो जाने पर स्वदन्दी न बने । साधुता का
आकांनी, प्रत्येक जीव के सुख का विचार करके समस्त लोक में किसी को परिताप न दे किसी की हिना न करे। संयम की ओर ही लक्ष्य रखने वाला और असयम के पार पहुंचा हुण्या स्वियों से विरक्त हो कर निवेदपूर्वक रहे। वह गुणवान और ज्ञानी किमी प्रकार का पापकर्भ न करे । [१५४]
जो सत्य है वही साधुता है; और जो माधुता है, वही सत्य है । जो शिथिल है, ढीले है, कामभोगो मे लोलुप है, वक्र प्राचार वाले हैं, प्रमत्त है और घर-धन्धे में ही लगे रहते हैं, उनको साधुना प्राप्त नहीं हो सकती। [१५५ ]
मुनि बनकर शरीर को बराबर वश में रखो। सम्यग्दी वीर मनुष्य बचा-खुचा और रुखा-सूखा खाकर ही जीते हैं। पापकर्मी से उपरत ऐसे वीरो को कभी रोग भी हो जावे तो भी वे उनको सहन करते हैं। इसका कारण यह कि वे जानते हैं कि शरीर पहिले भी ऐसा ही था और फिर भी ऐसा ही है। शरीर सदा नागवान, अध्रुव अनित्य, अशाश्वत, घटने-बढ़ने वाला और विकारी है। ऐसा सोचकर वह संयमी बहुत समय तक दुखो को सहन करता रहता है। ऐसा मुनि इस संसार प्रवाह को पार कर सकता है। उसी को मुक्त
और विरत कहा गया है, ऐसा मै कहता हूं। संयम में रत और विपयो से मुक्त और विरत रहने वाले मनुष्य को संसार में भटकना नहीं पड़ता। [१२५, १४७, १४८]
जिस प्रकार निर्मल पानी से भरा हुआ और अच्छे स्थान पर स्थित जलाशय अपने आश्रित जीवों की रक्षा का स्थान होता है, उसी
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लोकसार
प्रकार इस संसार प्रवाह मे ज्ञानी पुस्प हैं। ये सब गुणसंपत्तियो से परिपूर्ण होते हैं, समभावी होते है और पाप रूपी मल से निर्मल होते हैं। जगत के छोटे बड़े सब प्राणियो की रक्षा में लीन रहते है और उनकी सब इन्द्रियो विपयो से निवृत्त होनी हैं। ऐसे महर्षियों की इस संसार में कोई इच्छा नहीं होनी । वे काल की राह देखते हुए जगत में विचरते है। [१६०]
ऐसे कुशल मनुष्य की दृष्टि में, ऐसे कुशल मनुष्य के बताए हुए त्याग मार्ग मे, ऐसे कुशल मनुष्य के श्रादर में, ऐसे कुशल मनुष्य के समीप संयमपूर्वक रहना चाहिये और ऐसे कुशल मनुष्य के मन के अनुसार चलना चाहिये। विनयवान शिष्य को इनकी सब तरह से सेवा करना चाहिये। ऐसा करने वाला संयमी इन्द्रियों को जीत कर सत्य वस्तु देख सकता है। [ १५७, १६७ ]
___ जिसकी अवस्था और ज्ञान अभी योग्य नहीं हुए ऐसे अधूरे भिनु को ज्ञानी की अनुमति के बिना गांव-गांव अकेला नहीं फिरना चाहिये। ज्ञानी की यात्रा के बिना वाहर का उसका सब पराक्रम व्यर्थ है। [ १५६]
क्तिने ही मनुष्य शिक्षा देने पर नाराज होते है। ऐसे वमण्डी मनुष्य महा मोह से घिरे हुए है। ऐसे अज्ञानी और अंधे मनुष्यों को बारबार कठिन बाधाएं होती रहती हैं। हे भिक्षु ! तुझे तो ऐसा न होना चाहिये, ऐसा कुशल मनुष्य कहते है। [ १५७ ]
गुरु की श्राक्षा के अनुसार अप्रमत्त होकर चलने वाले गुणवान संयमी से अनजान में जो कोई हिसा आदि पाप हो जाता है तो उसका बन्ध इसी भव से नष्ट हो जाता है। परन्तु जो कर्म अनजार
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आचारांग सूत्र
में न हुआ हो, उसको जानने के बाद संयमी को उसका प्रायश्चित्त करना चाहिये । चेदवित् ( ज्ञानवान ) मनुष्य इस प्रकार प्रमाद से किये प्रायश्चित्त की प्रशंसा करते हैं। [१]
स्वहित में तत्पर बहुदर्शी, ज्ञानी, उपशांत सम्यक् प्रवृत्ति करने वाला और सदा प्रयत्नशील | ऐसा मुमुक्षु स्त्रियो को देख कर चलायमान न हो। वह अपनी प्रात्मा को समझावे कि लोक में जो स्त्रियां है, वे मेरा क्या भला करने वाली है ? वे मत्र श्राराम के लिये है, पुरुषार्थ के लिये नहीं । [ १६ ]
३६ ]
मुनि ने कहा है कि कोई संयमी कामवासना से पीडित हो तो उसे रूखा-सूखा श्राहार करना और कम खाना चाहिये; सारे दिन ध्यान में खडे रहना चाहिये; खूब पांच-पांच परिभ्रमण करना चाहिये और अन्त मे थाहार का त्याग करना चाहिये पर स्त्रियों की तरफ मनोवृत्तिको नहीं जाने देना चाहिये । कारण यह कि भोग में पहिले दण्डित होना पड़ता है और पीछे दुःख भोगना पड़ता है या पहिले दुःख भोगना पड़ता है और पीछे दण्डित होना पडता है । इस प्रकार भोग मात्र क्लेश और मोह के कारण है । ऐसा समझ कर संयमी भोगो के प्रति न झुके, ऐसा मैं कहता हूँ । [ ५६ ]
भोगो का त्यागी पुरुष काम कथा न करे, स्त्रियों की और न देखे, उनके साथ एकान्त में न रहे, उन पर ममन्व न रखे, उनको कर्पित करने के लिये अपनी सज-धज न करे, वाणि को संयम में रखे, आत्मा को अंकुश में रखे और हमेशा पाप का त्याग करे । इस प्रकार की साधुता की उपासना करे, ऐसा मे कहता हूँ । [१६] असंयम की खाई में आत्मा को कदापि न गिरने दे । संसार में जहाँ जहाँ विलास है, वहां से इन्द्रियो को हटा कर संयमी
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लोकसार
[ ३७
मनुष्य जितेन्द्रि हो कर विचरे । जो अपने कार्य सफल करना चाहता है, उस वीर मनुष्य को ज्ञानी की आज्ञा के अनुसार पराक्रम करना चाहिये । [ १०३, १६८ ]
गुरु परम्परा से ज्ञानी के उपदेश को जाने अथवा जाति स्मरण ज्ञान से या दूसरे के पास से सुनकर जाने । गुरुकी श्राज्ञाका कदापि उल्लंघन न करे और उसे वरावर समझ कर सत्य को ही पहिचाने । [ १६७,१६८ ]
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जिसको तू मारता है, वह तू ही है, जिसको तू वश में करना चाहता है, वह भी तू ही है; जिसको तू परिताप देना चाहता है, वह भी तू ही है; जिसको तू दबाना चाहता है, वह भी तू ही है; जिसको तू मार डालना चाहता है, वह भी तू ही है। ऐसा जान कर वह सरल और प्रतिबुद्ध मनुष्य किसी का हनन नहीं करता और न कगता ही है । वह मनुष्य ओजस्वी होता है, जिसकी कोई प्रतिष्ठा नहीं है ऐसे प्रतिष्ट श्रात्मा को वह जानता है । [ ६६४ १६५, १७० ] ऊपर, नीचे और चारो तरफ कर्म के प्रवाह वहते रहते हैं । इन प्रवाहो से आसक्ति पैदा होती हैं, वही संसार में भटकाने का कारण है । ऐसा समझ कर चेदवित् (ज्ञानवान् ) इनसे मुक्त हो । इन प्रवाहों को त्याग कर और इनसे बहार निकल कर वह पुरप कम हो जाता है । वह सब कुछ बरावर समझता और जानता है । जन्म और मृत्यु का स्वरूप समझ कर वह किसी प्रकार की इच्छा नहीं करता । वह जन्म और मृत्यु के मार्ग को पार कर चुका होता है । जिसका मन बहार कहीं भी नहीं भटकता, ऐसा वह समर्थ मनुष्य किसी से भी पराभव पाये बिना निरावलम्बन ( भोगो के श्रालम्बन से रहितता - श्रात्मरति ) में रह सकता है । [ १६६, १६७ )
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याचाराग सूत्र
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वाणी से वह अतीत है, तर्क वहां तक नहीं पहुंच पाता और बुद्धि भी प्रवेश नहीं कर सकती। जो आत्मा है, वही विज्ञाता है
और जो विज्ञाता है, वही अात्मा है। इस कारण ही वह श्रात्मबादी कहा जाता है। समभाव उसका स्वभाव है। [१७०, १६५]
वह लम्बा नहीं है, छोटा नहीं है. गोल नहीं है, टेढा नहीं है, चौकोना नहीं है और मंडलाकार भी नहीं है। वह काला नहीं है, हरा नहीं है, लाल नहीं है, पीला नहीं है और सफेद भी नहीं है। वह न तो सुगंधी है और न दुगंधी ही। वह तीखा नहीं है, कडवा नहीं है, तूरा नहीं है खट्टा नहीं है और मीठा भी नहीं है। वह कठोर नहीं है, कोमल नहीं है, भारी नहीं है, हलका नहीं है, वह ठंडा नहीं है, गरम नहीं है, चिकना नहीं है और रूखा भी नहीं है। वह शरीररूप नहीं है । वह उगता नहीं है, वह संगी नहीं है; वह स्त्री नहीं है, पुरुष नहीं है और नपुंसक भी नहीं है। वह ज्ञाता है, विज्ञाता है। उसको कोई उपमा नहीं है । वह अरूपी सत्ता है, शब्दातीत होने के कारण उसके लिये कोई शब्द नहीं है । वह शब्द नहीं है, रूप नहीं है, गन्ध नहीं है, रस नहीं है, स्पर्श नहीं हैइनसे से कोई नहीं है, ऐसा मैं कहता हूँ। [१७१]
संशयात्मा मनुष्य समाधि को प्राप्त नहीं कर सकता । [३६१]
कितने ही मनुष्य संसार में रहकर जिन की आज्ञा के अनुसार चलते है, क्तिने ही त्यागी होकर जिन की आज्ञा के अनुसार चलते है परन्तु जिन की आज्ञा के अनुमार न चलने वाले लोगो के प्रति ऐसे दोनों प्रकार के मनुग्यो को ऐमा मान कर कि, "जिन भगवान्
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लोकसार
[ ३
ने ही सत्य और निशंक वस्तु (सिद्धान्त) बतलाई है,' सहिणु नहीं होना चाहिये । कारण यह कि जिनप्रवचन को सत्य मानने वाले, श्रद्धावान् समझे हुए और बराबर प्रवज्या को पालने वाले मुमुक्षुत्रों को कोई बार श्रात्मप्राप्ति हो जाती है, तो कोई बार जिन प्रवचन को सत्य मानने वाले को आत्मप्राप्ति नहीं होती । उसी प्रकार कितने ही ऐसे भी होते है जिनको जिन प्रवचन सत्य नहीं जान पडने पर भी ग्रात्मप्राप्ति होती है, तो कितने ही ऐसे भी होते हैं जिनको जिन प्रवचन सत्य नहीं जान पडता और आत्मप्राप्ति भी नहीं होती । [ १६१, १६३ ] इस प्रकार श्रात्मप्राप्ति होने की विचित्रता समझ वर समझदार मनुष्य अज्ञानी को कहे कि, भाई' तू ही तेरी ग्रात्मा के स्वरूप का विचार कर, ऐसा करने से सब सम्बन्धो का नाश हो जायेगा | खास बात तो यह है कि मनुष्य प्रयत्नशील है या नहीं ? " कारण यह कि कितने ही जिनाना के विराधक होने पर भी प्रयत्नशील होते है और कितने ही जिनाज्ञा के ग्राराधक होने पर भी प्रयत्नशील नहीं होते हैं । [ १६३, १०६ ]
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छठा अध्ययन
-(9)
कर्मनाश
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( 3 )
प्रकार
जिस प्रकार पत्तो से ढके हुए तालाब में रहने वाला कड्या सिर उठा कर देखने पर भी कुछ नहीं देख सकता और जिन प्रकार दुख उठाने पर भी वृक्ष अपना स्थान नहीं छोड सकते, उसी रूप याद में श्रामस्त जीव अनेक कुलो मे उत्पन्न होकर तृष्णा के कारण तडफडते रहते है पर मोद को प्राप्त नहीं कर सकते। उन्हें कंठमाल, कोड, क्षय, श्रपम्भार, नेत्र रोग, जटता, इंटापन संघ निक्ल याना, उदररोग, सूत्र रोग, सूजन, भस्मक, कंप, पीठ सर्पिणी, हाथीपगा और मधुमेह इन सोलह में से कोई न कोई रोग होता ही है | दूसरे नेक प्रकार के रोग और दुख भी वे भोगते है ।
उन्हें जन्म-मरण तो अवश्य ही प्राप्त होता है । यदि ये देव भी हो तो भी उनको जन्म-मरण उपपात औौर च्यवन के रूप में होता ही है । प्रत्येक को अपने कर्मों के फल अवश्य ही भोगने पढ़ते है । उन कर्मों के कारण उनको अन्धापन मिलता है या उन्हें अन्धकार में रहना पडता है । इस प्रकार उनको बारम्बार छोटे-बड़े दुख भोगने ही पढ़ते है ।
और ये जीव एक दूसरे को भी तो सताते रहते है । इस
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लोक के इस महाभय को देखो । वे सब जीव अति दुखी होते है |
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कर्मनाश
कामो में श्रासक्त ये जीव अपने क्षणभंगुर तथा विना बल के शरीर द्वारा बारवार वध को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार तड़फने पर भी ये जीव बारबार उन्हीं कर्मों को करते रहते हैं । विविध दुःखों और अनेक रोगों से पीड़ित ये मनुष्य प्रत्यन्त परिताप इसलिये, हे मुनि, रोगो के कारण रूप विषयो की कामना को तू त्याग दे तू उनको महा भय रूप समझ और उनके कारण से अन्य जीवों की हिंसा मत कर । [ १७२ - १७८ ]
सहन करते है ।
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(२)
तेरी इच्छा सुनने की हो तो मैं तुझे कर्मनाश का मार्ग कह सुनाऊँ । संसार में विविध कुलों में जन्म लेकर और वहां सुख मे पल कर जागृत हो जाने पर कितने ही मनुष्यों संसार का त्याग करके मुनि बने हैं । उस समय संयम के लिये सुनियो को देख कर उनके स्वछन्दी और ने दुखी होकर रो रो कर उनसे उन्हें न की । परन्तु उन सुनियो को फिर वे क्यो उनमें श्रासक्ति रखने सम्बन्धियो को छोड दिया है, वही पार कर सकता है। ऐसे ज्ञान की कहता हूँ । [ १७६, १८७ ]
पराक्रम करते हुए उन विषयासक्त सगे सम्बन्धियो छोड कर जाने की विनति उनसे अपनी शरण नहीं जान पडती, लगे ? जिसने अपने प्रेमी और साधारण मुनि संसार - प्रवाह को सदा उपासना करो, ऐसा मैं
संसार को काम भोग से पीड़ित जानकर और अपने पूर्व सम्बन्थो का त्याग करके उपशमयुक्त और ब्रह्मचर्य मे स्थित त्यागी और गृहस्थ को ज्ञानी के पास से धर्म को यथार्थ जानकर उसी के अनुसार श्राचरण करना चाहिये । जीवो की सब योनियों को बराबर समझने वाले, उद्यमी, हिंसा के त्यागी और समाधियुक्त ऐसे ज्ञानी
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४०]
प्राचागंग सूत्र
अन्य मनुष्यो को मार्ग बतलाते हैं। और कितने ही वीर उनकी आना के अनुसार पराक्रम करते ही हैं तो कितने की श्रात्मा के ज्ञान को न जानने वाले संसार में भटकते रहते है। [ १८१, १७.]
धर्म स्वीकार करके सावधान रहे और किसी में ग्रामनि न रसे । महामुनि यह सोचकर कि यह सत्र मोहमय ही है, संयम से ही लीन रहे । लब प्रकार से अपने सगे-सम्बन्धियों को त्याग कर मेरा कोई नहीं है, मैं किसी का नहीं हूं ऐसा लोचकर विरन मुनि को सयम में ही यत्न करते हुए विचरना चाहिये । इस प्रकार का जिन की प्राजा के अनुसार आचरण करना ही उत्कृष्टवाद कहलाना है । उत्तम धर्म के स्वरूप को समझ कर दृष्टिमान पुत्प परिनिर्वाण को प्राप्त करता है। जो फिर संसार में नहीं आते. वे ही सच्चे 'अचेलक' (नग्न) हैं। [१८३-१८४,१६५]
शुद्ध प्राचारवाला और शुद्ध धर्मवाला मुनि ही कर्मों का नाश कर सकता है। वरावर समझ कर संसार के प्रवाह से विल्ड चल कर संयम धर्म का प्राचरण करने वाला मुनि, तीण, मुक्त और विरत कहलाता है। इस प्रकार बहुत काल तक संयम में रहते हुए विचरने वाले भिक्षु को अरति क्या कर सकती है ? [ १८५-१८७ ]
ऐले संयमी को अन्तकाल तक युद्ध में आगे रहने वाले वीर की उपमा दी जाती है। ऐसा ही मुनि पारगामी हो सकता है। क्मिी भी क्ष्ट से न डर कर और पूर्ण स्थिर और दृढ रहने वाला बह संयमी शरीर के अन्त समय तक काल की राह देखता रहे पर दुखो से घबरा कर पीछे न हटे। बहुत समय तक संयम धर्म का पालन करते हुए विचरने वाले इन्द्रिय निग्रही पूर्वकाल के महापुस्पोने जो सहन किया है, उस तरफ लक्ष्य रखो। [१६६, १८५]
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कर्मनाश mammmmmmm...
mommommmmmmmmmmm ऐसे आ पडने वाले दुख (परिपह) दो प्रकार के होते हैअनुकूल और प्रतिकृल । ऐसे समय पैदा होनेवाले संशयो, को त्याग कर संयमी शान्तदृष्टि रहे । सुगन्ध हो या दुर्गन्ध हो अथवा भयंकर प्राणी कष्ट दे रहे हो, तो भी वीर को इन दुःखो को सहन करना चाहिये, ऐसा मैं कहता हूँ । मुनि को कोई गाली दे, मारे, उसके बाल खींचे या निंदा करे तो भी उसको ऐसे अनुकूल या प्रतिकूल प्रसंगों को समझ कर सहन करना चाहिये । [१८३-१८४]
घरो में, गांवो में, नगरों मे, जनपदो मे या इन सब के बीच में विचरते हुए, संयमी को हिंसक मनुष्यो की तरफ से अथवा अपने आप ही अनेक प्रकार के दु.ख आ पड़ते हैं, उन्हें वीर को सम भाव से सहन करना चाहिये । [१६४]
जो भिनु वस्त्रहीन है, उसको ' मेरा वस्त्र पुराना हो गया है, मुझे दूसरा वस्त्र या सूई-डोरा मांगना पड़ेगा, और उसको ठीक करना होगा' ऐसी कोई चिन्ता नहीं होती । संयम में पराक्रम करते हुए उस भितु को वस्त्रहीन रहने के कारण घास चुभता है, ठंड लगती है, गरमी लगती है, डास-मच्छर काटते हैं-इस प्रकार अनेक दुख सहन करता हुआ
और उपकरणो के भार से रहित वह अवस्य मुनि तप की वृद्धि करता है। भगवान् ने इसको जिस प्रकार बतलाया है, उसी प्रकार समझना चाहिये । [१५]
अकेला फिरता हुया वह मुनि छोटे कुलो में जाकर निर्दोष भिक्षा प्राप्त करता हुआ विचरे । वस्त्रहीन रहने वाला मुनि अधपेट भोजन करे । संयमी और ज्ञानी पुरुषो की भुजाएँ पतली होती हैं, उनके शरीर में मास और लोही कम होते हैं। [१८३-१८४, १८६]
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ANNA
१४ ।
'श्राचारांग सूत्र
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कर्मों के नाश का इच्छुक संयमी मुनि उनके स्वरूपको समझ कर संयम से क्रोध श्रादि कपायो का नाश करता है। जिन प्रवृत्तियों से हिंसक लोगो को जरा भी घृणा नहीं होनी, उन प्रवृत्तियों के स्वरूप को वह जानता है। वहीं क्रोध, मान, माया और लोभ से मुक्त हो सकता है और ऐसे को ही क्रोध आदि को नष्ट करने वाला कहा गया है। [१८४, १८५]
प्रयत्नशील, स्थितात्मा, अरागी, अचल, एक स्थान पर नहीं रहने वाला और स्थिरचित्त वह मुनि शांति से विचरा करता है। भोगों की श्राकांता नही रखने वाला और जीवों की हिंसा न करने चाला वह दयालु भिक्षु बुद्धिमान् कहा जाता है। संयम में उत्तरोत्तर वृद्धि करनेवाला वह प्रयत्नशील भिन्नु जीवो के लिये' असंदीन' (पानी मे कभी न डूबने वाली) नौका के समान है। आर्य पुरुषो का उपदेश दिया हुया धर्म भी ऐसा ही है। [ १६५, १८७ ]
तेजस्वी, शान्तदृष्टि और वेदवित् (ज्ञानवान) संयमी संसार पर कृपा करके और उसका स्वरूप समझकर धर्म का कथन और विवेचन करे । सत्य के लिये प्रयत्नशील हो अथवा न हो पर जिनकी उसको सुनने की इच्छा हो ऐसे सव को सयमी धर्म का उपदेश दे । जीव मात्र के स्वरूप का विचार कर वह वैराग्य, उपशम, निर्वाण शोच, ऋजुता, निरभिमान, अपरिग्रह और अहिंसा रूपी धर्म का उपदेश दे। [१६४]
___ इस प्रकार धर्म का उपदेश देने वाला भिक्षु स्वयं कष्ट में नहीं गिरता और न दूसरो को गिराता है । वह किसी जीव को पीड़ा नहीं देता। ऐमा उपदेशक महामुनि दुःख में डूबे हुए सब जीवो को 'अमंदीन' नाव के समान शरणरूप होता है ।
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जैसे पक्षी अपने बच्चो को उछेरते है, वैसे ही वह भिक्षु धर्म में न लगे हुए मनुष्यो को रात-दिन शास्त्र का उपदेश दे कर धीरे धीरे तयार करता है, ऐसा मैं कहता है। [१६१, १८७]
कितने ही निर्बल मन के मनुष्य धर्म को स्वीकार करके भी उसको पाल नहीं सकते। अलह्य कष्टो को सहन न कर सकने के कारण वे साधुता को छोड कर कामो की तरफ ममता से फिर पीछे चले जाते हैं। संसार में फिर गिरने वाले उन मनुष्यो के भोग विघ्नों से परिपूर्ण होने के कारण अधूरे ही रहते हैं। वे तत्काल या कुछ समय के बाद ही मृत्यु को प्राप्त होते हैं और फिर बहुत काल तक संमार में भटकते रहते हैं। [१८२]
कितने ही कुशील मनुष्य ज्ञानियो के पास से विद्या प्राप्त कर के उपशम को त्याग कर उद्धत हो जाते हैं। कितने ही मनुष्य ब्रह्मचर्य से रहते हुए भी भगवान की प्राज्ञा के अनुसार नहीं चलते। और कितने ही इस अाशा से कि अानन्द से जीवन वीतेगा, ज्ञानियों के शिग्य बन जाते है, तो कितने ही संसार का त्याग करने के बाद ऊब जाने के कारण, कामो में आसक्ति रखते हैं। वे संयम का पालन करने के बदले गुरु का सामना करते हैं [१८]
ऐसे मंद मनुष्य दूसरे शीलवान, उपशांत और विवेकी भिन्तुनो को, 'तुम शीलवान् नहीं हो,' ऐमा कहते हैं। यह मंद मनुष्यों की दूसरी मूर्खता है। [१६]
कितने ही मनुष्य संयम से पतित होते हैं, पर वे दूसरो के सामने शुद्ध प्राचार की बातें बनाते हैं, और कितने ही श्राचार्य को
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याचारांग सूत्र
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वन्दना-नमस्कार करते रहते भी ज्ञानभ्रष्ट और दर्शनभ्रष्ट होने के कारण जीवन को नष्ट कर डालते हैं । संयम स्वीकार कर लेने पर बाधाएँ आ जाने के कारण सुखार्थी हो कर असंयमी बन जाने वाले इन्द्रियो के दास कायर मनुष्य अपनी प्रतिज्ञायो को तोड देते हैं। ऐसो की प्रशंसा करना पाप है । ऐसे श्रमण विभ्रान्त हैं, विभ्रान्त हैं । [१६०-१६१,१६३]
इनका निष्क्रमण दुनिष्क्रमण है । निंदा के पात्र ऐसे मनुप्य बारबार जन्म-मरण को प्राप्त होते रहते है। ये अपने को विद्वान् मानकर, 'मैं ही बडा हूँ।' ऐसी प्रशंसा करते रहने हैं। ये दुसरे तटस्थ संयमियों के सामने उद्धत होते है और उनको चाहे जो कहते रहते हैं। [१९६]
___ वालकों के समान मूर्ख ये अधर्मी मनुष्य हिंसार्थी होकर कहने लगते है कि, 'जीवो की हिंसा करो; ' इस प्रकार ये भगवान के बताये हुए दुष्कर धर्म की उपेक्षा करते है। इन को ही प्राज्ञा के विराधक, काम भोगो मे डूबे हुए और वितंडी कहा गया है। [ १६२ ]
संयम के लिये प्रयत्नशील मनुष्यो के साथ रहते हुए भी ये अविनयी होते हैं। ये विरक्त और जितेन्द्रिय मनुप्यो के साथ रहते हुए भी अविरक्त और श्रदान्त होते हैं। [ १६३]
ऐसी विचित्र स्थिति जान कर बुद्धिमान को पहिले ही धर्म को बराबर समझ लेना चाहिये और फिर अपने लक्ष्य में परायण बन कर शास्त्रानुसार पराक्रम करना चाहिये, ऐसा मैं कहता है। [१६१, १६३]
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सातवाँ अध्ययन
-(०)महापरिज्ञ
३१EE [ यह अध्ययन लुप्त है ऐसा प्राचीन प्रवाद है । इस अध्ययन के विषय के बारे में टीकाकार शीलांस्टेवने लिखा है कि 'संयम अादि गुणो से युक्त मुमुक्षु को कदाचित् मोह के कारण परिपह (संकट) और उपसर्ग ( विघ्न ) आ पड़े तो उसको अच्छी तरहसे सहन करना चाहिये।' ऐसा सातवा अध्ययन का विषय है]
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आठवाँ अध्ययन -(0)
विमोह
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(1)
प्रार्य पुरुषो द्वारा समभाव से उपदेश दिया हुआ धर्म सुनकर और समझ कर, बोध को प्राप्त होने पर अनेक बुद्धिमान योग्य अवस्था में ही संयम धर्म को स्वीकार करते है । किसी भी प्रकार की आकांक्षा से रहित वे संयमी किसी की हिसा नहीं करते, किसी प्रकार का परिग्रह नहीं रखते और न कोई पाप ही करते हैं । वे सच्चे ग्रंथ है । [२०७ ]
बुद्धिमान भिक्षु ज्ञानियों के पास से जीवो के जन्म और मरण का ज्ञान प्राप्त करके संयम में तत्पर बने । शरीर श्राहार से बढता और दुखो से नष्ट हो जाता है । वृद्धावस्था में शक्तियां कमजोर हो जाने पर कितने ही मनुष्य संयम धर्म का पालन करने में असमर्थ हो जाते हैं । इस लिये, बुद्धिमान भिक्षु समय रहते ही जाग्रत हो कर, दुख पड़ने पर भी प्रयत्नशील और आकांक्षाहीन बन कर संयमोन्मुख बने और दया धर्मका पालन करे । जो भिक्षु कर्मों का नाश करने वाले शस्त्ररूप संयम को बराबर समझता है और पालता है, वही कालज्ञ्, बलज्ञ, मांत्रज्ञ, क्षणज्ञ, विनयज्ञ और समयज्ञ है 1
[ २०८-२०६ ]
कितने ही लोगो को आचार का कुछ ज्ञान नहीं होता । हिंसा से निवृत्त न होने वाले उनको जीवो को हनने - हनाने मे अथवा
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बिमोह ----
- --- ---------- - चोरी आदि करने, कराने में कुछ बुरा नहीं जान पडता । कुछ कहते हैं, ‘लोक है। कुछ कहते, 'लोक नहीं है। कोई लोक को ध्रुव कहते हैं, कोई अध्रुव कहते है । कोई उसको सादि (आदि वाला) कहते हैं तो कोई उसको अनादि कहते है। कोई उसको अन्तवाला कहते है तो कोई उमको अनन्त कहते हैं। इसी प्रकार वे सुकृत-दुकृत, पुण्य पाप, साधु-प्रसाधु सिहि-प्रसिद्धि और नरक-अनरक के विपयो में अपनी अपनी मान्यता के अनुसार वादविवाद करने है। उनसे इनता ही कहना चाहिये कि तुम्हारा कहना अहेतुक है। ग्राशुप्रन, सर्वदर्शी और सर्वज्ञ भगवान ने जिस प्रकार धर्म का उपदेश दिया है, उस प्रकार उनका (वादियो का) धर्म यथार्थ नहीं है। [१६]
अथवा, ऐसे विवाद के प्रसगो में मौन ही धारण करे, ऐसा मैं कहता हू । 'प्रत्येक धर्म में पाप को (त्याग करने को) स्वीकार किया है । इस पाप से निवृत्त होकर मैं विचरता हूं यही मेरी विशेपता है, " ऐसा समझ कर विवाद न करे। [ २००] - और, यह भी भली भाति जान ले कि खान-पान, वस्त्र, पात्र, कंबल या रजोहरण मिले या न मिले तो भी मार्ग छोड कर कुमार्ग पर चलने वाले विधर्मी लोग कुछ दे, (कुछ लेने के लिये) निमत्रण दे या सेवा करे तो उसे स्वीकार न करे । [१९८]
मतिमान जिन ( मूल में 'माहण' शब्द है, जिसका अर्थ सच्चा ब्राह्मण या मा+हण अर्थात अहिसा का उपदेश देने वाले जिन होता है ।) के वताए हुए धर्म को समझ कर, फिर भले ही गांव में रहे या अरण्य में रहे, अथवा गांव में न रहे या अरण्य में न रहे, परन्तु महापुरपो के बताए हुए अहिसा, सत्य और अपरिग्रह, इन नीनी व्रतो के स्वरूप को बगवर समझ कर आर्य पुरुप
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याचारांग सूत्र
प्रयत्नशील बने। ऊंची नीची और तिरछी सा दिशाओ में प्रवृत्ति मात्र से प्रत्येक जीव को होने वाले दुख को जान कर बुट्टिमान सकाम प्रवृत्तिया न करे न कराराचे और न करते हुए को अनुमति दे । जो ऐसी प्रवृत्तियां करते है, उनसे संयमी दूर रहे । विविध प्रवृत्तियों के स्वरूप को राम कर संयमी किसी भी प्रकार का ग्रारम्भ न करे । जो पाप कर्म से निवृत्त है, वही सच्चा वासना रहित है । [२००-१] (२)
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५० ]
संयमी भिक्षु अपनी भिक्षा के सम्बन्ध के प्राचार का बराबर पालन करे, ऐसा कुछ पुरुरो ने कहा है । [ २०४ ]
साधारण नियम यह है कि ( गृहस्थ ) स्वधर्मी या परधर्मी साधुको खान-पान, मेवा - मुखवास, वस्त्र - पात्र, कवल - रजोहरण न दे, इनके लिये उनको निमन्त्रण न दे, और इन वस्तुओ से यादरपूर्वक उनकी सेवा भी न करे [ १६७ ]
इसी प्रकार सद्धर्मी साधु सद्धर्मी साधु को खान-पान, वस्त्र आदि न दे या इन वस्तुओ के लिये उनको निमन्त्रण देकर उनकी सेवा भी न करे हो, सद्धर्मी साबुकी सेवा करे । [२०५ -६]
स्मशान में, उजाड़ घर में, गिरिगुहा में वृक्ष नीचे, कुंभार के घर या अन्य स्थान पर साधन करते, रहते, बैठते, विश्राति लेते र विचरते हुए भिक्षु को कोई गृहस्थ ग्राकर सान-पान वस्त्र आदि के लिये निमन्त्रण दे, और इन वस्तुओ को हिसा करके, खरीद लाकर, छीन कर दूसरे की उडा लाकर या अपने घर से लाकर देना चाहे या मकान बनवा देकर वहा खा-पी कर रहने के लिये कहे तो भिक्षु कहे कि, हे आयुष्यमान् । तेरी बात मुझे स्वीकार नहीं है क्योकि मै ने इन प्रवृत्तियो को त्याग दिया है । [ २०२ ]
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विमोह
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स्मशान आदि में रहने वाले भिक्षु को जिमाने के लिये या रहने के लिये गृहस्थ हिंसा आदि करके मकान बनवा टे या खान-पान तैयार करे और इसका पता भिनु को अपनी सहजत्रुद्धि से लग जाय, क्सिी के कहने से या दूसरे से सुनने से मालुम पड जाये तो वह नुरन्त ही उस गृहस्थ को उसी प्रकार मना कर दे [२०३]
भिन्नु से पूछ कर या उमले बिना पूछे उसके लिये गृहस्थने वडा खर्च किया हो और बाद से भिक्षु उन वस्तुयो को लेने से इनकार करे और इससे गृहन्ध उसको मारे था सन्ताप दे तो भी वह वीर भितु उन दुखो को सहन ही करे अथवा वह गृहस्थ बुद्धिमान हो तो उसको तर्क से अपना याचार समझा दे। यदि ऐसा न हो सके तो मौन ही रहे । [२०४]
भिनु या भिक्षुणी आहार-पानी खाते पीते समय उसके स्वाद के लिये उसको मुंह में इधर-उधर न फेरे । ऐसा करने वाला भिक्षु उपाधि से मुक्त हो जाता है और उसका तप बढ़ता हैं। भगवान द्वारा बताये हुए इस मार्ग को समझकर उस पर समभाव से रहे । [...]
___ठंड से धूजते हुए भिनु को गृहस्थ पाकर पूले कि, तुमको कामवासना तो नहीं सताती ? तो वह कहे कि मुझे कामवासना तो नहीं सताती, पर यह ठंड सहन न होने के कारण मैं धूजता हूँ। परन्तु प्राग जला कर तापने का या दूसरों के कहने से ऐसा करने का हमारा प्राचार नहीं है । भिनु को ऐसा कहते सुन कर कोई नीमरा श्रादमी खुद ताप लगाकर उसे तपाचे तो भी भिक्षु उस ताप को न ले । [२१]
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५२]
साचारांग सूत्र
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कोई भिक्षु एक पात्र और तीन वनधारी हो या एक पात्र और दो वस्त्रधारी हो या एक पात्र और एक बावारी हो तो उसे यह न चाहिये कि वह एक वन और मांगे । हेमन्तऋतु के बीतने पर ग्रीष्म के प्रारम्भ में अपने जीर्ण बन्यो को त्याग कर ऊपर का और एक नीचे का बन्ध रखे या एक ही चम्म रो या वस्त्र ही न रख, भिक्षु को जैसे वसा लेने योग्य हो, बसे ही पहले, वह उनको न धोये और न धोये हुए या रंगे हा वस्त्र ही पहने। गाव बहार जाते समय कोई उसे लूटने की इन्छा करे तो वह अपने चम्नो को छिपाचे नहीं और न ऐसे वा ही कर पहने । [-११-२१२]
ऐसा करने वाला भिक्षु उपाधि से मुक्त हो जाना है और उसका तप बटता है । यह वस्त्र धारी का प्राचार है । भगवान द्वारा वताए हुए इस मार्ग को बरावर समझ कर वह समभाव से रहे । [२१३-२१४]
जो भिक्षु बिना वस्त्र के रहता हो, उसको ऐसा जान पडे कि मैं तृण-स्पर्श, ठंड, गरमी, डास-मच्छर के उपद्रव तथा दूसरे संक्टों को सहन कर सकता हूँ, परन्तु अपनी लज्जा ढाके बिना नहीं रह सकता तो वह एक कटिबन्ध स्वीकार कर ले । बिना वस्त्र के ठंड गरमी आदि अनेक दुःख सहने वाला वह भिक्षु उपाधि से मुक्त हो जाता है और उसका तप बढ़ता हे । [ २२३-२०४]
यदि भिक्षु कामवासना के वशीभूत हो जाय और उसको वह सहन न कर सकता हो तो वह वसुमान और समझदार भिनु स्वयं अकार्य मे प्रवृत्ति न करके आत्मघात कर ले । ऐसे संयोगो में उसके लिये ऐसा करना ही श्रेय है, यही मरण का योग्य अवसर है, यही उसके संसार को नष्ट करने वाली वस्तु है, यही उसके लिये धर्माचार
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यदि भिक्षु को ऐसा जान पडे कि मैं अकेला हूँ, नहीं है और न मैं किसी का हूँ तो वह अपनी हो समझे। ऐसा समझने वाला भिक्षु उपाधि से और उसका तप चढता है | भगवान द्वारा बताये बराबर समझ कर वह समभाव से रहे । [ २१६ ]
है, और हितकर, सुखकर, योग्य और सदा के लिये नि श्रेयसरूप
है । [ २११ ]
[ ५३
मेरा कोई
श्रात्मा को अकेला
मुक्त हो
हुए इस
जाता है मार्ग को
यदि किसी भिक्षु को ऐसा जान पडे कि मैं रोग से पीडित अशक्त हूँ और भिक्षा के लिये एक घर से दूसरे घर नहीं जा सकता, उसकी ऐसी स्थिति समझ कर कोई दूसरा उसको श्राहार पानी लाकर दे तो उसको तुरन्त ही विचार कर कहना चाहिये कि, 'हे श्रायुष्मान् तुम्हारा लाया हुया यह ग्राहार- पानी मुझे स्वीकार करने योग्य नहीं है ।' [ २१६ ]
इसी प्रकार किसी भिक्षु का ऐसा नियम हो कि मैं सेवा करूँगा, पर अपनी सेवा दूसरे से नहीं कराऊँगा, दूसरो की सेवा नहीं करूँगा पर दूसरे मेरी सेवा करेंगे तो
किसी भिक्षु का ऐसा नियम हो कि, बीमार होने पर मै दूसरे को अपनी सेवा करने के लिये नहीं क्हू पर ऐसी स्थिति में यदि समान धर्मी जो अपने आप ही मेरी सेवा करना चाहें तो स्वीकार कर लूँ, और इसी प्रकार में अच्छा हो जाऊँ तब कोई समान धर्मी बीमार हो जाये तो उसके न कहने पर मैं उसकी सेवा करूँ तो वह भिक्षु अपने नियम को वरावर समझ कर उस पर दृढ रहे । [ २१७ ]
दूसरे की
श्रथवा मैं इनकार
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नहीं करूगा, चा ने दूसरों की सेवा नही सगा और न उनगे अपनी ही काउंगा,-तो अपने नियम को बराबर समझ कर उस पर दृढ रहे। [१५]
इस प्रकार की अपनी प्रतिज्ञानी पर ड रहना सत्य न हो तब प्रतिज्ञा भंग करने के बदले अाहार न्याग कर मरण स्वीकार करने पर प्रतिज्ञा न छोटे । शान, त्यागी तथा मन और इन्द्रियों को वश में रखने वाले भिनु के लिय ऐसे • योगो में यही श्रेय है, यही उनके लिये मरण का योग्य अवसर है । (आदि मूत्र २१५ के अनुमार) [२७]
बुद्धिमान भिक्षु जिग्न प्रकार जीने की इच्छा न करे, उसी प्रकार मरने की इच्छा पी न करे। मोन के इच्छुक को तटस्थता पूर्वक अपनी प्रतिज्ञारूप समाधि की रक्षा करना चाहिये, और श्रान्तर तथा बाह्य पदार्थों की ममता त्याग कर श्रात्मा को (प्रतिज्ञा भग से) नष्ट न होने देने की इच्छा करना चाहिये। अपनी प्रतिज्ञा रूप समावि की रक्षा के लिये जो उपाय ध्यान मे ग्रावे, उमी का तुरन्त प्रयोग करे। अन्त मे अशक्य हो जाय तो वह गांव में अथवा जंगल मे जीव-जन्तु से रहित स्थान देवकर वहा घाम का विछौना बनावे । फिर आहार का त्याग करके उस बिछौने पर वह भिनु अपने शरीर को रख दे और मनुष्य प्रादि उनको जो संक्ट हैं उनको सहन । करे पर मर्यादा का उलंघन न करे। [४--] नोट-यहा ५ से २५ तक पाठवे उद्देशक की संरया है ।
इसमें सूत्र मरया नहीं है। ऊपर नीचे चलने वाले और वहां फिरने वाले जीव-जन्तु उस भिक्षु के मांस-लोही को खाचें तो वह उनको मारे नहीं और उनको
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उड़ावे तक नहीं । वे सब देह को ही पीड़ा देते है, ऐसा समझ कर मुनि एक स्थान से दूसरे स्थान पर न जावे, परन्तु क्रोध, हिसा यादि से दुख पाने वाला वह भिनु सब कुछ सहन करे । अनेक प्रकार के बन्धनो से दूर रहने वाला वह भिक्षु इस प्रकार समाधि से आयुष्य को पूर्ण करे । संयमी और ज्ञानी मनुग्यो के लिवे यही श्रेय है । [५० ११]
• ४ : अनि भिन्नु को ऐसा जान पड़े कि, मैं अब सयम-पालन के लिये इस शरीर को धारण करने में अशक्त हूँ, तब वह क्रमश. अपना आहार क्म करता रहे, कपायो से निवृत्त हो और समाधि युक्त होकर पटिये के समान स्थिर रहे; फिर यदि एकदम अशक्य हो जाय तो गांव या नगर में जा कर घास माग लावे । उसको लेकर एकान्त में जहां जीव-जन्तु, पानी, गीली मिट्टी कांड, जाले न हो ऐसे स्थान को वरावर देख-भाल कर वहाँ घास विछावे । उस पर बैठ कर 'इत्वरित मरण स्वीकार करे । फिर, अनाहार से रहते हुए जो दुख आदें, उनको सहन करे पर दमरो के पास से किसी प्रकार का उपचार न करावे। ऐसा करने पर यदि इन्द्रियाँ अझड जावें तो उनको हिलावे-दुलावे । ऐसा करते हुए भी वह अगी, अचल और समाहित कहलाता है । मन स्वस्थ रहे और शरीर को कुछ अवलम्वन मिले तो उसके लिये वह चक्रमण करे या शरीर को संकोचे या फैलावे, पर हो सके तो जड़ की तरह स्थिर रहे । थका हुग्रा भिन्तु इधर-उधर करवट बदले या अपने अगो को सिकोड़ ले । बैठते २ थकने पर अन्त में सो भी जाय । [ २२१-२२२, १२-१६ ]
इस प्रकार के अद्वितीय मरण को स्वीकार करके अपनी इन्द्रियों को वश में रखे । शरीर को सहाग देने के लिये जो पाटिया लिया
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याचाराग सूत्र
हो वह यदि दीमक आदि से भरा हुया हो तो उसको त्याग कर दूसरा जीव रहित पटिया प्राप्त करे ! जिससे पाप होता हो ऐसा कोई अवलम्बन न ले । सब दुखो को सहन करे और उससे अपनी प्रात्मा को उत्कृष्ट बनावे । सत्यवादी, प्रोजस्वी, पारगामी, क्लहहीन, वस्तु स्वरूप को समझने वाला संसार मे नहीं फैमा हुया वह मिनु क्षणभंगुर शरीर की ममता त्याग कर और अनेक संकट सहन कर के जिनशासन में विश्वास रखकर भय को पार कर जाता है । यह उसका मरण का अवपर है, यह उसके संसार को नष्ट करने वाला है वही विमोहायतन (धर्माचार) हित, सुख, जेम और सदा के लिये नि श्रेयसरूप है । [१७, १८, २२२]
उससे भी उत्कृष्ट निम्न मरण विधि है। वह घास मांग ला कर बिछावे, उस पर बैठ कर शरीर के समस्त व्यापार और गति का त्याग कर दे । दूसरी अवस्थानो से यह उत्तम अवस्था है। वह ब्राह्मण अपने स्थान को बराबर देख कर अनशन स्वीकार करे। और सब अंगो का निरोध होता हो तो भी अपने स्थान से भ्रष्ट न हो । मेरे शरीर में दुख नहीं है, ऐसा समझ कर समाधि मे स्थिर रहे और काया का सब प्रकार से त्याग करे। जीवन भर सफ्ट और आपत्तियाँ पार्वेगी ही, ऐसा समझ कर शरीर का त्याग करके पाप को अटकाने वाला प्रज्ञावान भिक्षु सब सहन करे। ज्ञणभगुर ऐसे शब्द आदि कामो में राग न करे और कीर्ति को अचल समझ कर उन से लोभ न रखे। कोई देव उसको मानुपिक भोगो की अपेक्षा शाश्वत दिव्य वस्तुग्रो से ललचावे तो ऐसी देवमाया पर श्रद्धा न रखे और उसका स्वरूप समझ कर उसका त्याग करे । मत्र अर्थों में अमर्छित और समाधि से ग्राायग्य के पार पहचाने
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वाला भिक्षु तितिक्षा को उत्तम विमोहरूप (मोह से मुक्ति-विमोह) और हितरूप समझकर समाधि मे रहे । [ २२६, १६-२५ ]
क्रमशः वर्णन की हुई इन नीनो मरण विधियो को सुनकर, उनको अपूर्व जान कर और प्रत्येक तप के बाह्य और आभ्यन्तर दोनो भेदो को ध्यान में रख कर धीर, वसुमान, प्रज्ञावान और बुद्ध पुरुप धर्म के पारगामी होते हैं। [१-२] टिप्पणी-कामवासना के लिये मूलमें 'शीतस्पर्श' शब्द है । शीतम्पर्श
शब्द से ठंड-गरमी और स्त्री के उपद्रव का अर्थ लिया जाता है । यदि कोई दुष्ट स्त्री भिक्षु को घर मे ले जाकर फंसा ले और वहां से भ्रष्ट हुए विना वाहर आना शक्य न हो तो वह चाहे जिस प्रकार से वही आत्मघात कर ले, अथवा दुर्बल शरीर का भिक्षु ठंड-गरमी या रोगो के दुखो को बहुत समय तक सहन न कर सकता हो तो भी अात्मघात कर ले । जैन शास्त्र में भक्तपरिज्ञा, इत्वरित और पादपोपगमन मरणविधिया विहित है। पर ये दृढ सकल्प वाले मनुष्यो के लिये है । सूत्र २१५ से १०-११ तक ये भक्तपरिजा मरण विधि का वर्णन है । इत्वरित मरण का वर्णन सूत्र २२१ से २२२ तक है और २२५-२२६ में पादपोपगमन (वृपके समान निश्चेष्ट होना) का वर्णन है।
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नौवां अध्ययन
--(.)भगवान महावीर का तप
[उपधान] श्री सुधर्मास्वामी कहने लगे
हे आयुग्मान् जंबु । श्री महावीर भगवान की तपश्चर्या का वर्णन जैसा मैं ने सुना है वैसा ही तुझे कहता है। उन श्रमण भगवान ने प्रयत्नशील हो कर, संसार के दुखो को समझकर प्रव्रज्या स्वीकार की और उसी दिन हेमन्त ऋतु, की सर्दी में ही बाहर निक्ल पड़े । उस कडकडाती सर्दी में वस्त्र से शरीर को न टक्ने का उनका संकल्प दृढ़ था और जीवनपयंत कठिन से कठिन कप्टो पर विजय पाने वाले भगवान के लिये यही उचित था । [१-२]
अरण्य में विचरने वाले भगवान को छोटे-बडे अनेक जंतुनोने चार महिने तक बहुत दुख दिये और इनका मांस लोही चूसा। [३]
तेरह महिने तक भगवान ने वस्त्र को क्न्धे पर ही रख छोडा । फिर दूसरे वर्ष शिशिर ऋतु के अाधी बीत जाने पर उसको छोड़ कर भगवान सम्पूर्ण 'अचेलक'-वस्त्ररहित हुए। [४, २२]
वस्त्र न होने पर भी और सस्त सर्दी में वे अपने हाथो को लम्बे रखकर ध्यान करते । सर्दी के कारण उन्होने किसी भी दिन हाथ बगलमे नहीं डाले । कभी कभी चे सर्दी के दिनो मे छाया में बैठकर ही ध्यान करते तो गर्मी के दिनो में धूप में बैठ कर ध्यान करते । [२२, १६-७ ]
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भगवान महावार का तप .... भगवान महावीर का तप
....... उस समय शिशिर ऋतु में पाला गिरने या हवा चलने के कारण अनेक लोग तो कांपते ही रहते और कितने ही साधु उस समय बिना हवा के स्थानो को ढूंढते, कितने ही कपड़े पहिनने का विचार करते और कितने ही लकड़ी जलाते ! उस समय जितेन्द्रिय
और ग्रासांता रहित वे भगवान इस सी को खुले में रह कर सहन करते क्रिमी समय सर्दी के असह्य हो जाने पर भगवान सावधानी से रात्रि को बाहर निकलकर कुछ चलते । [३६-३८]
वस्त्र रहित होने के कारण तृण के म्पर्श, ठंड-गरमी के स्पर्श और डांस-मच्छर के स्पर्श-इस प्रकार अनेक स्पर्श भगवान महावीर ने समभाव से सहन किये थे । [४०]
भगवान चलते समय आगे-पीछे पुरुष की लम्बाई जितने मार्ग पर दृष्टि रख कर, टेढ़े-मेढ़े न देखकर मार्ग की तरफ ही दृष्टि रख कर सावधानी से चलते, कोई बोलता तो वे बहुत कम बोलते
और दृष्टि स्थिर करके अन्तर्मुख ही रहते । उनको इस प्रकार नग्न देख कर और उनके स्थिर नेत्रो से भयभीत हो कर लडको का मुंड उनका पीछा करता और चिल्लाता रहता था । [५, २१ ]
उजाड़ घर, सभास्थान प्याऊ और हाट-ऐसे स्थानों में भगवान अनेक बार ठहरते, तो कभी लुहार के स्थान पर तो कभी धर्मशालाग्रो मे बगीचो में घगे में या नगर में ठहरते थे । इस प्रकार श्रमण ने तेरह वर्ष से अधिक समय विताया । इन वर्षों में रात-दिन प्रयत्नशील रह कर भगवान अप्रमत्त होकर समाधि पूर्वक ध्यान करते, पूरी नीद न लेते, नीद मालूम होने पर उठ कर प्रात्मा को जागृत करते । किसी समय वे करवट से हो जाते, पर वह निद्रा की इच्छा से नहीं । कदाचित् निद्रा या ही जाती तो चे उसको
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६.]
श्राचारांग मूत्र
प्रमाद बढाने वाली समझ कर, उठ कर दूर करने ! कभी कभी मुहूर्त तक रात में चंक्रमण करते रहते । [२४-२६ ]
उन स्थानो पर भगवान को अनेक प्रकार के भयंकर संकट पड़े। उन स्थानो पर रहने वाले जीव-जन्तु उनको कष्ट देते। नीच मनुष्य भी भगवान को बहुत दुख देते। कई बार गांव के चौकी दार हाथ मे हथियार ले कर भगवान को सताते | कभी कभी विषय वृत्ति से स्निग या पुल्प भगगन को तंग करने । रात में अकेले फिरने वाले लोग वहां भगवान को अकेला ठेख कर उनसे पूछताछ करते । भगवान के जवाब न देने पर तो वे चिढ ही जाते थे। कोई पूछता कि यह कौन है ? तो भगवान कहते, 'मैं भिक्षु हूँ। अधिक कुछ न कहने पर वे भगवान पर नाराज हो जाते पर भगवान तो ध्यान ही करते रहते। [३०-३१, ३४-३५]
जहां दूसरे अनेक लोग ठहरते थे, वहां रहने पर भगवान स्त्रियो की तरफ दृष्टि तक न करते, परन्तु अन्तर्मुख रह पर ध्यान करते थे। पुरुपो के साथ भी वे कोई सम्बन्ध न रख कर ध्यान में ही मन्न रहते थे। किसी के पूछने पर भी वे जबाव न देते थे। कोई उनको प्रणाम करता तो भी वे उनकी तरफ न देखते थे। ऐसे समय उनको मूढ मनुष्य मारते और सताते थे। वे यह सब समभाव से सहन करते थे। इसी प्रकार पारयान, नाटक, गीत, दंडयुद्ध, मुष्टियुन्द
और परस्पर कथावार्ता में लगे हुए लोगो की ओर कोई उत्सुकता रखे बिना वे शोकरहित ज्ञातपुत्र मध्यस्थ दृष्टि ही रखते थे। अमद्य दु खो को पार करके वे मुनि समभाव से पराक्रम करते थे। इन संकटो के समय वे किसी की शरण नहीं हूंढते थे। [६-१०]
भगवान दुर्गस प्रदेश लाड में, वज्रभूमि और शुभ्रभूमि में भी विचरे थे। वहां उनको एकदम बुरी से बुरी शय्या और प्रासन
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काम में लाने पड़े थे। वहा के लोग भी उनको बहुत मारते, खाने को रूखा भोजन देते और कुत्ते काटते थे। कुछ लोग उन कुत्तो को रोक्ते थे तो कुछ लोग कुत्तो को उन पर छुछाकर कटवाते थे। कुत्ते काट न खावें इस लिये दूसरे श्रमण हाथ मे लकड़ी लेकर फिरते थे। कितनी ही बार कुत्ते काटते और भगवान की मांस पेशियो को खींच डालते थे । इतने पर भी ऐसे दुर्गम लाढ प्रदेश में हिंसा का त्याग करके और शरीर की ममता छोड़ कर वे अनगार भगवान सब संकटो को समभाव से सहन करते और उन्होंने संग्राम में आगे रहने वाले विजयी हाथी के समान इन संकटो पर जय प्राप्त की । अनेक बार लाद प्रदेश में बहुत दूर चले जाने पर भी गांव ही न आता, कई बार गांव के पास आते ही लोग भगवान को बाहर निकाल देते और मार कर दूर कर देते थे, कई बार वे भगवान के शरीर पर बैठ कर उनका माम काट लेते थे, कई बार उन पर धूल फेंकी जाती थी, कई बार उनको ऊपर से नीचे ढाल दिया जाता था, तो कभी उनको श्रासन पर से धकेल दिया जाता था। [४१-५३]
दीक्षा लेने के पहिले भी भगवान् ने दो वर्ष से अधिक समय से ठंडा पानी पीना छोड दिया था। पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, कार्ड, वनम्पति और ब्रल जीव मचित्त हैं ऐसा जान कर भगवान उनको बचा कर विहार करते थे । स्थावर जीव वसयोनि मे आते है और उस जीव स्थावर योनि में जाते हैं, अथवा सब योनियो के बाल जीव अपने अपने कर्मों के अनुसार उन उन योनियो मे भटकते रहते है, ऐसा समझ कर भगवान ने यह निश्चित किया कि उपाधि चाले वाल जीव सदा बन्धन को प्राप्त होते हैं। फिर भगवान ने सव प्रकार से कर्भका स्वरूप जान कर पाप का त्याग किया[११- १५]
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श्राचारांग सूत्र
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कर्म के दो प्रकार [१ ऐयपथिक-चलने-फिरने आदि आवश्यक क्रियायो से होने वाली हिंसा के कारण बंधने वाला कर्म जो बंध होते ही नाशको प्राप्त हो जाता है। २ सांपगयिक-कपाय के कारण बंधने वाला कर्म जिसका फल अवश्य ही भोगना पडता है। ] जान कर असाधारण ज्ञानवाले मेधावी भगवान ने कर्मों का नाश करने के लिये अनुपम क्रिया का उपदेश दिया है। प्रवृत्ति और तजन्य कर्मबन्धन को समझ कर भगवान स्वयं निपि अहिंसा से प्रवृत्त होते थे। भगवान ने स्त्रियो को सर्व पाप का कारण समझ कर उनका त्याग क्यिा था। वस्तु का स्वरूप बरावर समझ कर महावीर कभी पाप नहीं करते थे, दूसरों से न कराते थे, करनेवाले को अनुमति नहीं देते थे। [१६-१७, ६१]
__भगवान ने अपने लिये तैयार क्यिा हुआ भोजन कभी नहीं लिया। इसका कारण यह कि वे इसमें अपने लिये कर्मवन्ध समझते थे। पापमात्र का त्याग करने वाले भगवान निःप आहार-पानी प्राप्त करके उसका ही उपयोग करते थे। वे कभी भी दूसरे के पात्र में भोजन नहीं करते थे और न दूसरो के वस्त्र ही काम में लाते थे। मान-अपमान को त्याग कर, किसी की शरण न चाहने वाले भगवान भिक्षा के लिये फिरते थे। [१८-१६]
भगवान श्राहार-पानी के परिमाण को बराबर समझते थे, इस , कारण वे कभी रसो में ललचाते न थे और न उसकी इच्छा ही
करते थे। चावल, वैर का चूरा और खिचड़ी को रूखा खाकर ही अपना निर्वाह करते थे। भगवान ने आठ महिने तक तो इन तीनो चीज़ों पर निर्वाह किया। भगवान महिना, प्राधा महिना पानी तक न पीते थे। इस प्रकार ये दो महिने या छ महिने तक विहार ही
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भगवान महावीर का तप
करते रहते थे। सदा आकांक्षा रहित रहने वाले भगवान किसी समय ठंडा अन्न खाते, तो किसी समय छै, पाठ, दस या बारह भक्त के बाद भोजन करते थे। [५८-६० ]
गांव या नगर में जाकर वे दूसरो के लिये तैयार किया हुआ आहार सावधानी से खोजते थे । श्राहार लेने जाते समय मार्ग में भूखे प्यासे कौए आदि पक्षियो को वैठा देखकर, और ब्राह्मण, श्रमण, भिखारी अतिथि, चाडाल, कुरे, विल्ली आदि को घरके आगे देखकर, उनको आहार मिलने में बाधा न हो या उनको अग्रीति न हो, इस प्रकार भगवान वहाँ से धीरे धीरे चले जाते और दूसरे स्थान पर अहिसा पूर्वक भिक्षा को खोजते थे। कई बार भिगोया हुआ, सूखा या ठंडा आहार लेते थे, बहुत दिनो की खिचडी, बाकले, और पुलाग (निस्सार खाद्य) भी लेते थे। ऐसा भी न मिल पाता तो भगवान शांतभाव से रहते थे। [६२-६७]
___ भगवान नीरोग होने पर भी भरपेट भोजन न करते थे और न औपधि ही लेते थे। शरीर का स्वरूप समझ कर भगवान उसकी शुद्धि के लिये संशोधन (जुलाब), वमन, विलेपन, स्नान और दंत प्रक्षालन नहीं करते थे। इसी प्रकार शरीर के आराम के लिये वे अपने हाथ-पैर नहीं दववाते थे। [५१-५५ ] ___कामसुखो से इस प्रकार विरत होकर वे अबहुवादी ब्राह्मण विचरते थे। उन्होने कपायो की ज्वाला शांत कर दी थी और उनका दर्शन विशद था। अपनी साधना में वे इतने निमन थे कि उन्होने कभी अपनी आंख तक न ममली और न शरीर को ही खुजाया । रति और अरति पर विजय प्राप्त करके उन्होने इस लोक के और
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याचाराग सूत्र
देव-यन श्रादि के अनेक भयंकर संकटो, अनेक प्रकार के शब्द और गन्ध को समभाव से सहन किया था। [१६, ११, २०, ३२-३३ ]
भगवान अनेक प्रकार के ध्यान अचंचल रह कर अनेक प्रकार के अासन से करते थे और समाधिदक्ष तथा प्राकांक्षा रहित हो कर भगवान ऊर्च, अधो और तियंग लोक का विचार करते थे। कपाय, लालच, शब्द, रूप और मुर्छा से रहित होकर साधकवृत्ति में पराक्रम करते हुए भगवान जरा भी प्रमाद न करते थे। अपने आप संसार का स्वरूप समझ कर आत्मशुद्धि में सावधान रहते और इनी प्रकार जीवन भर शांत रहे। [६७-६८ ]
मुमुनु इसी प्रकार आचरण करते है, ऐसा मैं कहता हूं। [७०]
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पहिला अध्ययन
भिक्षा
श्री सुधर्मास्वामीने कहा
नब विपयो में रागद्वेप ले रहित हो कर अपने कल्याण मे तत्पर रह कर सदा संयम से रहने में ही भिक्षु और भिक्षुणी के श्राचार की सम्पूर्णता है। भिक्षा में कर्मबन्धन का कारण विशेप सम्भव है इस लिये भगवान् महावीर ने इस सम्बन्ध में बड़ी गम्भीर शिक्षा दी है। उसको मैं कह सुनाता हूँ, तुम सब सुनो । [6]
भिक्षा के लिये कहाँ जावे ? भिक्षु, ( सर्वत्र इस शब्द में भिक्षु और भिक्षुणी दोनो को लिया गया है) उग्रकुल (आरक्षक क्षत्रिय), भोगकुल ( पूज्य-श्रेष्ठ कुल ), राजन्य कुल (मित्रराजायो के कुल), क्षत्रिय कुल, इक्ष्वाकु कुल (श्री श्रादीश्वर का कुल), हरिवंशकुल (श्री नेमिनाथ का कुल), और ग्वाल, वैश्य, नाइ (मूल में 'गंडाग') सुतार और बुनकर आदि के अतिरस्कृत और अनिंदित कुलो में भिक्षा मांगने जावे। [१]
भिक्षा मांगने कहाँ न जावें ? परन्तु चक्रवर्ती अादि क्षत्रिय, राजा, ठाकुर, राजकर्मचारी और राजवंशियो के यहां से भिक्षा न ले, फिर भले ही वे शहर में रहते
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६८]
आचाराग सूत्र
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हो, बाहर पडाव डाले हो, यात्रा मे हो, या उनके यहां से निमन्त्रण मिला हो या न मिला हो । [२१] टिप्पणी-ये सब अतिरस्कृत कुल है पर वही दूसरे दोष होने के कारण
इनका निषेध किया गया है । __ और, जिन घरो पर सता अन्नदान दिया जाता हो, प्रारम्भ मे देव आदि के निमित्त अग्रपिड अलग रख दिया जाता हो या भोजन का श्राधा या चौथा भाग दान में दिया जाता हो और इनके कारण वहां अनेक याचक सदा पाते हो, वहा भिक्षा के लिये कभी न जावे। [] _और, भिक्षा के लिये जाते हुए मार्ग मे गढ, टेकरी, गड़े, खाई, कोट, दरवाजे या अर्गला पड़ती हो तो उस मार्ग पर वह भिक्षा के लिये न जावे। यह मार्ग सीधा और छोटा हो तो भी इस पर न जाने क्योकि भगवान ने इस मार्ग से जाने में अनेक दोप बताये है। दूसरा रास्ता हो तो भले ही उधर जावे । जिस मार्ग से जाने से गिर पड़े और लग जावे या वहां पड़े हुए मल-मूत्र आदि शरीर से लग जावे, उधर न जावे। यदि कभी ऐसा हो जाय तो शरीर को सजीव, गीली मिट्टी, पत्थर, ढेले या लकड़ी आदि से न पोछे परन्तु किसी के पास से निर्जीव घास, पत्ते, लकड़ी या रेती मांग लावे और एकान्त में निर्जीव स्थान देख कर, उसे साफ़ कर वहां साधवानी से शरीर को पोछ ले। [२६]
इसी प्रकार जिस मार्ग में मरकने भयंकर पशु खड़े हो अथवा गड़े, कीले, कांटे, दरार या कीचड हो अथवा जहां मुनें, कौए आदि पक्षी और सुअर आदि जानवर वलि खाने को इकट्ठे हो उस मार्ग
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भिज्ञा
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से होकर भी भिक्षा के लिये न जाये । पर दूसरा मार्ग लम्बा हो तो भी उमी से जावे ! [२७, ३१]
भिक्षा मांगने किस प्रकार जावे ? भिक्षु भिक्षा मांगने जाते समय अपने वस्त्र, पात्र, रजोहरण श्रादि सर्व साधन (धर्मोपकरण) साथ में ले जाये। यही नियम स्वा-याय करने जाते समय, मलमूत्र करने जाते समय या दूसरे गाव जाते समय के लिये भी है । परन्तु जब दूर तक पानी बरसता जान पडे या दूर तक कुहरा गिरता दिखे या जोरकी आंधी के कारण धूल उडनी हो या अनेक जीव-जन्तु इधर-उधर टठते दिखें तो सब साधन माथ में लेकर भिक्षा मांगने या स्वाध्याय करने को न निकले। [१६-२०]
भिक्षा मांगने किस प्रकार न जाये ? - भिक्षु भिता मांगने किसी अन्य सम्प्रदाय के मनुष्य के साथ, गृहस्थ के साथ या अपने ही धर्म के कुशील माबु के साथ न जावे आचे और उनको आहार न दे और न दिलाये । यही नियम स्वाध्याय, शौच और गांव जाने के लिये भी है । [ ४-५]
भिनु भिक्षा मांगने जाते समय गृहस्थ के घरका डाल-झाकडो से बन्द दरवाजा उसकी अनुमति के बिना, जीवजन्तु देखे बिना खोल कर अन्दर न जावे। उसकी अनुमति लेकर और देखभाल कर ही भीतर जाना और बाहर आना चाहिये । [२८]
भिचु भिक्षा मांगने जाते समय गृहस्थ के घर श्रमण, ब्राह्मण आदि याचको को अपने से पहिले ही भीतर देख कर उनको लाघ कर भीतर न जावे परन्तु किसी का पानाजाना न हो ऐमी अलग
शौचार उनको शासन ही धर्म
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७०] -
याचागंग सूत्र
जगह मे सबकी दृष्टि से बच कर खडा रहे, और मालुम होने पर कि वे सब आहार लेकर अथवा न मिलने से वापिस चले गये हैं, तब सावधानी से भीतर जा कर भिक्षा ले । नहीं तो हो सकता है, वह गृहस्थ मुनि को प्राया देख कर उन सबको अलग करके अथवा उसके लिये फिर भोजन तैयार करके उनको आहार दे, इस लिये सायु ऐसा न करे। [२६-३० ]
भिक्षु गृहस्थ के यहां भिक्षा मागते समय उसके दरवाजे से लग कर खड़ा न हो, उसके पानी डालने या कुल्ला करने के स्थान पर खड़ा न हो, उसके स्नान करने या मल त्याग के स्थान पर दृष्टि गिरे इस प्रकार वा उनके रास्ते में खड़ा न हो, तथा घर की खिड़क्यिो या कामचलाऊ पाड़ या छिद्र अथवा पनटेरी की तरफ हाथ उठाकर या इशारा करके ऊंचा- नीचा हो कर न देखे। वह गृहन्थ से (ऐसा-ऐग दो) अंगुली बता कर न मांगे। उसको इशारा कर, धमका कर, खुजला कर या नमस्कार करके कुछ नहीं मांगना चाहिये और यदि वह कुछ न दे तो भी कठोर वचन नहीं कहना चाहिये । [२]
भिक्षा मांगने कब न जावे ? गृहस्थ के घर भिक्षा मागने जाने पर मालुम हो कि अभी गायें दोही जा रही है, भोजन तैयार हो रहा है और दूसरे याचको को अभी कुछ नहीं दिया गया तो भीतर न जावे परन्तु किसी की दृष्टि न गिरे, इस प्रकार अलग खडा रहे; फिर मालुम होने पर कि गायें दोह ली गई, भोजन तैयार हो चुका और याचको को दिया जा चुका है तब सावधानी से जाये। [२२]
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मित्रा
[ ७
किसी गाव मे वृद्धावस्था के कारण स्थिरवास करने वाले ( समाणा ) या मास- मास रहने वाले ( वसमाणा) भिक्षुक, गांव-गांव फिरने वाले भिक्षुक को ऐसा कहे कि, यह गांव बहुत छोटा है अथवा बड़ा होने पर भी सूतक आदि के कारण अनेक घर भिक्षा के लिये बन्द है, इस लिये तुम दूसरे गाव जायो । तब भिक्षु उस गाव में भित्रा के लिये न जा कर दूसरे गाव चला जावे । [ २३ ]
गृहस्थ के घर भिक्षा के लिये जाने पर ऐसा जान पडे कि यहा मांस-मछली आदि का कोई भोज हो रहा है और उसके लिये वस्तुएँ ली जा रही है मार्ग में अनेक जीवजन्तु, बीज और पानी पड़ा हुआ है और वहा श्रमण, ब्राह्मण यादि याचको की भीड़ लगी हुई है या होने वाली है और इस कारण वहां उसका जाना थाना वाचन और मनन निर्विघ्नरूप से नहीं हो सकता तो वह वहां भिक्षा के लिये न जावे । [ २२ ]
भोज
भिक्षु यह जान कर कि श्रमुक
स्थान पर भोज (मंखडि) है, दो कोस से बाहर उसकी आशा रखकर भिक्षा के लिये न जाये परन्तु पूर्व दिशा से भोज हो तो पश्चिम से चला जावे, पश्चिम से हो तो पूर्व में चला जाये। इसी प्रकार उत्तर और दक्षिण दिशा के लिये भी करे । संक्षेप में, गांव, नगर या किसी भी स्थान में भोज हो तो वहां न जावे । इसका कारण यह कि भोज में उसको विविध दोप युक्त भोजन ही मिलेगा, अलग अलग घरसे थोड़ा थोड़ा इकट्ठा किया हुआ भोजन नहीं । और वह गृहस्थ भिन्नु के कारण छोटे दरवाजे वाले स्थान को बड़े दरवाजे वाला करेगा या बड़े दरवाजे वाले
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याचाराग सूत्र
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को छोटा, सम स्थान को विषम या विषम को सम करेगा; हवा वाले स्थान को बन्द या बन्द को हवा वाला करेगा, और साधु को अकिंचन मान कर स्थानक (उपाश्रय) के भीतर और बाहर की वनस्पति कटवा कर डालेगा और उसके लिये कुछ बिछा देगा। इस लिये निर्ग्रन्थ संयमी मुनि (जात कर्म, विवाहादि आदि) पहिले किये जाने वाले या (श्राद्ध आदि) पीछे किये जाने वाले भोजो में भिक्षा के लिये न जावे । [१३]
और, भोज में अधिक और ध्रष्ट भोजन खाने-पीने से बराबर न पचने के कारण दस्त, उल्टी और शूल आदि रोग भी हो जाते हैं । स भव है कि वह एकत्रित हुए गृहस्थो, गृहस्थो की स्त्रियो
और दूसरे भिक्षुयो के साथ मदिरा पी कर वहीं नशे में चूर होकर गिर जावे और अपने स्थान पर भी न जा सके और नशे में अपना भान भूल कर स्वय स्त्री आदि में अासक्त बने या म्बी श्रादि उसको लुभा कर योग्य स्थान और समय देखकर मैथुन में प्रवृत्त कराये । [१४-१५]
___ और सम्भव है वहां अनेक याचको के अाजाने के कारण भीड भाड़, धक्कामुक्का, मारपीट भी हो जाय; उससे हाथ-पैर से लग जावे, मार पड़े, कोई धूल डाले या पानी छीटे। वह गृहस्थ बहुत से याचको का प्राया देखकर उनके लिये फिर भोजन तैयार करावे या वहाँ इनमें भोजन के लिये छीना-झपटी मच जावे ।
इस प्रकार भोज मे भगवान ने अनेक ढोप बताये है। इस लिये भिन्नु भोज मे भिता मागने न जावे, पर थोडा-थोड़ा निर्दोष आहार अनेक घरो से माग ला कर खावे । [१७]
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मिक्षा
कैसा आहार ले - कैसा न ले ?
गृहस्थ जिस पात्र में या हाथ में ग्राहार देने के लिये लाया हो वह वारीक जन्तु, बीज या वनस्पति यदि सजीव वस्तु से मिश्रित या सजीव पानी से गीला हो, अथवा उस पर सजीव धूल पडी हुई हो तो उसको दोपित जानकर भिक्षु न ले । यदि भुल से ऐसा आहार लेने में या जावे तो उसको लेकर एकान्त स्थान में, वाड़े में यथवा स्थानक में जावे और निर्जीव स्थान पर बैठ कर उस ग्राहर मे से जीवजन्तु वाला भाग अलग कर दे तथा जीवजन्तु धीनकर यलग निकाल दे, बाकी का आहार संयमपूर्वक वह खाने-पीने के योग्य न जान पड़े तो उसको एकान्त में ले जाकर जली हुई जमीन पर या हड्डी, कचरे, छिलके यादि के बूरे पर देस नाल कर संयमपूर्वक डाल दे । [१]
खा-पी ले और यदि
भिक्षा के समय यदि ऐसा जान पडे कि कोई धान्य, फल, फली यादि चाकू आदि से या अग्नि से तोटी, कतरी या पकाई न जाने से सारी और सजीव है, और उनकी ऊगने की शक्ति श्रभी नष्ट नहीं हुई है तो गृहस्थ के देने पर भी भिक्षु उन वस्तुयो को न ते । पर यदि वे पदार्थ पकाये गये हो, सेके गये हो, तोडे - कतरे गये हो और निर्दोष मालुम पड़े तो ही उनको ले । [२]
पोहे, पुरपुरे, धानी श्रादि एक ही बार भूने जाने पर सजीव मालुम पडते हो तो, उनको भी न ले, पर दो-तीन बार भूने जाने पर पूरी तरह निर्जीव हो गये हो तो ही ले । 1
मुनि कंद, फल, कोपल, मौर और केले आदि का गिर तथा श्रग्रत्रीज, शाखावीज या पर्वबीज त्रादि वनस्पतियाँ चाकू आदि से
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आचारांग सूत्र
७४ ]
कतरी होने से निर्जीव होगई हो तो ही ले । इसी प्रकार उंबरी, बड, पीपल, पीपली श्रादि के चूर्ण कच्चे या कम पिसे हुए, सजीव हो तो न ले । अधपकी हुई शाकभाजी, या सड़ी हुई शहद, मद्य, घी, खोल, श्रादि वस्तुएँ पुरानी हो जाने के कारण उनमें जीवजन्तु हो तो न ले | अनेक प्रकार के फल, कंद आदि चाकू से कतरे हुए निर्जीव हो तो ही ले । इसी प्रकार अन्न के दाने, दाने वाली रोटी, चावल, चावल का घाटा, तिल्ली, तिलपापडी श्रादि निर्जीव न हो तो न ले ।
तिल्ली का चूरा और
[
८ ]
भिक्षु या भिक्षुणी भिक्षा लेते समय गृहस्थ के घर किसी को जीमते देख कर उससे कहे कि, ' हे आयुपगन् । इस भोजन मे से मुझे कुछ ढो ।' यह सुन कर वह अपने हाथ वर्तन या कड़छी ठंडे सजीव पानी से अथवा ठंढा हो जाने पर सजीव हुए गरम पानी से धोने लगे तो भिक्षु को कहना चाहिये कि, 'हाथ या वर्तन को सजीव पानी से धोए बिना ही तुमको जो देना हो दो ।' इतने पर भी वह हाथ श्रादि धोकर ही देने लगे तो भिन्नु उसको सजीव और सढोप मान कर न ले । इसी प्रकार यदि गृहस्थ ने भिक्षु को भिक्षा देने के लिये ही हाथ धोये न हो पर यो ही वे गीले हो अथवा मिट्टी या अन्य सजीव वस्तु से वे भरे हुए हो तो भी ऐसे हाथो से दिया जाने वाला आहार वह न ले । परन्तु यदि उसके हाथ ऐसी किसी चीज़ से भरे हुए न हो तो वह निर्जीव और निर्दोष श्राहार को ले ले । [ ३३ ]
पोहे, ठि, चावल आदि को गृहस्थ ने जीवजन्तु, बीज या वनस्पति जैसी सजीव वस्तु लगी हुई शिला पर बाटा हो, बांटता हो या वाटने वाला हो, अथवा हवा में उनको उफना हो, उफनता हो
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या उफनने वाला हो नो भिक्षु उनको सजीव और सदोष जान कर न ले । इसी प्रकार ऐसी शिला पर पीसे गये चीड़ नमक और सुमुदनमक को भी न ले । [३४-३५ ]
गृहस्थ के घर पाग पर रखा हुआ थाहार भी भिक्षु सदोप जान कर दिये जाने पर भी न ले, इनका कारण यह कि गृहस्थ भितु के लिये उसमें से याहार निकालते या टालते समय, उस बर्तन को हिलाने से अग्निकाय के जीवो की हिंसा करेगा। अथवा अाग को कम-ज्यादा करेगा। [३६ ३८ ]
गृहस्थ दीवार, खम्भे, खाट, मंजिल आदि ऊंचे स्थान पर रखा हुया श्राहार लाकर भिक्षु को देने लगे तो वह उसको सदोष जान कर न ले, इसका कारण यह कि ऐसे ऊचे स्थान से आहार निकालते समय पाट, नसेंनी अादि लगा कर चढने लगे और गिर जाय तो उसके हाथ-पैर में लग जाय और दूसरे जीवजन्तु भी मरें। इसी प्रकार कोटी, ग्बो आदि आदि स्थान से आहार लाते समय भी गृहस्थ को ऊंचा, नीचा और टेढा होना पड़ता हो तो उसको भी न ले । [३]
मिहिसे लीप कर बंध किया हुया पाहार भी न ले । क्योकि उसको निकालते समय और फिरसे लीप कर बंध करते समय अनेक पृथ्वी, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस जीवो की हिंसा होती है । सजीव पृथ्वी, पाणी, वनस्पति या ब्रम जीवो पर रक्खा हुआ आहार भी न ले । [३८]
आहार के अत्यन्त गरम होने से गृहस्थ उसको सूपड़े, पंखे, पत्ते, ढाली, पीछे, कपडे, हाथ या मुंह से फ़क कर या हवा करके
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याचागंग सूत्र
ठंडा कर देने लगे तो भिक्षु न ले, परन्तु पहिले ही से कह दे कि ऐसा दिये बिना ही आहार देना हो तो दो। [३६]
मुनि गन्ने की गाठ, गांठ वाला भाग, रस निकाल लिये हुए टुकडे, गन्ने का लम्बा हिस्सा या उमका टुकडा अथवा मूंग आदि की बफी हुई फली श्रादि वस्तुएँ जिनमे खाने का कम और छोड़ने का अधिक हो, को न ले । [१८]
(भिचु ने खांड मांगी हो और ) गृहस्थ (भूल से) समुद्रनमक या बीड़ नमक लाकर दे, और भिक्षु का मालुम हो जाय तो न ले । पर यदि गृहस्थ उसको जल्दी से पात्र मे डाल दे और बाद में भिक्षु को मालुम हो जाय तो वह दूर चले जाने के बाद भी वापिस उस गृहस्थ के पास आवे और उससे पूछे कि, तुमने मुझे यह जानते हुए दिया या अजानते हुए ? यदि वह कहे कि, “मैं ने जानते हुए तो नहीं दिया पर अब राजी से आपको देता हूँ। इस पर वह उसको खाने के काम में ले ले । यदि बढ़े तो अपने पास के समान धर्मी मुनियो को दे दे। ऐसा संभव न हो तो अधिक आहार के नियम से उसको निर्जीव स्थान पर डाल दे। [२६]
जिस आहार को गृहस्थ ने एक या अनेक निर्ग्रन्थ सावु या साध्वी के उद्देश्य से या किसी श्रमणब्राह्मण प्राठि के उद्देश्य से जीवो (छ काय) की हिसा करके नैयार क्यिा हो, खरीदा हो, माग लाया हो, छीन लाया हो, (दूसरे के हिस्से का) समति बिना लाया हो, मुनि के स्थानपर घर से, गांव से ले जाकर दिया हो तो उस सटोप आहार को भिक्षु कदापि न ले।
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भिक्षा
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जिस आहार को गृहस्थ ने गिन कर नहीं पर यो ही श्रमण ब्राह्मणो के लिये ऊपर लिखे अनुसार तैयार किया हो, और उसको सबको देने के बाद गृहस्थने अपने लिये न रखा हो, या अपने खाने के लिये बाहर न निकाला हो या खाया न हो तो न ले। परन्तु सवको दिये जाने के बाद गृहस्थ ने अपने लिये समझकर ही रखा हो तो निप जानकर उसको ले ले । [६-८]
इसी प्रकार अष्टमी के पोपध व्रत के उत्सव पर या पाक्षिक, मालिक, द्विमासिक चातुर्मासिक या छ मासिक उत्सव पर अथवा ऋतु के या उसके प्रथम या अन्त के दिन, अथवा मेला, श्राद्ध या दवदेवी के महोत्सव पर श्रमण-ब्राह्मण आदि याचको को एक या अनेक हंडी में से, कुंभी मे से, टोकरी या थैली मे से गृहस्थ श्राहार परोसता हो, उसको भी जब तक सबको देने के बाद उस गृहस्थ ने उसको अपना ही न समझ लिया हो, तब तक उसको सदोप समझ कर न ले। पर सबको दिये जाने के बाद गृहस्थ ने उसको अपना समझ कर रखा हो तो उसको निर्दोष समझ कर ले ले । [१०,१२]
कितने ही भद्र गृहस्थ ऐला समझ कर कि ज्ञान, गील, व्रत, गुण, संवर, संयम और ब्रह्मचर्यधारी उत्तम मुनि उनके लिये तैयार किये हुए श्राहार को नहीं लेते, तो हम अपने लिये ही श्राहार तैयार करके उनको दे दें और अपने लिये फिर तैयार कर लेंगे । मुनि इस बात को जानने पर उस आहार को सदोष समझ कर न ले । [४]
भिक्षा के समय मुनि के लिये कोई गृहस्थ उपकरण या आहार तैयार करने लगे तो वह उसको तुरन्त ही रोक दे, ऐसा भी
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७८ ]
लेते समय
न
सोचे कि अभी तो उसको तैयार करने को पर मना कर दूँगा । और मना करने पर भी गृहस्थ श्राहार- पानी तैयार करके देने लगे तो उसे कदापि न ले [ ५० ]
प्राचागग सूत्र
भिन्तु, ऐसा समझकर कि प्रमुक स्थान पर विवाह-मृत्यु के कारण भोज है, और वहा अवश्य ही भोज है, ऐसा निश्चय करके भिक्षा के लिये वहां उत्सुकता से दौड़ पड़े तो वह दोष का भागी है । परन्तु योग्य काल मे अलग अलग घर से थोड़ा थोडा निर्दोष श्राहार वह माग लावे | [ १६ ]
गृहस्थ के घर भिक्षा मांगने पर ग्राहार के निर्दोष होने से शंका हो तो उसे भिक्षु स्वीकार न करे । [5]
गृहस्थ के घर अनेक वस्तुएँ तली जा रही हो तो जल्दी जल्दी जा कर उनको न मांगे, किसी बीमार जाना हो अलग बात है । [ ५१ ]
मुनि के लिये
किसी गृहस्थ के घर थाहार में से पिड अलग निकाल दिया जाता है । उस या देवमंदिर याद में चारो तरफ रखा जाता देख कर,
पहिले खाया या लिया हो तो श्रमण ब्राह्मण उस तरफ जल्दी जल्दी जाते है । उनको देखकर भिक्षु भी जल्दी जल्दी वहाँ जावे तो तो उसको दोष लगता है । [ २५ ]
प्रारम्भ में देव
as को
आदि का
निकालते
उसको
C यह
यदि कोई गृहस्थ (अपने घर श्रमण ब्राह्मण श्रादि को भिक्षा के लिये खडा देख कर ) ग्राहार मुनि को दे और कहे कि, आहार मैंने तुम सबको जो यहाँ खढे हो, दिया है । तुम सब मिल कर इसे आपस में बांट लो । इस पर में सोचे कि, 'यह सब श्राहार
वह मुनि यदि मन
तो मुझ
अकेले के
लिये ही
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भिदा
[७६
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है तो उसको दोप लगता है। इस लिये ऐसा न करके, उस याहार को दुसरे श्रमणब्राह्मणो के पास ले जाकर वह कहे कि, 'यह श्राहार सबके लिये दिया गया है, इस लिये सब मिलकर बाट लो।' तब उनमे से कोई ऐसा कहे कि, 'हे आयुग्मान् । तू ही सबको बांट टे।' इस पर वह अाहार बांटते समय अपने हिस्से में अच्छा या अधिक आहार न रखे, पर लोलुपता को त्याग कर शांति से सब को बाट टे। परन्तु वाटते समय कोई ऐसा कहे कि, 'हे अायुग्मान् । तू मत बाट, हम सब मिलकर खायेंगे' । तब वह उसके साथ आहार खाने समय अधिक या अच्छा न खाकर शाति से समान आहार खावे । [२६]
मुनि आहार लाने के बाद, यदि उसमें से अच्छा अच्छा खाकर बाकी का डाल दे तो उसको ढोप लगता है । इस लिये ऐसा न करके अच्छा-बुरा सब खा जावे, बुरा छोडे नही । ऐसा ही पानी के सम्बन्ध में समझे । मुनि आवश्यकतासे अधिक भोजन यदि ले ग्रावे और पास मे दूसरे समान वर्मी मुनि रहते हो तो उनको वह अविक आहार बताये विना या उनकी आवश्यकता के बिना दे डाले तो उसको ढोप लगता है वे भी उस देनेवाले को कह दें कि कि, 'हे आयुष्यान् । जितना अाहार हमे लगेगा उतना लेंगे, सारा लगेगा तो सारा लेंगे ।' [५२-५४ ]
यदि आहार दूसरो को देने के लिये बाहर निकाल रखा हो तो उसकी आज्ञा के बिना न ले। पर यदि उसने आज्ञा दे दी हो तो ले ले । [१५]
सब मुनियो के लिये इकट्ठा आहार ले आने के बाद वह मुनि उन सबसे पूछे बिना, अपनी इच्छा के अनुसार ही अपने परिचितो
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श्राचाराग सूत्र
को जल्दी न दे दे, परन्तु उस आहार को सब के पास ले जा कर कहे कि, ' मेरे पूर्व परिचित ( दीना देने वाले ) और पश्चात परिचिन (ज्ञान यादि सिखाने वाले ) श्राचार्य आदि को क्या में यह ग्राहार दे दूँ?' इस पर वे मुनि उसको कहे कि ' हे श्रायुपमान् ।
,
तु
जितना चाहिये उतना उनको दे ।' [ ५६ ]
कोई मुनि अच्छा अच्छा भोजन माग ला कर मन में सोचे कि यदि इसे खोल कर बताउंगा तो ग्राचार्य ले लेंगे और यदि वह उम भोजन को बुरे भोजन से ढंक कर ग्राचार्य यादि को बताये तो उसे दोष लगता है । इस लिये, ऐसा न करके, बिना कुछ छिपाये उसको खुला ही बताये | यदि कोई मुनि अच्छा अच्छा आहार वा कर बाकी का ग्राचार्य आदि को बतावे तो भी दोष लगता है; इस लिये ऐसा न करे । [ ५७ ]
कोई मुनि अच्छा भोजन लेकर मुनि के पास आकर कहे कि, 'तुम्हारा श्रमुक मुनि बीमार है तो उसको यह भोजन खिलाओ, यदि वह न खावे तो तुम खा जाना ।' अब वह मुनि उस अच्छे भोजन को खा जाने के विचार से उस बीमार मुनि से यदि कहे कि यह भोजन रूखा, है, चरपरा है, कडवा है या कपैला हैं; तो उसे दोष लगता है | यदि उन सुनियो ने ग्राहार देते समय यह कहा हो कि, 'यदि वह बीमार मुनि इसको न हमारे पास लाना; तो खुद ही उसे खाकर जैसा कहा हो वैसाही करे | [ ६०-६१ ]
खावे तो इसके फिर झूठ बोलने के
बदले
भिक्षा मांगने जाते समय मार्ग, सराय, बंगले,
गृहस्थ के घर
या भिक्षुओ के मटो से भोजन की सुगंध आने पर मुनि उसको,
(
क्या ही अच्छी सुगंध,' ऐसा कह कर न सूंघे । [ ४४ ]
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भिक्षा
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कैसा पानी ले-कैसा न ले ? भिक्षु, आटा (वर्तन, हाथ आदि) धोया हुआ, तिही धोया हुआ चावल धोया हुया या ऐसा ही पानी, ताजा धोया हुआ, जिसका स्वाद न फिरा हो, परिणाम में अन्तर न पडा हो, निर्जीव न हुआ हो तो सदोप जानकर न ले परन्तु जिसको धोए बहुत देर होने से उसका स्वाद बदलने से बिलकुल निर्जीव हो गया हो तो उस पानी को निर्जीव समझकर ले।
भिक्षु तिल्ली, चावल और जो का (धोया हुआ) पानी, मांड (ोसामन), छाछ का नितार, गरम या ऐसा ही निर्जीव पानी देख कर उसके मालिक से मांगे, यदि वह खुद लेने का कहे तो खुद ही ले ले अथवा वही देता हो तो ले ले। निर्जीव पानी जीवजन्तु वाली जमीन पर रक्खा हो, अथवा गृहस्थ उसको सजीव पानी या मिट्टी के बर्तन से देने लगे या थोडा ठंडा पानी मिला कर देने लगे तो वह उसको स्टोप समझ कर न ले। [४१-४२]
__ प्राम, केरी, विजोरा, दाख, अनार, खजूर, नारियल, केला, वैर श्रावला, इमली आदि का पना बीज आदि से युक्त हो अथवा उसको गृहस्थ छान-छून कर दे तो भिक्षु सदोष समझ कर न ले। [४३ ]
सात पिंडैपणाएँ और पानैषणाएँ
(आहार-पानी की मर्यादा विधि) १ बिना भरे हुए (खाली, सूखे) हाथ और पात्र से दिया हुआ निर्जीव आहार स्वयं मांगकर या दूसरे के देने पर ग्रहण करे ।
२ भरे हुए हाथ और पात्र से दिया हुया निर्जीव श्राहार ही ले ।
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२]
श्राचारांग सुत्र
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३. अन्छे हाथ और भरे हुए पान से अथवा भरे हुए हाथ और अच्छे पात्र से हाथ में या पात्र में दिया हुया निर्जीव भोजन खुद ही मांगे या दूसरा दे तो ग्रहण करे।
४. निर्जीव पोहे, ढिलं, धानी अादि जिसमें से फेंकने का कम और खाने का अधिक निकलता हो और दाता को भी बर्तन धोने श्रादि का पश्चात् कर्भ थोडा करना पडता हो, उन्हीं को खुद मांगे या दूसरा देता हो तो ले।
५. जिस निर्जीव भोजन को गृहस्थ ने खुद खाने के लिये कटोरी, थाली और कोपक (बर्तन विशेष) में परोसा हो, (और उसके हाथ आदि भी सूख गये हो) उसको खुद मांग कर ले या दूसरा दे तो ले ले ।
६. गृहस्थ ने अपने या दूसरो के लिये निर्जीव भोजन कडछी से निकाला हो, उसको हाथ या पात्र में मांगकर ले या दूसरे दे तो ले ले ।
७. जो भोजन फेंकने के योग्य हो और जिसको कोई दूसरा मनुष्य या जानवर लेना न चाहे, उस निर्जीव भोजन को खुद मांग कर ले या दूसरा दे तो ले ले ।
इन सातो पिडेपणानो को भिक्षु को जानना चाहिये और इन में किसी को स्वीकार करना चाहिये।
सात पानपणाएं भी इसी प्रकार की हैं, केवल चौथी इस प्रकार है--तिल्ली, चावल, जौ का पानी, मांड, छाछ का नितार या गरम या अन्य प्रकार का निर्जीव पानी, जिसको लेने पर (धोने-साफ करने का) पश्चात्कम थोडा करना पडे, उसको ही ले।
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भिक्षा
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इन सात पिढेपणा या पानपणा में से किसी एक की प्रतिज्ञा लेने पर ऐसा न कहे कि मैं ने ही अच्छी प्रतिज्ञा ली है और दूसरो ने बुरी । परन्तु ऐसा समझे कि दूसरोने जो प्रतिज्ञा ली है और मैं ने जो ली है, वे सब जिन की श्राज्ञा के अनुसार ही हैं और सब यथाशक्ति ही ग्राचार पाल रहे है । [६३ ]
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दूसरा अध्ययन
शय्या
६६ कैसे स्थान में रहे-कैसे में न रहे ? भिक्षु को ठहरने की जरूरत हो तो वह गांव, नगर या राजधानी में जावे । [६४]
वहाँ वह स्थान अंडे, जीवजन्तु और जाला श्रादिसे भरा हुआ हो तो उसमें न ठहरे, परन्तु यदि ऐसा न हो तो उसको अच्छी तरह देखभालकर, माड-बुहार कर सावधानी से ग्रासन, शय्या करके ठहरे ।
जिस मकान को गृहस्थ ने एक या अनेक सहधर्मी भिनु - या भिक्षुणी के लिये अथवा श्रमणब्राह्मण के लिये छ काय जीवो की हिंसा करके तैयार किया हो, खरीदा हो, मांग लिया हो, छीन लिया हो (दूसरो का उसमें हिस्सा होने से) विना आज्ञा के ले लिया हो या मुनि के पास जाकर कहा हो तो उसको सढोप जानकर भिक्षु उसमें न रहे।
और, जो मकान किसी खास श्रमण ब्राह्मण के लिये नहीं पर । चाहे जिसके लिये ऊपर लिखे अनुसार तैयार किया गया हो पर " यदि पहिले दूसरे उसमें न रहें हो तो उसमें न रहे । परन्तु यदि
शय्या (मलमें, 'सेन्जा') का अर्थ विछोना और मकान दोनो लिया गया है।
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शस्या
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उस मकान से दूसरे रह चुके हो तो उसको देख भाल कर, झाड़बुहार कर उसमें रहे ।
जिस मकान को गृहस्थ ने भिक्षु के लिये, चटाइयो या बास की पिंचियो से डकवाया हो, लिपाया हो, धुलाया हो, घिसा कर साफ कराया हो, ठीक कराया हो धूप आदि से वासित कराया हो और यदि उसमें पहिले दूसरे न रहे हो तो वह उसमे न रहे पर यदि दूसरे उसमें रह चुके हो तो वह देख भाल कर, भाड़ वुहार कर उसमे रहे । [६४]
जिम मकान मे गृहस्थ भिक्षु के लिये छोटे दरवाजो बड़े या बड़े दरवाजो को छोटे कराये हो उसके भीतर या बाहर पानी से पैदा हुए कंदमूल, फल फूल, वनस्पति को एक स्थान से दूसरे पर ले गया हो या बिलकुल नष्ट कर दिया हो, और उसके पाट, नसैनी श्रादि इधर-उधर ले गया हो या निकाल लिया हो, तो भिक्षु उसमें जबतक कि दूसरे न रह चुके हो न रहे। [६५]
भिक्षु मकान के ऊपरी और ऊंचे भाग में बिना कोई खास कारण के न रहे । यदि रहना पड़े तो वहाँ हाथमुंह ग्रादि न धोवे और वहा से मलमूत्र श्रादि शौच क्रिया भी न करे क्योकि ऐसा करने में गिर कर हाथपैर से लगना और जीवजन्तु की हिंसा होना सभव है । [६६]
भिन्नु स्त्री, बालक, पशु और उनके अाहार-पानी की प्रवृत्ति वाले गृहस्थ के घर मे न रहे । इसका कारण यह कि उसमें ये महादोप होना संभव हैं; जैसे, वहा भिक्षु को (अयोग्य आहारपानी से) सूजन, दस्त, उल्टी श्रादि रोग हो जाये तो फिर गृहस्थ उस पर दया करके संभव है उसके शरीर को तेल, घी मक्खन या चरबी
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याचारांग सूत्र
८६ ]
श्रादि से मले या सुगन्धी वस्तु, काथा, बोध, वर्णक, चूर्ण या पद्मक श्रादि का क्षेप करे या ठंडे श्रथवा गरम पानी से म्नान करावे या लकडी से लकडी रगड कर याग मुलगा कर ताप दे । [ ६७ ] और वहा गृहस्थ, उसकी स्त्री, पुत्र, पुत्रवधु, नौकर चाकर और दासदासी आपस में बोलचाल कर मारामारी करें तो उसका मन भी डगमग होने लगे । [७०]
र, गृहस्थ अपने लिये श्राग सुलगाचे तो उसको देख कर उसका मन भी डगमग होने लगे । [ ७० ]
और, गृहस्थ के घर उसके मणि, मोती और सोना चांदी के कारो से विभूषित उनकी तरुण कन्या को देखकर उसका मन डगमग होने लगे ! [ ६६ ]
और, गृहस्थ की स्त्रिया, पुत्रियाँ, पुत्रवधुएँ, दाइयों, वासियों या नोकरनिया ऐसा सुन रखा होने से कि 'ब्रह्मचारी श्रमण के साथ सभोग करने से बलवान, दीप्तिमान, रूपवान, यशस्वी, शूरवीर और दर्शनीय पुत्र होता है, ' उसको लुभाने और डगमगाने का प्रयत्न करें।
और, गृहस्थ स्नान आदि से स्वच्छ रहने वाले होते हैं और भिक्षु तो स्नान न करने वाला ( कभी संभव है) त्र से शौच यादि क्रिया करने से दुर्गंधीयुक्त हो जानेसे श्रप्रिय हो जाचे, अथवा गृहस्थ को भिक्षु के ही कारण अपना कार्य बदलना या छोड़ना पड़े । [ ७२ ]
और गृहस्थ ने अपने लिये भोजन तैयार कर लिया हो और फिर भिक्षु के लिये वह अनेक प्रकार का खानपान तैयार करने लगे तो उसके लिये भिक्षु को इच्छा हो । [७३]
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और, गहस्थ ने अपनी जरूरत के लिये लकड़ी फाडा रखी हो . और भितु के लिये अधिक लकड़ी फाड़ा कर या खरीद कर या मांग
कर श्राग सुलगावे तो उसको देखकर भिक्षु को तापने की भी इच्छा हो। [४]
और, गृहस्थ के घर रहने पर भिक्षु रात को मलमूत्र त्यागने के लिये गृहस्थ के घर का दरवाजा खोले, और उस समय कोई बैठा हुया चोर भीतर घुस जाय उस समय लाधु यह तो नहीं कह सकता कि, यह चोर घुसा, यह चोर छिपा, यह चोर पाया, यह चोर गया, इसने चोरी की, दूसरों ने चोरी की, इसकी चोरी की, दूसरे की चोरी की, यह चोर है, यह उसका साथी है, इसने मारा या इसने ऐसा किया । इस पर वह गृहस्थ उस तपस्वी भिक्षु पर ही चोरी की शंका करे । इसलिये, पहिले से ही ऐसे मकान में न रहे भिक्षु को यही उपदेश है। [७५]
___ जो मकान घास या भूसे की देरी के पास हो और इस कारण अनेक जीवजन्तु वाला हो तो उसमें भिक्षु न रहे पर यदि बिना जीवजन्तु का हो तो उसमे रहे। [ ७६ ]
मुनि, सराय मे, बगीचो मे बने हुए विश्राम घरो में, और मठो आदि में जहाँ बारबार साधु आते-जाते हो, न रहे । [७७ ]
जिन मकानों मे जाने-माने या स्वाध्याय की कठिनता हो और जहां चित्त स्थिर न रह सकता हो तो भिक्षु वहा न रहे । जैसे, जो मकान गृहस्थ, श्राग और पानी वाला हो; जहां जाने का रास्ता गृहस्थ के घर के बीच में से होकर हो, जहां घर के लोग आपस मे लड़ते-झगड़ते हो, या आपस मे शरीर को तेल से मलते हो, या सुगंधित पदार्य लगाते हो, आपस में स्नान करते-कराते हो, नग्न
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याचारांग सूत्र
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बैठते हो, नग्नावस्था में संभोग सम्बन्धी बातें करते हो, दूसरी गुप्त बातें करते हों अथवा जिस घर से कामोद्दीपक चित्र हो-ऐसे मकान में मुनि न रहे । [६१-१८]
स्थान कैसे मांगे? मुनि को सराय आदि में जाकर अच्छी तरह तलाश करने के बाद स्थान को मांगना चाहिये । उसका जो गहस्वामी या अधिष्ठाता हो, उससे इस प्रकार अनुमति लेना चाहिये, 'हे श्रायुप्मान् । तेरी इच्छा हो तो तेरी अनुमति और आज्ञा से हम यहाँ कुछ समय रहेंगे।' अथवा (अधिक समय रहना हो तो) जब तक म्हना होगा या यह मकान जबतक तेरे अधीन होगा तवतक रहेंगे और उसके बाद चले जावेंगे, तथा (कितने रहेंगे, ऐसा पूछने पर ठीक संख्या न बता कर) जितने आगे, उतने रहेंगे। [२६]
भिक्षु जिसके मकान में रहे, उसका नाम पहिले ही जान ले, जिससे वह निमन्त्रण दे या न दे तो भी उसका अाहार-पानी (भिक्षा) न ले सके । [१०]
कुछ दोप कोई भिन्नु सराय (सराय से उस स्थान का तात्पर्य है जहा वाहर के यात्री पाकर ठहरा करते है, पहिले वे शहर में न होकर बाहर अलग ही होती थीं) आदि में (अन्य ऋतु मे एक मास और वर्षाऋतु में चार मास) एक वार रह चुकने के बाद वहा रहने को फिर अाता है तो यह कालातिक्रम दोप कहलाता है । [१]
कितने ही श्रद्धालु गृहस्थ अपने लिये पड़साल, कमरे, प्याऊ का स्थान, कारखाने या अन्य स्थान बनाते समय उसे श्रमण ब्राह्मण
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श्रादि के रहने के काम आ सकने के लिये बड़ा बना देते है । ऐसे मकानो में श्रमण ब्राह्मण आते जाते रहते हो और उनके बाद भिक्षु ऐसा देखकर वहां रहे तो यह अभिक्रांत क्रिया दोप है और यदि पहिले ही वह वहां जाकर रहे तो यह अनभिक्रांत क्रिया दोष है ।
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ऐसा सुना होने से कि भिक्षु अपने लिये बनाये हुए मकानो में नहीं ठहरते, कोई श्रद्धालु गृहस्थ ऐसा सोचे कि अपने लिये बनाया हुआ मकान भिक्षुओ के लिये कर दूं और अपने लिये दूसरा बनाऊँगा । यह मालूम होने पर यदि कोई भिक्षु ऐसे मकान में ठह रता है तो यह वर्ज्य क्रिया दोप है । [ २ ]
इसी प्रकार कितने ही श्रद्धालु गृहस्थोने किसी खास संख्या के श्रमणब्राह्मण, श्रतिथि, कृपण आदि के लिये मकान तैयार कराया हो तो भिक्षु का उसमें ठहरना महाचयदोष है । [३]
इसी प्रकार श्रमणवर्ग के ही अनेक भिक्षुत्रो के लिये तैयार कराये हुए मकानों में ठहरना सावद्यक्रिया दोष हैं ।
किसी गृहस्थ ने सहधर्मी एक श्रमण के लिये छ. काय के जीवो की हिसा करके ढाक लीप कर मकान तैयार कराया हो, उसमे ठंडा पानी भर रखा हो, और श्राग जला कर रखी हो तो ऐसे अपने लिये तैयार कराये हुए मकान से ठहरना महासावद्यक्रिया दोष है । ऐसा करने वाला न तो गृहस्थ है और न भिक्षु ही । [ ८ ]
परन्तु जो मकान गृहस्थ ने अपने ही लिये छाबलीप कर कर तैयार कराया हो, उसमे जाकर रहना श्रल्पसावद्यक्रिया दोष हैं । [ ८६ ]
कितने ही सरल, मोक्षपरायण तथा निष्कपट भिक्षु कहते हैं कि 'भिक्षु को निर्दोष पर अनुकुल स्थान मिलना सुलभ नहीं है । और कुछ
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और इसी प्रकार भिनान्न (भिजु के योग्य) शुद्ध नहीं ही होते । और भिनु समय-समय पर चंक्रमन (जाना-बाना) करता है, स्थिर बैठता है, स्वान्याय करता है, सोता है और भिक्षा मांगता है। इन सब कामो के लिये उसको अनुकुल स्थान मिलना कठिन है । ऐसा सुनकर कोई गृहस्थ भिक्षु के अनुकुल स्थान तैयार कर रखते हैं; उसमें कुछ समय खुद रहकर या दूसरेको उसका कुछ भाग बेचकर अपनी बुद्धि के अनुसार उसको भिन्नु के योग्य बना रखते हैं। इस पर प्रश्न उठता है कि भिक्षु का अपने ठहरने के योग्य या अयोग्य स्थान का वर्णन गृहस्थ के सामने करना उचित है या नहीं ? हां, उचित है । (ऐसा करते समय उसके मन में अन्य कोई इच्छा नहीं होना चाहिये ।
विछाने की वस्तुएँ कैसे मांगे ? भिन्नु को, यदि बिछाने की वस्तुओं (पाट, पाटिया आदि) की जरूरत पड़े तो वह बारीक जीवजन्तु आदि से युक्त हो तो न ले परन्तु जो इनसे सर्वथा रहित हो, उसी को ले। उस को भी यदि दाता वापिस लेना न चाहता हो तो न ले पर यदि उसे वापिस लेना स्वीकार हो तो ले ले । और, यदि वह वहुत शिथिल और टूटा हो तो न ले पर दृढ़ और मजवृत हो तो ले ले। [१६] .
इन सब टोपो को त्याग कर भिन्तु को बिछाने की वस्तुओ को मांगने के इन चार नियमों को जानना चाहिये और इनमें से एक को स्वीकार करना चाहिये।
१. भिक्षु घास, दूब या पराल श्रादि में से एक को, नाम अताकर गृहस्थ से मांगे। घास, तिनका, दूब, पराल बांस की
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पिंचिया, पीपल आदि के पाट में से एक का निश्चय करके बिछाने के लिये खुद मागे या दूसरा दे तो ले ।
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२ ऊपर बताये हुए में से एक का निश्चय करके, उसे गृहस्थ के घर देखकर बिछाने के लिये मांगे या दूसरा दे तो ले ।
३. जिसके मकान में ठहरे, उसके यहां उपर की कोई बिछाने की वस्तु हो तो मांग ले या वह दे तो ले; नहीं तो ऊकहूँ या पालकी श्रादि मार कर बैठा रहे, सारी रात बितावे |
४ जिसके मकान में ठहरे, उसके यहां ( मकान में ) पथर या लकड़ी की पटरी तैयार पडी मिल जाय तो उसके पर सो जावे; नहीं तो उकटं या पालकी यादि मार कर बैठा रहे, सारी रात बितावे | [ १००-१०२ ]
इन चारों में से कोई एक नियम लेनेवाला ऐसा कभी न कहे कि, 'मैंने ही सच्चा नियम लिया है और दूसरो ने झूटा । ' परन्तु ऐसा समझे कि दूसरे जिस नियम पर चलते हैं और में जिस नियम पर चलता है, वह जिन की श्राज्ञा के अनुसार ही है, और श्रयेक यथाशक्ति श्राचार को पाल रहा है । [ १०३ ]
किस प्रकार विछावे और सवे ?
स्थान मिलने पर भिनु उसको देख-भाल कर, झाड़-युहार कर वहां सावधानी से श्रासन, बिछौना या बैठक करे । [ ६४ ]
बिछाने के लिये स्थान देखते समय श्राचार्य, उपाध्याय श्रादि तथा बालक, रोगी या अतिथि यादि के लिये स्थान छोड़कर, शेष स्थान में बीच में या अन्त में, सम या विषम में, हवादार या में, सावधानी से बिछौना करे । [ १०७ ]
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याचारांग सूत्र
सोने के पहिले, भितु मलमत्र त्यागने के स्थान को जान से । नहीं तो रात में मलमूत्र करने जाते समय वह गिर पटे, हाथ-पैर में लग जाय या जीवों की हिंमा हो । [१६] ___ सोते समय भिक्षु सिर से पैर तक शरीर को पांच ले । [३०]
उस स्थान पर बहुत से मनुष्य मो रहे हो तो इस प्रकार या योचे कि उसके हाथ-पैर अादि दूसरों की न लगे, नथा मान के बाद (जोर से) सांस लेते समय, छींकते समय, बगामी लेते समय, टकारते समय या वायु दोडते समय मुहा या गुदा हाथ से ढाक कर सावधानी से उन क्रियानी को करे । [ १०६]
वहा पर बहुत से मनुष्य यो रहे हो और घर छोटा हो, उचे नीचे दरवाजे वाला तथा भीड़ वाला हो तो उस मकान में रात में पाते-जाते समय हाथ आगे करके फिर पैर रख कर सावधानी से श्रावे-नावे क्योकि रास्ते में श्रमणों के पात्र, दंड, कमंटल, वन श्रादि इधर-उधर बिखरे पड़े हो और इस कारण असावधानी से प्रातेजाते समय भिक्षु वहाँ गिर पडे, हाथ-पैर में लग जाय या जीवो की हिंसा हो। [4]
विछाने की वस्तुओ को कैसे लौटावे ? बिछाने की वस्तुओं को भिक्षु जब गृहस्थ को वापिस दे तो ऐसी की ऐसी ही न दे दे पर उसके जीवजन्तु साफ करके मावधानी से दे। [ १०५]
समता भितुको सोने के लिये कभी मम जगह तो कभी विषम, कमी हवादार तो कभी वन्द हवा, कभी डांस मच्छर वाली तो कभी बिना
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शय्या
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डास मच्छर की; कभी कचरेवाली तो कभी साफ; कभी पड़ी-सडी तो कभी अच्छी, कभी भयावह तो कभी निर्भय जगह मिले तो भिक्षु समता से उसे स्वीकार करे पर खिन्न या प्रसन्न न हो। मुनि के श्राचार की यही सम्पूर्णता है कि सब विषयो मे रागद्वेष से रहित और अपने क्ल्याण में वह तत्पर रहकर सावधानी से प्रवृत्ति करे। [११]
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तीसरा अध्ययन
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भिक्षु या भिक्षुणी ऐसा जानकर कि श्रव वर्षा ऋतु लग गई है, पानी बरसने से जीवजन्तु पैदा हो रहे हैं, अंकुर फूट निकस्ते है और रास्ते जीवजन्तु, वनस्पति श्रादि से भर गये हैं, इस कारण ठीक मार्ग नहीं दिखाई पड़ता तो वह गांव गांव फिरना बन्द करके संयम से एक स्थान पर चातुर्मास ( वर्षावास ) करके रहे । [ १११ ]
जिस गांव या शहर में बड़ी स्वाध्याय भूमि ( वाचन-मनन के लिये एकान्त स्थान ) न हो, मल-मूत्र के लिये जाने को योग्य स्थान न हो, सोने के लिये पाट, पीठ टेकने का पटिया, बिछौना, स्थान और निर्दोष श्राहार- पानी का सुभीता न हो और जहाँ अनेक श्रमण ब्राह्मण, भिखारी यादि आने से या आने वाले होने से बहुत भीड़ भाड़ होने के कारण जाना ग्राना, स्वाध्याय, ध्यान आदि में कठिनाई पड़ती हो तो उसमे भिक्षु चातुर्मास न करे परन्तु जहां ऐसा न हो वहां सावधानी से चातुर्मास करे | [ ११२]
वर्षाऋतु के चार मास पूरे होने पर और हेमन्तऋतु के भी पांच दस दिन बीत जाने पर भी, यदि रास्ते अधिक घास और जीवजंतु वाले हो, लोगो का ग्राना जाना शुरु न हुआ हो तो भिक्षु गांव-गाव विहार न करे पर रास्ते पर जीवजन्तु, घास कम हो गये
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विहार
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हो और लोगो का आना जाना भी शुरु हो गया हो तो वह सावधानी से विहार करना शुरु करदे । [११३]
किस प्रकार विहार करे ? भिक्षु चलते समय अपने सामने चार हाथ जमीन पर दृष्टि रखे। रास्ते में जीवजन्तु देख कर, उनको बचाते हुए पैर रखे। जीवजन्तु से रहित रास्ता यदि लम्बा हो तो उसी से जावे, जीवजन्तु वाले छोटे रास्ते से नहीं। [११४ ]
भिक्षु दूसरे गांव जाते समय मार्ग में गृहस्थ आदि से जोर से ___ बातें करता हुश्रा न चले । रास्ते में राहगिर मिले और पूछे कि 'यह · गांव या शहर कैसा है, वहाँ क्तिने घोड़े, हाथी, भिखारी या मनुष्य है; वहाँ आहार-पानी, मनुष्य, धान्य श्रादि कम या अधिक हैं;' तो भिक्षु उसको कोई जवाब न दे। इसी प्रकार वह भी उससे ऐसा कुछ न पूछे। [ १२३, १२६]
जाते समय साथ में प्राचार्य, उपाध्याय या अपने से अधिक गुण सम्पन्न साधु हो तो इस प्रकार चले कि उनके हाथपैर से अपने हाथपैर न टकरावें, और रास्ते में राहगिर मिलें •और पूछे कि, 'तुम कौन हो? कहां जाते हो तो उसका जवाब खुद न देते हुए प्राचार्य श्रादि को देने दे और वे जवाब दे रहे हो तब वीच मे न बोले । [१२८]
रास्ते में कोई राहगिर मिले और पूछे कि, 'क्या तुमने रास्ते में अमुक मनुष्य, प्राणी या पक्षी देखा है, अमुक कंद, सूल या वनस्पति; या अग्नि, पानी या धान्य देखा है ? जो देखा हो, कहो,'-तो उसे कुछ न कहे या बतावे। उसके प्रश्न की उपेक्षा ही कर दे।
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श्राचाराग मूत्र
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और जानते हुए भी, मैं जानता है, ऐसा तक न कहे। हमी प्रकार किसी पड़ाव डाले हुए लार के सम्बन्ध मे कोई पूछे, या श्रागे कौनसा गांव श्रावेगा, यह पूछे, या अमुक गांव जाने का गम्ता कितना लम्बा है, यह पूछे तो इन सब प्रश्नों के सम्बन्ध में ऐसा ही करे। [१२६] ___ कीचड़, धूल से भरे हुए पैरों को साफ करने के विचार से चलने समय पैरो को इधर-उधर करके घास तोढते हुए, दबाते हुए न चले ! पहिले ही मालुम करके थोटी हरी वाले मार्ग पर ही सावधानी से चले । [१२५]
मार्ग में किला, खाई, कोट दरवाजा श्रादि उतरने के स्थान पडने हो, और दूसरा रास्ता हो तो इन छोटे रास्तों से भी न जाये। दूसरा रास्ता न होने के कारण उसीसे जाना पड़े तो झाड़, गुच्छ, गुल्म, लता, बेल, घास, झंझाइ श्रादिको पकड कर जाये या कोई राहगिर ना रहा हो तो उसकी सहायता मांग ले। इस प्रकार सावधानी से उतर कर आगे चले। [१५]
मार्ग में धान्य, गाडियाँ, रथ और देश या विदेश की सेना का पड़ाव . देसकर दूसरा रास्ता हो तो इस छोटे रास्ते से भी न जावे । दूसरा रास्ता न होने से उसी से जाना पड़े और सेना का कोई श्रादमी ग्राफर कहे कि, 'यह तो जासूम है, इसको पकड़ कर ले चलो,' तो वह भिक्षु उस समय व्याकुल हुए बिना, मन में श्राक्रोश लाये बिना अपने को एकाग्र रखकर समाहित करे। [१२५]
जिस मार्ग में सीमान्त के अनेक प्रकार के चोर, म्लेच्छ और प्रनार्य आदि के स्थान पडते हो या जहां के मनुष्यो को धर्म का भान कराना कठिन और अशक्य हो और जो मनुष्य अकाल में
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खाना-पीना, सोना आदि व्यवहार करते हो तो उस मार्ग पर अच्छे स्थान और प्रदेश होने पर भी न जावे। इसी प्रकार जिस मार्ग पर राजा बिना के, गणसत्तात्मक, छोटी अवस्था के राजा के, दो राजा के, किसी प्रकार के राज्य विना के, आपस में विरोधी स्थान पडते हो तो वह न जावे। इसका कारण यह कि संभव है वहां के मूर्ख लोग उसको चोर, जासूस या विरोधी पक्ष का समझ कर मारें, डरावे या उसके वस्त्र आदि छीनकर उनको फाड-तोड डालें । [११५११६]
विहार करते हुए रास्ता इतना ऊबड़-खावड बाजाय कि जो एक, दो, तीन, चार या पांच दिन में भी पार न हो सके तो उधर अच्छे स्थान होने पर भी न जाये क्योकि वीच में पानी बरसने से जीवजन्तु, हरी आदि पैदा होने के कारण रास्ते की जमीन सजीब हो जाती है।
मार्ग चलते समय किला, खाई, कोट, गुफा, पर्वत पर के घर (कूटागार), तलघर, वृक्षगृह, पर्वतगृह, पूजितवृत, स्तूप, सराय, या उद्यानगृह, आदि मकानो और भवनो को हाथ उठाकर या अंगुली बताकर देखे नही, पर सावधानी से सीधे मार्ग पर चले । इसी प्रकार जलाशय आदि के लिये समझे । इसका कारण यह कि ऐसा करने से वहां जो पशुपक्षी हो, वे, यह समझकर कि यह हमको मारेगा, डरकर व्यर्थ इधर-उधर दौडते है ।
मार्ग में सिंह श्रादि हिसक पशु को देखकर, उनसे डरकर मार्ग को न छोडे; वन, गहन आदि दुर्गम स्थानो मे न घुसे, पेड़ पर न चढ जावे, गहरे पानी में न कुद पडे, किसी प्रकार के हथियार श्रादि के शरण की इच्छा न करे। फिन्तु जरा भी घवराये बिना,
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शांति से संयम पूर्वक चलता रहे। यदि मार्ग में लुटेरों का झुंड मिल जाय तो भी ऐसा ही करे। लुटेरे पास श्राकर कपडे श्रादि मांगे चा निकाल देने को कहें तो वैसा न करे । इस पर ये बुद्र छीन लें तो फिर उनको नमस्कार, प्रार्थना करके न मागे, पर उपदेश देकर मांगे या मौन रहकर उस की उपेक्षा करटे । और, यदि चोरोने उसे मारापीटा हो तो उसे गाव या राजदरबार में न कहता फिरे, किसी को जाकर ऐसा न कहे, कि, 'हे श्रायुप्मान् ! इन चोरोंने मेरा ऐसा किया, वमा किया।' ऐसा कोई विचार तक मन में न करे। परन्तु व्याकुल हुए बिना शान्त रहकर सावधानी से चलता रहे। [१३१]
पानी को कैसे पार करे ? एक गांव से दूसरे गाव जाते समय मार्ग में कमर तक पानी हो तो पहिले सिर से पैर तक शरीर को जीवजन्तु देखर साफ करे, फिर एक पैर पानी में, एक पैर जमीन पर ( एक पानी में तो दूसरा ऊपर ऊंचा रखकर दोनों को एक साथ पानी में नहीं रखकर) रसकर सावधानी से अपने हाथ पैर एक दूसरे से न टकरावे, इस प्रकार चले।
पानी में चलते समय शरीरको ठंडक देने या गरमी मिटाने के विचार से गहरे पानी में जाकर गोता न लगाये पर समान पानी में ही होकर चलता रहे । उस पार पहुंचने पर शरीर गीला हो तो किनारे ही खड़ा रहे गीले शरीर को सुखाने के लिये उसे न पोछे, न रगड़े, न तपावे पर जब अपने श्राप पानी सूख जावे तो शरीर को पोछकर आगे बढे । [१२४]
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नाव में कैसे जावे ?
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मार्ग में इतना पानी हो कि नाव द्वारा ही सकता हो तो भिक्षु अपने लिये खरीदी हुई, मांग दल बदल की हुई, जमीन पर से पानी में लाई हुई, पानी में से जमीन पर लाई हुई, भरी हुई, खाली कराई हुई, कीचड़ में से बाहर निकाली हुई नाव में कदापि न बैठे, परन्तु यदि नाव को गृहस्थो ने अपने लिये पार जाने को तैयार कराई हो तो उस नाव को वैसी ही जान कर भिक्षु उन गृहस्थो की अनुमति लेने के बाद एकान्त मे चला जावे, और अपने वस्त्र, पात्र प्राडिको देखभाल कर तथा उनको एक ओर रखार सिर से पैर तक शरीर को पोछ कर साफ करे, फिर ( उस पार पहुंचने तक ) श्राहार- पानी का त्याग ( प्रत्याख्यान ) करके एक पैर पानी में एक ऊपर रखते हुए सावधानी से नाव पर चढे ( ११८ )
नाव पर चढकर भागे न वैटे, पीछे भी न बैठे और बीच मे भी न बैठे । नाव की बाजु पकडकर, अंगुली बताकर, ऊंचा - नीचा होकर कुछ न करे । यदि नाववाला ग्राकर उससे कहे कि, 'हे प्र युष्मान् । तू इस नाव को इधर खींच या धकेल, इस वस्तु को उस में डाल या रस्सा पकडकर खीच, तो वह उस तरफ ध्यान न दे । यदि वह वहे कि, 'तुझ से इतना न हो सक्ता हो तो नाव में से रस्सा निकाल कर दे दे जिससे हम खींच ले, तो भी वह ऐसा न करे। यदि वह कहे कि, 'तू डांड, बल्ली या बांस लेकर नाव को चला, ' तो भी वह कुछ न करे । यदि वह कहे कि, 'तू नाव में भराने वाले पानी को हाथ, पैर, वर्तन या पात्र से उलीच डाल,' तो भी वह कुछ न करे | वह कहे कि नाव के इस छेड को तेरे हाथ, पैर शादि से या वस्त्र, मिट्टी, कमलपत्र या कुरुविंड घास से बन्द कर रख,' तो भी
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वह कुछ न करे । छेद मे से पानी को श्राते देखकर या नाव को डगमगाते देखकर नाव वाले को जा कर ऐसा न कहे कि, 'यह पानी भरा रहा है, इसी प्रकार इस बात को मन में घोटना भी न रहे । परन्तु व्याकुल हुए बिना तथा चित्त को प्रशान्त न करके, अपने को एकाग्र करके समाहित करें। वह नाववाला थाकर उसे कहे कि, छत्र पकड़, यह शस्त्र पकड, इस लड़के लडकी को दूध या पानी पिला,' तो वह ऐसा न करे । इस पर चित्र कर कोई ऐसा वहे कि, यह भिन्तु
'ग्रह'
तो नाव पर बेकाम बोझा ही है इस लिये इसको पकड़ कर पानी मे डाल दो ।' यह सुनकर वह भिक्षु तुरन्त ही भारी कपड़े लग करके हलके कपड़े शरीर और मुँह से लपेट ले, और यदि चे क्रूर मनुष्य उसका हाथ पकड़कर पानी मे डालने यावें तो वह उनको कहे कि, 'ग्रायुष्यमान गृहस्थ । हाथ पकड कर मुझे फेंकने की, जरूरत नहीं में तो खुद ही उतर जाता हूँ । इतने परभी वे उसको फेंक दें तो भी वह अपने चित्त को शान्त रखे, उनका सामना न करे परन्तु व्याकुल हुए विना सावधानी से उस पानी को तैरकर पार कर जावे ( १२०-१२१ ).
भिक्षु पानी में तैरते समय हाथ-पैर आदि न उछाले, गोते न खावे, क्योकि, ऐसा करने से पानी नाक-कान मे जाकर यों ही नष्ट होता है । भिक्षु पानी में तैरते थक जाय ते वह अपने सब या कुछ कपड़े अलग करदे, उनसे बंधा न रहे । किनारे पर पहुंचने पर शरीर को पूछे, रगडे या तपाचे नहीं, पर पानी के अपने श्राप सूखने पर उसको पोछ कर आगे चले ।
भिक्षु और भिक्षुणी के प्राचार की यही सम्पूर्णता है कि सब विषयो में सदा राग द्वेष रहित होकर अपने कल्याण में तत्पर रह कर सावधानी से प्रवृत्ति करे ।
श्राचाराग सूत्र
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चौथा अध्ययन
-(०)भापा
___ भापा के निम्न प्रयोग अनाचार रूप है, इनका सत्पुरुषो ने पाचरण नहीं किया। भिक्षु भी इन को समझ कर आचरण न करे। वे हैक्रोध, मान, माया, लोभ से बोलना, जान बुझ कर कठोर बोलना, अनजाने कठोर बोलना आदि। विवेकी इन सब दोपमय भापा के प्रयोगो का त्याग करे।
भिक्षु (जाने विना या निश्चय हुए बिना) निश्चय रूप से नहीं बोले; जैसे कि यही ठीक है या यह ठीक नहीं है, (अमुक साधु को) पाहार पानी मिलेगा ही या नहीं ही मिलेगा; वह उसे खा ही लेगा या नहीं ही खावेगा, अमुक पाया है ही या नहीं ही पाया है। प्राता ही हैं या नहीं ही आता है, ग्रावेगा ही या नहीं ही श्रावेगा। भिक्षु जरूरत पड़ने पर विचार करके, विश्वास होने पर ही निश्चय रूप से कहे। [१३२]
एकवचन, द्विवचन, बहुवचन, स्त्रीलिंग, पुरुषलिंग, नपुंसकलिग, उतम पुरुष, मध्यम पुरुप, अन्य पुरुष, मध्यम-ग्रन्य मिश्रित पुरुप, अन्य-मभ्यम मिश्रित पुरुष, भूतकाल, वर्तमानकाल, भविष्यकाल, प्रत्यक्ष और परोक्ष, इन सोलह प्रकार में से किसी का उपयोग करते समय विचारपूर्वक, विश्वास होने पर ही, सावधानी से, संयमपूर्वक उपरोक्त दोप टाल कर ही बोले । [ १३२ ]
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१०२]
চাষাবা ।
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भितु भाषा के इन चार मेदों को जान-प्य, शमा, बुन्द्र सत्य कुछ असत्य, न सन्य शौर न शपय । [३२]
इन चारों प्रकार की भाषाओं में से जो कोई मर, कम्य कराने वाली, कश, कडवी, निटर, कोर, अनर्थकारी, जीमी का छेदन-भेटन और उनको श्रावात परिताप काने वाली हो, उसे जान कर न बोले । परन्तु जो भापा सन्य, सूचन ( ऊपर से श्रवन्य जान पड़ती है, पर वास्तव में सत्य होती है) न सग्य या न श्रमस्य और उपरोक्त दोषो से रहित हो, उनी को जानकर बोले । [१३३ ]
भिनु किमी को बुलाता हो और यदि नह न सुने तो उसको श्रवज्ञा से चांडाल, कुत्ता, चोर, दुराचारी, मूत्रा प्रादि सम्बोधन न करे, उसके माता पिता के लिये भी ये शब्द न कहे, परन्तु ' हे अमुक, हे श्रायुप्मान् , हे श्रावक, हे उपासक है धार्मिक, हे धर्मप्रिय, ऐसे शब्द से सम्बोधन करे, मी को सम्बोधन करने समय भी ऐसा ही करे। [१३४]
भिक्षु अाकाश, गर्जना गोर विजली को देव न कहे। इसी प्रकार देव वरमा, देव ने वर्षा बन्द की, अादि भी न कहे। और वर्षा हो या न हो, सूर्य उदय हो या न हो, राजा जीते या न जीते, भी न कहे। श्राकाश के लिये कुछ कहना हो तो नभादेव या ऐसा ही कुछ कहने के बदले में अंतरित' कहे। देव बरसा ऐसा कहने के बदले यह कहे कि बादन इकटे हुए, या बरसे । [१३५]
भिक्षु या भिक्षुणी हीन रूप देखकर उसको वैया ही न कहे । जैसे, सूजे हुए पैर वाले को 'हाथीपग्गा' न कहे, कोढ वाले को 'कोठी, न कहे, अादि । संक्षेप में, जिसके कहने पर सामने वाला मनुष्य नाराज हो, ऐसी भापा जान कर न बोले ।
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[ १०३
भिक्षु उत्तम रूप देखकर उनको वैसा ही कहे । जैसे, तेजस्वी श्रादि । संक्षेप में, जिसके कहने पर सामने वाला मनुष्य नाराज न हो, ऐसी भाषा जान कर बोले ।
भिक्षु कोट, किला, घर आदिको देखकर ऐसा न कहे कि यह सुन्दर बनाया है या कल्याणकारी है । परन्तु जरूरत पड़ने पर ऐसा कहे कि, यह हिसापूर्वक बांधा गया है, दोपपूर्वक बांधा गया है, प्रयत्नपूर्वक बांधा गया है । अथवा दर्शनीय को दर्शनीय और बेडोल को बेडोल कहे । [ १३६ ]
इसी प्रकार तैयार किये हुए आहार -पानी के सम्बन्ध में समझे । [ १३७ ]
भिक्षु किसी जवान और पुट प्राणी- पशु-पक्षी को देखकर ऐसा न कहे कि, यह हृष्टपुष्ट, चरवी युक्त, गोलमटोल, काटने योग्य या पकाने योग्य है परन्तु जरूरत पड़ने पर ऐसा कहे कि इसका शरीर भरा हुआ है, इसका शरीर मजबूत है, यह मांस से भरा हुआ है अथवा यह पूर्ण अंग वाला है
1
भिक्षु गाय, बैल आदि को देखकर ऐसा न कहे कि यह दोहने योग्य है, फिराने योग्य है, या गाडी में जोतने योग्य है पर ऐसा कहे कि यह गाय दूध देने वाली है, जवान है और बैल बड़ा या छोटा है ।
भिक्षु बाग, पर्वत या वन मे बड़े पेड़ श्रादि देखकर ऐसा न कहे कि, यह महल बनाने के काम के हैं, दरवाजे बनाने के काम के हैं या घर, अर्गला, हल, गाड़ी आदि बनाने के काम के हैं। पर ऐसा कहे कि, योग्य जाति के हैं, ऊंचे है, मोटे हैं, वेडोल या दर्शनीय है ।
अनेक शाखा वाले है,
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१०४]
याचाराग सूत्र
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___ इसी प्रकार वृक्षो मे फल लगे देखकर ऐसा न कहे कि ये फल पके हैं, या पका कर खाने योग्य हैं या अभी खाने योग्य हैं, नरम हैं या टुकड़े करने योग्य है । परन्तु उन वृक्षो को देखकर ऐसा कहे कि, फल के भार से यह बहुत झुक गये है, उनमें बहुत से फल लगे हैं या फला का रंग अच्छा है।
भिनु खेतो में धान्य खड़ा देखकर ऐसा न कहे कि वह पक गया है, या हरा है या सेफने योग्य है या धानी फोड़ने के योग्य है । पर ऐसा कहे कि, वह ऊगा हुआ है, बढा हुआ है, सरत हो गया है, रस भरा है, उसमें दाने लग गये है या लग रहे हैं । [१३८]
भिनु अनेक प्रकार के शब्द सुन कर ऐसा न कहे कि, यह अच्छा या बुरा है परन्तु उसका स्वरूप बताने के लिये सुशब्द को सुशब्द और दुःशब्द को दु शब्द कहे । ऐसा ही रूप, गन्ध और रस के सम्बन्ध मे भी करे। [१३६ ]
भिक्षु क्रोध, मान, माया और लोभ का त्याग करके विचारपूर्वक विश्वास करके ही वोले, जैसा सुने, वैसा ही कहे; तथा घबराये विना, विवेक से, समभाव पूर्वक, सावधानी से बोले । [१४० ]
मिनु या मिषुणी के प्राचार की यही सम्पूर्णता है कि वह सब विपयो मे सदा रागद्वेपरहित और अपने कल्याण में तत्पर रह कर सावधानी से प्रवृत्ति करे।
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पांचवां अध्ययन
वस्त्र EER
भिक्षु या भिक्षुणी को वस्त्र की जरूरत पड़ने पर वह उन, रेशम सन, ताडपन्न आदि, कपास या रेशे के बने वस्त्र मागे । जो भिक्षु बलवान, निरोगी और मजबूत हो, वह एक ही वस्त्र पहिने, भिक्षुणी (साध्वी) चार वस्त्र पहिने, एक दो हाथ का, दो तीन हाथ के और एक चार हाथ का । इतनी लम्बाई वाले न मिले तो जोडकर बना ले । [१४]
भिक्षु या भिक्षुणी वस्त्र मांगने के लिये दो कोस से दूर जाने की इच्छा न करे । [ १४२]
जिस वस्त्र को गृहस्थ ने एक या अनेक सहधर्मी भितु या भिक्षुणी के लिये या खास संरया के श्रमणब्राह्मण आदि के लिये हिसा करके तैयार किया हो, खरीदा हो (खण्ड २ रे के अ० १ ले के सूत्र ६-८, पृष्ट ७६ में पिंडैपणा के विशेषण के अनुसार) उस वस्त्र को सदोप जानकर न ले।
और जिस वस्त्र को खास सस्या के श्रमणब्राह्मण के लिये नहीं पर चाहे जिस के लिये ऊपर लिखे अनुसार तैयार कराया हो और उसको पहिले किसी ने अपना समझ कर काम से न लिया हो तो भिन्नु उसको सदोष जानकर न ले; पर यदि उसको दूसरो ने अपना समझ कर पहिले काम में लिया हो उसको नि:प समझ कर ले ले । [१४३]
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१०६ ]
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श्राचागंग सूत्र
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इसी प्रकार जो वस्त्र गृहस्थने भिनु के लिये खरीदा हो, धोया हो, रंगा हो, सुगंधी पदार्थ और उकाले में मसलकर साफ किया हो, धूप से सुवासित किया हो तो उसको जब तक दूसरो ने अपना समझ कर काम में न लिया हो तब तक वह न ले । परन्तु दूसरो ने अपना समझ कर उसको काम में लिया हो तो वह ले ले । [ १४४ ]
भिक्षु बहुत मूल्य के या दर्शनीय वस्त्र मिले तो भी न ले । [ १४५ ] उपरोक्त दोप टाल कर, भिक्षु नीचे के चार नियमो में से किसी एक नियम के अनुसार वस्त्र मांगे
१ ऊनी, सूती चाटि में से किसी एक तरह का निश्चित करके उसी को खुद मांगे या कोई दे तो ले ले।
२ अपनी जरूरत का वस्त्र गृहस्थ के यहां देखकर मांगे या दे तो ले ले ।
३ गृहस्थ जिस वस्त्र को भीतर या ऊपर पहिनकर काम से ले चुका हो, उसी को मांगे या दे तो ले ले ।
४ फेंक देने योग्य, जिसको कोई भिखारी या याचक लेना न चाहे ऐसा ही वस्त्र मागे या दे तो ले ले ।
इन चारों में से एक नियम के अनुसार चलने वाला ऐसा कभी न समझे कि मैंने ही सच्चा नियम लिया है और दूसरे सब ने झूठा ( श्रागे खण्ड २ रे के श्र. १ ले के सूत्र ६३, पृष्ट ३ के अनुसार ) ।
इन नियमों के अनुसार वख मांगते समय भिक्षु को गृहस्थ यदि ऐसा कहे कि, 'तुम महिने के वाद या दस, पांच दिन बाद या कल या परसो आग्रो, मैं तुमको वस्र दूंगा,' तो भिक्षु उसे कहे कि, 'हे श्रायुष्मान् ! मुझे यह स्वीकार नहीं है । इन किये तुम्हें
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वस्त्र
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टेना हो तो अभी दे दो।' इस पर वह कहे कि, 'थोडी देर बाद ही तुम ग्रामोतो भी वह इसे स्वीकार न करे । यह सुनकर वह गृहस्थ घर मे किमी से कहे कि, 'हे भाई या बहिन, अमुक वस्त्र लामो, उस वस्त्र को हम भिक्षु को दें, और अपने लिये दूसरा लावेंगे ।' तो ऐसा वस्त्र सदोष जानकर भिक्षु न ले ।
अथवा वह गृहस्थ अपने घर के मनुष्य से ऐमा कहे कि, 'अमुक वस्त्र लायो, हम उसको सुगन्धी पढार्य या उकाले से घिस कर साफ़ करके या सुगन्धित करके भिक्षु को दें, या ठंडे अथवा गरम पानी से धोकर दें, या उसमें के कंद, शाक भाजी आदि निकाल कर दें; तो भिन्नु सुरन्त ही उसे कह दे कि, 'हे आयुग्मान् , तुम्हें देना ही हो तो ऐसा क्येि बिना ही दो।' इतने पर भी गृहस्थ उसे वैसा करके ही देने लगे तो वह उसे सढोप जानकर न ले।
गृहस्थ भिक्षु को कोई वस्त्र देने लगे तो भिक्षु उसे कहे कि 'हे श्रायुप्मान् , मैं एक बार तुम्हारे वस्त्र को चारो तरफ से देख लू , बिना देखे भाले वस्त्र को लेने में अनेक दोष है। कारण यह कि इस वस्त्र में, साभव है, कोई कुंडल, हार श्रादि आभूपण या वीज, धान्य आदि कोई सचित्त वस्तु बंधी हो। इस लिये पहिले ही से देख कर वस्त्र ले । [१४६]
जो वस्त्र जीवजन्तु से युक्त जान पडे, भिक्षु उसे न ले । यदि वस्त्र जीवजन्तु से रहित हो पर पूरा न हो, जीर्ण हो, थोड़े समय के लिये दिया हो, पहिनने योग्य न हो और किसी तरह चाहने योग्य न हो तो भी उसको न ले । परन्तु जो वस्त्र जीवजन्तु से रहित, पूरा, मजवृत, हमेशा के लिये दे दिया हुआ, पहिनने यो'य हो, उसे निर्दोष जानकर ले ले ।
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१०८]
याचागंग सूत्र
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भिक्षु, ऐसा समझकर कि वस्न नया नहीं है, दुर्गन्ध से भरा हुआ है; उनको सुगन्धी पहार्य उकाले या टडे या गरम पानी मे धोवे या साफ न करे। [१४७]
भिक्षु को दस को धूप में सुखाने की जरूरत पडे नो वह उनको गीली या जीवजन्तु बाली जमीन पर न डाले। इसी प्रकार उनकी जमीन से ऊपर की वस्तु यो पर जो इधर-उधर हिलनी हो, पर भी न डाले और कोट, भीत, शिला, ठेले, खम्भे, खाट, मंजिस्न या छत' अादि जमीन से ऊपर भी या हिलने वाली जगह पर भी न डाले। परन्तु वस्त्र को एकान्त में ले जाकर वहाँ जली हुई जमीन यादि चिना जीवजन्तु के स्थान पर देख भालकर माफ करके डाले। [१४८]
भित्तु, ऐसे ही वस्त्र मांगे जिनको वह स्वीकार कर सकता हो और जैसे मिले वैसे ही पहिने। उनको धोवे या गे नहीं, गौर धोये हुये या रंगे हुए वस्त्र न पहिने, दूसरे गांव जाते हुए उनको कोई छीन लेगा, इस डर से न छिपावे, यौर ऐसे ही वस्त्र धारण करे जिनको छीनने का मन किसीका न हो। यह वस्त्र धारी भिक्षु का सम्पूर्ण श्राचार है।
गृहस्थ के घर जाते समय अपने वसा साथ में लेकर ही जाचेआवे । ऐमा ही शौच या स्वाध्याय करने जाते समय करे । परन्तु वर्षा ग्रादि के समय बस्स साथ में लेकर न जावे-यावे । [ १४६]
कोई भिक्षु दूसरे गांव जाते समय, कुछ समय के लिये किसी भिक्षु से मांग कर वस्त्र ले ग्रावे और फिर वापिस पाने पर उस वस्त्र को उसके मालिक को देने लगे तो वह उसको वापिस न ले या लेकर दूसरे को न दे दे, या किमी का मांग कर न दे
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चत्र
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[ १०६
ऐसा
दूसरे गाय से लौटने पर
या उसका बदला न करे या दूसरे को जा कर ऐसा न केहे कि, 'हे ग्रायुत्मान्, क्या तुझे यह वस्त्र चाहिये ?' और, यदि वह मजबूत हो तो उसे फाड़ न फैके परन्तु काम में लिये हुए उस वस्त्र को मागकर ले जाने वाले को ही दे दे खुद काम में न ले । भिक्षुयो का ऐसा श्राचार सुन कर कोई भिन्तु विचार करे कि, मै थोडे समय के लिये वस्त्र मांग लू और फिर उसे वापिस दूगा तो वह नहीं लेगा तो वह मेरा ही हो जायगा - इसमें उसको दोप लगता है । इसलिये वह ऐसा न करे । [ १५८ ] विवर्ण न करे और विवर्ण को वर्णयुक्त न करे; दूसरा प्राप्त करने की इच्छा से अपना वस्त्र दूसरो को न दे दे, फिर लोटाने के लिये दूसरे से वस्त्र न ले, उसका बदला न करे, अपना वस्त्र देने की इच्छा से दूसरो से ऐसा न कहे कि, 'तुमको यह वस्त्र चाहिये ? " दूसरो को अच्छा न लगता हो तो मजबूत कपडे फाड़ न कैके । मार्ग में कोई लुटेरा मिल जाय तो उससे अपने वस्त्र बचाने के लिये भिक्षु उन्मार्ग पर न चला जावे, प्रमुक मार्ग पर लुटेरे बसते है ऐसा जानकर दूसरे मार्ग न चला जावे, सामने थाकर वे मागे तो उन्हें दे न डाले, परन्तु - २ रे खण्ड के ३ रे अन्य के सूत्र १३१, पृष्ट १८ के अनुसार करे । [ १५१ ]
भिनु वरीयुक्त वस्त्रको
भिनु या भिक्षुणी के श्राचार की यही सम्पूर्णता है ।. 'भाषा' अध्ययन के ग्रन्त- पृष्ट १०४ के अनुसार |
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छठा अध्ययन
पात्र
a भिक्षु या भिक्षुणी को पात्र की जरूरत पड़े तो वह तूंनी. लकड़ी, मिट्टी, या इसी प्रकार का कोई पात्र मांगे। अदि कोई भिक्षु बलवान, निरोगी और मजबूत हो तो एक ही पात्र रखे, दो नहीं।
पात्र मांगने के लिये वह दो कोस से दूर जाने की इच्छा न करे।
जिस पान को गहन्थने एक या अनेक सहधर्मी भिनु या भिक्षुणी के लिये जीवो की हिसा करके तैयार किया हो . (वस्य अध्ययन के सूत्र १४३, पृष्ट १०५ के अनुसार) तो उसे सदोष समझ कर न ले।
भिक्षु, बहुमूल्य और दर्शनीय पात्र मिलने पर भी न ले।
उपरोक्त दीप टालकर, भिनु नीचे के चार नियमो में से एक नियम के अनुसार पात्र मांगे
१ नबी, लकड़ी, मिट्टी ग्रादि के पात्र में से एक तरह का निश्चय करके, उसी का पात्र मागे था कोई दे तो ले ले।
२. अपनी जरूरत का पात्र गृहस्थ के यहां देव कर मांगे या कोई दे तो ले ले।
३ गहस्थ ने काम में ले लिये हो या काम में ले रहा हो ऐसे दो-तीन पात्र में से एक को मांगे या कोई दे तो ले ले।
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४. फेंक देने योग्य जिसको कोई भिखारी याचक लेना म चाहे ऐसा ही पात्र मागे या कोई दे तो ले ले ।
पात्र
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इनमें से कोई एक नियम लेने वाला दूसरे की अवहेलना न करे (भिक्षा अध्ययन के सूत्र ०३, पृष्ट ८३ के अनुसार ) |
इन नियमो के अनुसार पात्र मांगने जाने वास्ते भिनु को गृहस्थ देने का वचन - म्यान दे अथवा पात्र तेल, घी आदि लगाकर या सुगन्धित पदार्थ, ठंडे या गरम पानी से साफ करके दे तो ( वस्त्र अन्ययन के सूत्र १४६, पृष्ट १०६ के अनुसार ) उसको सदोप जान कर न ले ।
यदि गृहस्थ भिक्षुको कहे कि, 'तुम थोडी देर ठहरो, हम भोजन तैयार करके पात्र में श्राहार भर कर तुमको देंगे, भिक्षु को खाली पात्र देना योग्य नहीं है ।' इस पर भिक्षु पहिले ही मना कर दे और इतने पर भी गृहस्थ वैसा करके ही देने लगे तो वह न ले ।
गृहस्थ से पात्र लेने के पहिले भिन्तु उसे देख भाल ले; सम्भव है, उसमें जीव जन्तु, वनस्पति श्रादि हो ।
( आगे, वस्त्र अध्ययन के सूत्र १४७- १४८, पृष्ट १०७-१०८ के अनुसार सिर्फ सुखाने की जगह 'पात्र यदि तेल, घी आदि से भरा हो तो निर्जीव जमीन देख कर वहां उसे सावधानी से साफ़ कर ले,' ऐसा समझें 1 ) [१२]
गृहस्थ के घर भिक्षा लेने जाते समय पात्र को पहिले देख भाल कर साफ कर ले जिससे उसमें जीवजन्तु या धूल न रहे । [ १५३]
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११२]
अाचाराग सूट
गृहस्थ भिक्षु को ठंडा पानी लाकर देने लगे तो वह उसे सटोप जान कर न ले पर यदि अचानक अनजान में या जाय तो उसको फिर (गृहस्थ के बर्तन के) पानी में डाल दे, (बढि न डालने हे तो कुए आदि के पानी मे टाल दे) या गीली जमीन पर डाल दे ! ऐसा न हो सके तो पानी सहित उन पात्र को ही छोड़ दे।
भिक्षु अपने गीले पात्र को पोछे या तपाचे नहीं ।
भिक्षु गृहस्थ के घर भिक्षा लेने जाते समय पान साथ में ले जावे ...यादि वस्त्र अध्ययन के सूत्र १५०-१५१, पृष्ट १०८१०६ के अनुसार।
भिक्षु या भिक्षुणी के प्राचार की यही सम्पूर्णता है.. यादि भापा अध्ययन के अन्त-पृष्ट १०४ के अनुसार ।
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66
'प्रवज्या लेकर, में बिना घर-बार का, धन-धान्य पुत्र श्रादि से रहित, और दूसरो का दिया हुआ खाने वाला श्रमण होऊँगा और पापकर्म कभी नहीं करूँगा । हे भगवन् । दूसरो के दिये बिना किसी वस्तु को लेने का ( रखनेका ) प्रत्यारयान ( त्याग का नियम ) करता हूँ ।"
सातवाँ अध्ययन -(•)
अवग्रह
CHEES
ऐसा नियम लेने के बाद भिक्षु, जाने पर दूसरो के दिये बिना कोई से न करावे और कोई करता हो तो प्रवज्या लेने वाले भिक्षुग्रो के पात्र, दंड अनुमति लिये बिना और देखभाल किये न ले । [ १५५ ]
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भिक्षु, सराय यदि स्थान देख कर, वह स्थान अपने योग्य है या नहीं यह सोच कर फिर उसके मालिक या व्यवस्थापक से वहां ठहरने की ( शय्या अ ययन के सूत्र ६ - ६०, पृष्ठ के अनुसार ) श्रनुमति ले ।
राजधानी में
गाव नगर या वस्तु ग्रहण न करे, दूसरों ग्रनुमति न दे। अपने साथ यादि कोई भी वस्तु उनकी बिना, साफ किये बिना,
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श्रवग्रह का श्रर्य
अपनी वस्तु- -परिग्रह' और 'निवासस्थान' दोनों होते हैं, इस अत्ययन में दोनो के सम्बन्ध के नियमो की चर्चा है
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श्राचारांग सूत्र
११४ ]
स्थान मिलने के बाद, उस मकान से दूसरे श्रमण ब्राह्मण श्रादि पहिले से ठहरे हों, उनके पात्र आदि वस्तुएँ इधर-उधर न करे, वे ऊंघते हो तो न जगावे । संक्षेप में, उनको दुःखकारक या प्रतिकूल हो, ऐसा न करे । [ १६ ]
वहां अपने समान धर्मी या सहभोजी सदाचारी साधु श्रावें तो उनको अपना लाया हुआ थाहारपानी, पाट-पाटला बिछाने की वस्तुएँ श्रादि देने के लिये कहें, पर दूसरों के लाये हुए ग्राहार- पानी यदि के लिये बहुत प्राग्रह न करे । [३२६ - १७]
वहां गृहस्थ या उनके पुत्र ग्रादि के पास से सूई, उस्तरा, कान -सली या नेरनी श्रादि वस्तुएँ वापिस लौटाने का वचन देकर अपने लिये ही मांग लाया हो तो उनको दूसरो को न दे पर अपना काम पूरा होते ही उसे गृहस्थ के पास ले जाये, और पने खुले हाथ मे या जमीन पर रख कर, यह है, यह है,' ऐसा कहे; खुद उसके हाथ में न दे । [ १७ ]
८
किसी श्रमराई में ठहरा हो और ग्राम खाने की इच्छा हो जाय तो जीवजन्तु वाले ग्राम, और जिमको काटकर, टुकड़े करके निर्जीव न किया हो, न ले । जो ग्राम जीवजन्तु से रहित, चीरकर टुकड़े कर निर्जीव किया हुया हो, उसको ले ।
गन्ने के खेत या लहसुन के खेत में ठहरा हो तो भी ऐसा ही करे । [ १६० ]
भिक्षु उपरोक्त दोष टाल कर नीचे के सात नियमो मे से एक नियम के अनुसार स्थान को प्राप्त करे ।
१. सराय आदि स्थान देखकर वह स्थान अपने योग्य है या
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अवग्रह
[११५
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नहीं, यह सोच कर, उसके मालिक से पहिले बताये अनुसार अनुमति लेकर उसे प्राप्त करे ।
• मैं दूसरे भिक्षुओं के लिये स्थान मांगूंगा और दूसरे भिनुश्री के मांगे हुए स्थान में ठहरेगा।
३. मैं दूसरे भिक्षुयो के लिये स्थान मागूगा परन्तु दूसरो के मागे हुए स्थान मे नहीं ठहरूँगा ।
४. में दूसरों के लिये स्थान नहीं मांगंगा परन्तु दूसरे के मांगे हुए स्थान में ठहरूँगा।
५. मैं अपने अकेले के लिये स्थान मागंगा, दूसरे दो, तीन, चार, पाच के लिये नहीं। .
६ जिसके मकान में, मैं स्थान प्राप्त करूँगा, उससे ही घास श्रादि (शय्या अध्ययन के अनुमार) की शय्या माग लूंगा, नहीं तो ऊकटू या पालकी लगा कर बैठा-बैठा रात निकाल लूंगा ।
७ जिनके मकान में ठहरूंगा, उसके वहाँ पत्थर या लकड़ी की पटरी, जैसी भी मिल जाय, उमी पर सो रहूँगा, नहीं तो ऊकडू या पालकी लगा कर बैठा-बैठा रात निकाल दूंगा।
इन सातो में से एक नियम लेने वाला दूसरे की अवहेलना न करे . श्रादि भिक्षा अध्ययन के अन्त पृष्ट ८३ के अनुसार । [१६१]
भिवु या भिक्षुणी के प्राचार की यही सम्पूर्णता..... आदि भापा अन्ययन के अन्त-पृष्ट १०४ के अनुसार । [१६२]
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आठवाँ अध्ययन
-(0)
खड़ा रहने का स्थान *
भिक्षु या भिक्षुणी को खड़ा रहने के लिये स्थान की जरूरत पढ़े तो वह गांव, नगर या राजधानी में जाये । वह स्थान जीवजन्तु वाला हो तो उसको सदोष जानकर मिलने पर भी न ले. श्रध्ययन के सूत्र ६४ और ६५ - पृष्ट-८२ ८४ के कन्दमूल के वाक्य तक के अनुसार ।
. शय्या
भिक्षु इन सब दोषो को त्याग कर, नीचे के चार नियमो मे से एक के अनुसार खटा रहने का निश्चय करे----
५. ग्रचित्त स्थान पर खडा रहने, चित्त वस्तु का अवलम्बन लेने, हाथ-पैर फैलाने-सिकोड़ने और कुछ फिरने का नियम ले ।
२ फिरने को छोड़ कर, बाकी सब ऊपर लिखे अनुसार ही नियम ले ।
३. अवलम्वन किसी का होने को छोड़कर बाकी सब ऊपर लिखे अनुसार ही नियम ले ।
४ चित्त स्थान पर खड़ा रहने, अवलम्बन किसी का न लेने, हाथ पैर न फैलाने-सिकोड़ने, न फिरने का और शरीर, बाल
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घाट से चौदह तक के अध्ययन दूसरी चूड़ा है ।
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खडा रहने का स्थान
१७
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दाटी. रोम और नाग्वून का भाग त्याग कर (परिमित काल तक) बिना हिले-चले खड़ा रहने का नियम ले ।
इन चार्ग मे से एक नियम लेने वाला दूसरे की अवहेलना न करे ग्रादि भिता श्रव्ययन के अन्त-पृष्ट ८३ के अनुसार ।
भिक्षु या भिक्षुणी के प्राचार की यह। सम्पूर्णता है . आदि भाषा अध्ययन के अन्त-पृष्ट १०४ के अनुसार । [१६]
नौवाँ अध्ययन
--(०)निशीथिका-स्वाध्याय का स्थान
भिक्षु या भिक्षुणी को स्वाध्याय करने के लिये स्थान की जरूरत पडे तो गांव, नगर या राजधानी में जावे और जीवजन्तु से रहिन स्थान को ही स्वीकार करे . ..अादि शग्या अभ्ययन के सूत्र ६५ और ६५, पृष्ट ८४-८५ के कन्दमूल के वाक्य तक के अनुमार ।
वहा दो, तीन, चार या पांच भिक्षु स्वा:याय के लिये आवें तो वे सब आपस में एक-दूसरे के शरीर को ग्रालिंगन न करें, चुम्बन न करें, या दांत-नख न लगावें ।
भिक्षु या भिक्षुणी के ग्राचार की यही सम्पूर्णता है-श्रादि भाषा अध्ययन के अन्त-पृष्ट १०४ के अनुसार । [१६४]
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दसवाँ अध्ययन
-(0)
मलमूत्र का स्थान
भिन्नु या भिक्षुणी को मलमूत्र की शंका हो और उसके पास सरावला न हो तो अपने सहधर्मी से मांग ले; उसमें मल-मूत्र करके निर्जीव स्थान पर डाल दे |
जो स्थान गृहस्थ ने एक या अनेक सहधर्मी भिक्षु या भिक्षुणी के लिये तैयार किया हो ( वस्त्र ग्रन्ययन के सूत्र १४३ पृष्ट १०५ के अनुसार ) तो सदोप जान कर उसमें मल-मूत्र न करे । जिस स्थान को गृहस्थ ने भिक्षु के लिये तैयार किया या कराया हो, बरावर कराया हो, सुवाति कराया हो, वहाँ वह मलसूत्र न करे ।
जिस स्थान में से गृहस्थ या उसके पुत्र श्रादि कंद, मूल, वनस्पति आदि को इधर-उधर हटाते हो, उसमें भिक्षु मलमूत्र न करे ।
भिक्षु ऊंचे स्थानो पर मल-मूत्र न करे । भिन्तु जीवजन्तु वाली, गीली, धूल वाली, कच्ची मिट्टी वाली जमीन पर मलमूत्र न करे और सजीव शिला, ढेले, कीडे चाली लकड़ी पर या ऐसे ही सजीव स्थान में मलमूत्र न करे । [ १६६ ]
जिस स्थान पर गृहस्थ श्रादि ने कंदमूल, वनस्पति प्राडा हो, डालते ही या डालनेवाले हो, वहा भिक्षु मलमूत्र का त्याग न
करे |
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मलमूत्र का स्थान
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जिस स्थान पर गृहस्थ श्रादिने मूंग, उड़द, तिल्ली, कुलथी, जो आदि बोये हो, वहाँ भिनु मल-मत्र का त्याग न करे।
जही मनुष्यो के लिये भोजन बनता हो, या भैंस, पाड़े घोदे, क्बूतर आदि पशुपक्षी रखे जाते हो वहाँ भितु मलमुत्र का त्याग न बरे।
जिस स्थान पर मनुष्य क्सिी इच्छा से फासी लेते हों खुद को गीदडो से नुचवाते हो, पेड़ या पर्वत से गिरकर मरते हो, विष खाते हो, अग्निप्रवेश करते हो, वहाँ भिक्षु मलमूत्र का त्याग न करे ।
भिनु पाराम, उद्यान, वन, उपवन, देवमंदिर, सभागृह या प्याऊ आदि स्थानो पर मलमूत्र का त्याग न करे ।
भिक्षु किले के बुर्ज, किजे या नगर के मार्ग, दरवाजे और गोपुर आदि स्थानों पर मलमत्र का त्याग न करे ।
जहाँ तीन या चार रास्ते मिलते हो, वहाँ भिन्नु मलमूत्र का त्याग न करे।
निवाडा, चूने की भट्टी, श्मशान, स्तूप, देवमंदिर, नदी पर के तीर्य नदी किनारे के स्थान, तालाब के पवित्र स्थान, पानी-नाली, मिट्टी की नई खान, नया गोचर, खान या शाक पत्र, फूल, फल श्रादि के स्थान में भिक्षु मलमूत्र का त्याग न करे। [१६६]
भिक्षु अपना या दूसरे का पात्र लेकर, खुले बाडे में या स्थानक में एकान्त जगह पर, कोई देख न सके और जीवजन्तु से रहित स्थान पर जावे, वहां मलमूत्र करके, उस पात्र को लेकर खुले बाडे मे या जली हुई जमीन पर या ऐसी ही कोई निर्जीव जगह पर एकान्त में कोई देखे नहीं, वहां उसको सावधानी से ढाल श्रावे । [१६३]
भिक्षु या भिक्षुणी के प्राचार की यही सापूर्णता है... ..आदि भाषा अध्ययन के अन्त-पृष्ट १०४ के अनुसार ।
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ग्यारहवाँ अध्ययन --(०)
शब्द
CRS भिन्नु या भिघुणी चारी प्रकार (१. मरे हुए वाद्य-मृदंग श्रादि, २. तंतु वाद्य-नार आदि से खिंचे हुए बीणा आदि, ३. ताल वाद्य-माझ प्रादि, ४ शुपिरवाय-फंक से बनने वाले, शंख आदि) के वाद्यो के शब्द सुनने की इच्छा से कहीं न जावे । [१६]
भिन्नु या भिक्षुणी अनेक स्थानो पर होने वाले विविध प्रकार के शब्द सुनने कहीं न जावे ।
भिक्षु पाड़े, बैल, हाथी या कपिजल पक्षी की लड़ाई के शब्द सुनकर वहाँ न जावे। वर कन्या के लग्नमंडप या कथा मंडप में भी न जाये इसी प्रकार हाथी घोड़े श्रादि की वाजीम या जहा नाचगान की धूम मची हो, वहाँ भिन्नु न जावे। [१६९]
जहाँ खींचतान मची हो, लहाई झगडे हो रहे हो या दो राज्यो के वीच झगड़ा हो, वहाँ न जावे।
लकड़ी को सजाकर, घोड़े पर बैठाकर उसके आसपास होकर लोग जा रहे हो या किसी पुरुष को मृत्युदंड देने को वधस्थान पर ले जा रहे हो तो वहाँ न जावे ।
जहा अनेक गाड़ियां, रथ अथवा ग्लेच्छ या सीमान्त लोगो के मुंड हो या मेले हो, वहाँ भी न जावे ।
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तेरहवाँ अध्ययन
-(.)पर क्रिया
भिक्षु अपने सम्बन्ध में गृहस्थो द्वारा की हुई निम्न कर्मबन्ध करनेवाती क्रियानों की इच्छा न करे और वे करते हो तो स्वीकार न करे। ( उनका नियमन-प्रतिरोध न करे)
जैसे-कोई गृहस्थ भिक्षु के पैर पोछे, दावे; उनके ऊपर हाय फेरे; उनको रंगे, उनको तेल, घी अन्य पदार्थ से मसले या उन पर चुपड़े, पैरो को लोध्र, कल्क चूर्ण या रंग लगावे; उनको उंडे या गरम पानी से धोये; उन पर किसी वस्तु का लेप करे या धूप दे, पैर में से कील या कांटा निकाल डाले; उनमें से पीप, लोही आदि निकाल कर अच्छा करे, तो वह उसकी इच्छा न करे और न उसको स्वीकार करे ।
इसी प्रकार शरीरके सम्बन्ध में और उसके घाव फोडे, उपांश भगंदर आदि के सम्बन्ध में भी समझे ।
कोई गृहस्थ भिक्षु का पसीना, भैल या आंख कान और नाखून का मैल साफ करे. या कोई उसके बाल, रोम अथवा भौं, बगल या गुह्यप्रदेश के बाल लम्बे देखकर काट डाले, या छोटे करे, तो वह इच्छा न करे और न उसको स्वीकार करे।
कोई गृहस्थ भिक्षु के सिर से जू, लीख बीने; उसको गोद या पलंग में सुलावे, उसके पैर आदि दावे-मसले, हार, अर्धहार,
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( भगवान महावीर ने दिया है, उसको कहने के यहां दिया है ।)
पन्द्रहवाँ अध्ययन
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भगवान् महावीर के जीवन काल की पांच मुख्य घटनाओ में पांचो के समय उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र था -- देवलोक से ब्राह्मणी माता के गर्भ में श्राये तब ब्राह्मणी माता के गर्भ से क्षत्रियाणी माता के गर्भ में संक्रमण हुआ तव, जन्म के समय, प्रवज्या के समय और केवलज्ञान के समय । मात्र भगवान् का निर्वाण ही स्वाति नक्षत्र में हुआ । [ १३५ ]
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भगवान्, इस युग - अवसर्पिणी के
पहिले तीन अरे (भाग) बीत जाने पर और चौथे के मात्र ७५ वर्ष और साढ़े नौ मास बाकी थे तब, ग्रीष्म के चौथे महिने से, थाठवें पक्ष में, थापाढ शुक्ला ६ठ को, उत्तराफाल्गुणी नक्षत्र में, दसवें देवलोक के अपने पुष्पोत्तर विमान मे अपना देव आयुष्य पूरा करके, जंबुद्वीप में, भरत क्षेत्र के दक्षिणार्ध में कुंडग्राम के ब्राह्मण विभाग में कोडालगोत्रीय ऋषभदत्त ब्राह्मण की पत्नी जलंधरायण गोत्र की देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षी मे सिंह के बच्चे के समान श्रवतीर्ण हुए।
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भावनाएँ।
६८०
(3)
पांच महाव्रतो की भावनाओ का जो उपदेश लिये पहिले भगवान का जीवन-चरित्र
यह अन्ययन तीसरी चूड़ा है ।
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भावनाएं
[१०५
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फिर (गकेन्द्र की शाज्ञा से उसकी पैदल सेना के अधिपति हरिणगमेमि ) देवने (नीर्यकर, नत्रियाणी की कुक्षी से ही जन्म लेते है ) ऐसा याचार है, यह मानकर, वर्षाऋतु के तीसरे माम में, पांचवें पक्ष में, अाश्विन कृष्णा प्रयोदशी को, ८२ दिन बीतने के बाद ८३ वें दिन कुंडग्राम के दक्षिण में ब्राह्मण, विभाग में सेभगवान् महावीर के गर्भ को लेकर, कुंदग्रामके उत्तर में नत्रिय-विभाग में, ज्ञानृवंशीय क्षत्रियों में काश्यपगोत्रीय सिद्वार्य की पत्नी वसिष्ठ गोतवाली त्रिशला क्षत्रियाणी की कुबी में, अशुभ परमाणु निकाल कर, उनके स्थान पर शुभ परमागु डाल कर रख दिया। और जो गर्भ निगला जत्रियाणी को था, उसको देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षी में रग्ब दिया ।
नौ मास और साटे मात दिन बीतने के बाद, निगला क्षत्रियाणी ने ग्रीम के पहिले महिने में, दूसरे पन में, चैत्र शुका बयोदी को श्रमण भगवान् महावीर को कुशलपूर्वक जन्म दिया। उसी गत को देव-देवियो ने अमृत, गंध, चूर्ण, पुष्प और रत्नों की बड़ी वृष्टि की, और भगवान का अभिषेक, तिलक रक्षाबन्धन श्रादि किया।
जब से भगवान् त्रिशला क्षत्रियाणी की कुती में आये, तब से उनका कुल वन-धान्य, सोना-चांदी, रत्न श्रादि से बहुत वृद्धि को प्राप्त होने लगा। यह बात उनके माता-पिता के न्यान में आते ही, उन्होंने दम दिन बीत जाने और अशुचि दूर हो जाने पर, बहुतमा भोजन तैयार कराके अपने सगे-सम्बन्धियों को निमन्त्रण दिया, उन को और याचको को ग्विला-पिलाकर सबको भगवान् महावीर के गर्भ में पाने के बाद से कुल की वृद्धि होने की बात कही, कुमार का नाम 'वर्वमान' रखा।
__ भगवान् महावीर के लिये पांच दाइया रखी गई थी, दूध पिलाने वाली, म्नान कराने वाली, कपटेलते पहिनाने वाली, खेलाने
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१२६]
याचारांग सूट
वाली, और गोद में रखने वाली। इन पांचो दाइयों से घिरे हुए, एक गोद मे से दूसरी की गोद में जाते रहने वाले भगवान्, पर्वत भी गुफा में रहे हुए चपक वृक्ष के समान अपने पिताके रम्य महल मे वृद्धि को प्राप्त होने लगे।
वाल्यावस्था पूरी होने पर, सर्वकलाकुशाल भगवान् महावीर अनुत्सुकता से पांच प्रकार के उत्तम मानुपिक काम भोग भोगते हुए रहने लगे।
भगवान् के नाम तीन थे-माता-पिता का रखा हुया नाम, 'वर्धमान', अपने वैराग्य आदि सहज गुणो से प्राप्त, 'श्रमण' और अनेक उपसर्ग परिपह सहन करने के कारण देवो का रखा हुआ नाम, 'श्रमण भगवान् महावीर ।'
भगवान् के पिता के भी तीन नाम थे, सिद्धार्थ, श्रेयास, और जयस (यशस्वी) ? माता के भी त्रिशला, विदेहदिन्ना और प्रियकारिणी नीन नाम थे। भगवान के काका का नाम सुपार्श्व था। बड़े भाई का नाम नंदिवर्धन और बड़ी बहिन का नाम सुदर्शना था।
भगवान् की पत्नी यशोदा कौटिल्य गोत्र की थी। उनकी पुत्री के दो नाम थे-अनवद्या और प्रियदर्शना । भगवान की दोहिती कौशिक गोत्र की थी, उसके भी दो नाम थे-शेपवती और यशोमती । [१७७]
भगवान के माता पिता पार्श्वनाथ की परम्परा के श्रमणो के अनुयायी ( उपासक) थे। उन्होने बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक के प्राचार पालकर अन्त में छ काय जीवो की रक्षा के लिये श्राहार पानी
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भावनाएं
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का त्याग (अपश्चिम मारणांतिक मलेग्यना) करके देहत्याग किया । तब चे अच्युतकल्प नामक बारहवें स्वर्ग मे देव हुए । वहा से चे महाविदेह क्षेत्र में जाकर अन्तिम उछास के समय मिन्द, बुद्ध और मुक्त होकर निवार्ण को प्राप्त होगे, और सब दुमो का अन्त करेंगे। [19]
भगवान् महावीर ने नीस वर्ष गृहस्थाश्रम में रह कर अपने मात पिता का देहान्त होने पर अपनी प्रतिज्ञा (माता-पिता के देहान्त होने पर प्रव्रज्या लेने कने) पूरी करने का समय जानकर अपना धन-धान्य, सोना-चांदी रत्न श्रादि याचको को दान देकर, हेमन्त ऋतु के पहिले पन में, मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी को प्रवज्या लेनेका निश्चय किया
भगगन , सूर्योदय के समय से दूसरे दिन तक एक करोड और प्राट नाख सौनया (मुहर) दान देते थे। इस प्रकार पूरे एक वर्ष तक भगवान ने तीन अरब, अठासी करोड़ और अस्सी लाख सोने की मुहरें दान में दो। यह सब धन इन्द्र की श्राज्ञा से वैधमण (कुधेर देव) और उसके देव महावीर को पूरा करते थे।
पन्द्रह कर्मभूमि में ही उत्पन्न होने वाले तीर्थंकर को जब दीक्षा लने का समय निकट श्राता है, तब पांचवें कल्प ब्रह्मलोक में काली रेखा के विमानों में रहने वाले लोकातिक देव उनको श्राकर कहते है --'हे भगवान् । मकल जीवों के हित कारक धर्मतीथं की श्राप स्थापना करें 1 ' इसी के अनुसार २६ ये वर्ष उन देवो ने ग्राकर भगवान् से ऐसी प्रार्थना की ।।
वार्षिक दान पूरा होने पर, तीसवें वर्ष में भगवान् ने दीक्षा लेने की तैयारी की। उस समय, सब देव-देवी अपनी समस्त
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याचारांग सूत्र
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समृद्धि के साथ अपने विमानों में बैठकर कुंडग्राम के उत्तर में क्षत्रियविभाग के ईशान्य में श्रा पहुंचे।
हेमन्त ऋतु के पहिले महिने में, प्रथम पक्ष में, मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी को सुव्रत नामक दिन को, विजय महूर्त में, उत्तगफाल्गुनी नक्षत्र में, छाया पूर्व की और पुरुपाकार लम्बी होने पर भगवान् को शुद्ध जल से स्नान कराया गया और उत्तम सफेढ बारीक दो वस्त्र और प्राभूपण पहिनाये गये । बादमें उनके लिये चन्द्रप्रभा नामक बडी सुशोभित पालकी लाई गई, उसमें भगवान् निर्मल शुभ मनोभाव से विराजे। उस समय उन्होंने एक ही वस्त्र धारण किया था। फिर उनको धूमधाम से गाते बजाते गांव के बाहर ज्ञातृवंशी क्षत्रियो के उद्यान में ले गये।
उद्यान में श्राकर, भगवान् ने पूर्वाभिमुख बैठ कर सब अाभूपण उतार डाले और पांच मुटियो में, दाहिने हाथ से दाहिने ओर के और बांये हाथ से बायीं ओर के सब बाल उखाड डाले। फिर सिद्ध को नमस्कार करके, ‘ागे से मैं कोई पाप नहीं करूंगा,' यह नियम लेकर सामायिक चारित्र का स्वीकार किया। यह सब देव और मनुष्य चित्रवत् स्तब्ध होकर टेसते रहे। __ भगवान् को ज्ञायोपशमिक सामायिक चारित्र लेने के बाद मन.पर्यवज्ञान प्राप्त हुआ । इससे वे मनुष्यलोक के पंचेन्द्रिय और संजी जीवो के मनोगत भावो को नानने लगे ।
प्रव्रज्या लेने के बाद, भगवान् महावीर ने मित्र, ज्ञाति, स्वजन और सम्बन्धियो को विदा किया और खुद ने यह नियम लिया कि अब से बारह वर्ष तक मैं शरीर की रक्षा या ममता रखे बिना, जो कुछ परिपह और उपसर्ग पावेंगे, उन सबको
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भावनाएँ
अडग होकर सहन करूंगा और उपसर्ग (विन) देने वाले के प्रति समभाव रखूगा। ऐमा नियम लेकर महावीर भगवान् एक मुहूर्त दिन बाकी था तब कुम्मार ग्राम में श्रा पहुंचे।
__इसके बाद, भगवान् शरीर की ममता छोड़कर बिहार (एक स्थान पर स्थिर न रहकर विचरते रहना), निवास स्थान, उपकरण (साधन सामग्री), तप संयम, ब्रह्मचर्य, शांति, त्याग, संतोप, समिति, गुप्ति आदि में सर्वोत्तम पराक्रम करते हुए और निर्माण की भावना से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे।
वे उपकार-अपकार, सुग्व-दुःख, लोक-परलोक, जीवन-मृत्यु मानअपमान आदि में समभाव रखने, संसार समुद्र पार करने का निरन्तर प्रयत्न करने और कर्मरूपी शत्रु का समुच्छेद करने में तत्पर रहते थे।
इस प्रकार विचरते हुए भगवान् को ढेव, मनुष्य या पशु-पक्षी श्रादि ने जो उपसर्ग दिये, उन सबको उन्होने अपने मनको निर्मल रखने हुए, बिना व्यथित हुए, अदीनभाव से सहन किये, और अपने मन, वचन और काया को पूरी तरह वश मे रखा ।
इस प्रकार बारह वर्ष बीतने पर, तेरहवें वर्ष मे, ग्रीष्म के दूसरे महिने में, चौथे पन मे वैशाख शुक्ला दशमी को, सुव्रत दिन को, विजय मुहूंत मे, उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में, छाया पूर्व की और पुस्पाकार लम्बी होने पर, ज़ांभक गांव के बाहर, ऋजुवालिका नदी के उत्तर किनारे पर, श्यामाक नामक गृहस्थ के खेत में, वेयावत्त नामक चत्य के ईशान्य मे, शालिवृक्ष के पास, भगवान् गोदोहास न से ऊकडू बैठे ध्यान मग्न होकर धूप में तप रहे थे। उस समय उनको अहमभत्त ( छ बार अनशन का ) निर्जल उपवाम था और वे गुन्द्वभ्यान में थे । उस समय उनको निर्वाणरूप,
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श्राचागंग सूत्र
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सम्पूर्म (सब वस्तुत्रो का) प्रनिपूर्ण (मत्र वस्नुयो के सम्पूर्ण भावों का), अव्याहत (कहीं न रुकनेवाला), निराबरण, अनन्त और सर्वोत्तम ऐसा केवल ज्ञानदर्शन उत्पन्न हुया !
अब भगवान् श्रहंत (विभुवन की पूजा के योग्य) जिन (गगटेपादिको जीतने वाले), केवली, सर्वज्ञ और समभावदर्शी हुए।
भगवान् को केवल ज्ञान हुग्रा, उस समय देव-देवियों के आने जाने से अतरिक्ष में धूम मची थी। भगवान् ने पहिले अपने को और फिर लोक को देखभाल कर पहिले देवलोगोने धर्म कह सुनाया और फिर मनुष्यो को। ममुप्यो मे भगवान् ने गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्यो को भावना यो के साथ पांच महाव्रत इस प्रकार कह सुनाये:
पहिला महाबत-मैं समस्त जीवों की हिसा का यावजीवन त्याग करता हूँ। स्थूल, सूक्ष्म, स्थावर या बस क्सिी भी जीवकी मन, वचन और काया से मैं हिसा न क्रूँ, न दूसरो से कराऊँ, और करते हुए को अनुमति न दूं। मैं इस पाप से निवृत्त होता है. इसकी निंदा करता हूँ, गहीं करता हूँ, और अपने को उससे मुक्त करता है।
इस महावत की पांच भावनाएं ये हैं
पहिली भावना-निर्धन्य किसी जीव को श्राघात न पहुंचे, इस प्रकार सावधानीस (चार हाथ धागे दृष्टि रख कर) चले क्योकि असावधानी से चलनेसे जीवो की हिंसा होना संभव है।
दूसरी भावना-निर्ग्रन्थ अपने मन की जांच करे, उसको पापयुक्त, सदोप, मक्रिय, कर्मवन्धन करनेवाला और जीवो के वध, छेदन भेदन और कलह, द्वेप या परिताप युक्त न होने दे ।
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नीमरी भावना - निर्ग्रन्थ अपनी भाषा की जांच करे; उसको ( मन के समान ही ) पापयुक्त, सदोष और कलह, द्वेप और परिताप युक्त न होने दे ।
चौथी भावना - निर्ग्रन्थ वस्तुमात्र को बराबर देखभाल कर, साफ करके ले या रखे क्योंकि असावधानी से लेने रखने में जीवो की हिंसा होना संभव है ।
पांचवीं भावना - निर्ग्रन्थ अपने श्राहार- पानी को भी देखभाल कर काम में ले क्योकि सावधानी से लेने में जीवजन्तु की हिंसा होना संभव है ।
निर्ग्रन्थ के इतना करने पर ही, यह कह सकते है कि उसने महामत को बराबर स्वीकार किया, पालन किया, कार्यान्वित किया या जिनों की आज्ञा के अनुसार किया ।
दूसरा महाव्रत- भै मव प्रकार के श्रसत्यरूप वाणी के दोप का यावज्जीवन त्याग करता हूँ । क्रोध से, लोभ से, भय से या हंसी से, मैं मन, वचन और काया से सत्य नहीं बोलूं, दूसरो से न बुलाऊं और बोलते हुए को अनुमति न दू । ( मैं इस पाप से...... यादि पहिले व्रत के अनुसार 1 )
इस महाव्रत की पाच भावनाएँ ये हैं
पहिली भावना-निर्ग्रन्थ विचार कर बोले क्योकि विना विचारे योजने से श्रसत्य बोलना सम्भव है ।
दूसरी भावना - निर्ग्रन्थ क्रोध का त्याग करे क्योकि क्रोध में श्रमत्य बोलना सम्भव है ।
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तीसरी भावना-निर्ग्रन्थ लोभ का
श्राचारांग सूत्र
त्याग करे क्योकि लोभ में
कारण सत्य बोलना सम्भव है ।
चौथी भावना - निर्ग्रन्थ भय का त्याग करे क्योंकि भय के कारण सत्य बोलना सम्भव है ।
पांच भावना - निर्ग्रन्थ हंसी का त्याग करे क्योंकि सी के कारण सत्य बोलना सम्भव है ।
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इतना कर परने ही कह सकते हैं कि उसने महान का बरावर पालन किया । ( आदि पहिले वन के अनुसार )
तीसरा महाव्रत -- मैं सब प्रकार की चोरी का यावज्जीवन त्याग करता हूँ | गांव, नगर या चन में से थोडा या अधिक, वदा या छोटा, सचित्त या चित्त कुछ भी दूसरो के दिये बिना न उठा लूँ. : न दूसरो से उठवाऊँ न किसी को उठा लेने की अनुमति हूँ | ( श्रादि पहिले के अनुसार 1)
इस महाव्रत की पाच भावनाएँ ये है |
पहिली भावना - निर्ग्रन्थ विचार कर मित परिमाण में वस्तुएं मांगे ।
दूसरी भावना - निर्ग्रन्थ मांग लाया हुश्रा श्राहार- पानी ग्राचार्य श्रादि को बता कर उनकी श्राज्ञा से ही खावे ।
तीसरी भावना - निर्ग्रन्थ अपने निश्चित परिमाण में ही वस्तुएँ मागे ।
चौथी भावना - निर्ग्रन्थ वारवार वस्तुग्रो का परिमाण निश्चित कर के मांगे ।
पांचवीं भावना-निर्ग्रन्थ सहधर्मियो के सम्बन्ध में ( उनके लिये या उनके पास से ) विचार कर और मित परिमाण में ही वस्तुएं मांगे ।
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इतना करने पर ही कह सकते है कि उसने महाव्रत का
चौथा महाव्रत - मैं सब प्रकार के मैथुन का यावज्जीवन त्याग करता हूँ। मैं देव, मनुष्य और तिर्यच सम्बन्धी मैथुनको स्वयं सेवन न करूं दुसरो से सेवन न कराऊँ और करते हुए को अनुमति न हूँ । ( यादि पहिले के अनुसार । )
इस महाव्रत की पांच भावनाएँ ये है
पहिली भावना - निर्ग्रन्थ बारबार स्त्री-सम्बन्धी बातें न करे क्योकि ऐसा करने से उसके चित्त की शांति भंग होकर, केवली के उपदेश दिये हुए धर्म से भ्रष्ट होना सम्भव है ।
दूसरी भावना - निर्ग्रन्थ स्त्रियों के मनोहर अंगो को न देखे और न विचारे ।
तीसरी भावना - निर्ग्रन्थ स्त्री के साथ पहिले की हुई कामक्रीडा को याद न करे |
चौथी भावना - निर्ग्रन्थ परिमाण से अधिक और कामोद्दीपक आहार पानी सेवन न करे ।
पाचवीं भावना-निर्ग्रन्थ स्त्री, मादा - पशु या नपुंसक के श्रामन या शय्या को काम मे न ले ।
इतने पर ही कह सकते है कि उसने महाव्रत का बराबर पालन किया ।
पाचवा महाव्रत - मैं सब प्रकार के परिग्रह ( आसक्ति ) का यावज्जीवन त्याग करता हूं। मैं क्म या श्रविक, छोटी या बड़ी सचित या श्रचित कोई भी वस्तु से परिग्रह बुद्धि न रखूं, न दूसरो से रखाऊं और न रखते हुए को अनुमति दु । ( यदि पहिले के अनुसार )
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श्राचारांग सूत्र
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इस महानत की पांच भावनाएँ ये है
पहिली भावना-निर्गन्ध कान से मनोहर शट सुन कर, उसमें श्रामक्ति राग या मोह न करें, इसी प्रकार क्टु शब्द सुनकर हंप न करे क्योंकि ऐसा करने से उसके चित्त की शांति भंग होना श्रीर केवली के उपदेश दिये हुए धर्म से भ्रष्ट होना स्वम्भव है।
कान में सुनाते शब्द रोके नहीं जा सकते,
पर उनसे नो राग हप है, उसे भिचु त्याग दे। दुसरी भावना-निर्ग्रन्थ पांव से मनोहर रूप देख कर उसमें शाखति न करे, कुरूप को देख कर हेप न करे।
श्रास्त्र से दिग्वता रूप रोका नहीं जा सकता,
परन्तु उनमें जो रागद्वेप है उसे मितु त्याग दे। ___तीमरी भावना-निर्ग्रन्थ नाक से सुगन्ध सूंघ कर उसमें ग्रामक्ति न करे, दुर्गन्ध सूंघ कर द्वेष न करे ।
नाक में गंध याती रोकी नहीं जा सकती.
परन्तु उसमें जो रागद्वेप है, उसे भिक्षु त्याग दे। चौथी भावना-निर्ग्रन्थ जीभ से सुम्वादु वस्तु चखने पर उनमें शासक्ति न करे, बुरे स्वाद की वस्तु चखने पर तुष न करे।
जीभ में स्वाद प्राता रोका नहीं जा सकता परन्तु उसमें जो रागद्वेष है, उसे भिनु त्याग दे। पाचवी भावना-निर्यन्य अच्छे म्पर्श होने पर उसमे आसक्ति न करे, बुरे स्पर्श होने पर हेप न करे ।
स्वचा से होने वाला स्पर्श रोका नहीं जा सकता,
परन्तु उसमें जो रागट्टेप हे उसे भिनु त्याग दे। इतना करने पर ही, कह सकते हैं कि उसने महाव्रत का वरावर पालन किया ।
इन पाच महायसो और इनकी पच्चीस भावनाओं से युक्त भिक्षु, शास्त्र, प्राचार और मार्ग के अनुसार उनको बराबर पाल कर ज्ञानियो की याज्ञा का पाराधक सच्चा भिन्नु बनता है । [१७६]
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सोलहवाँ अध्ययन
विमुक्ति
सर्वोत्तम ज्ञानी पुरुषों के इस उपदेश को सुन कर, मनुष्य को सोचना चाहिये कि चारो गति में जीव को अनित्य शरीर ही प्राप्त होता है । ऐसा सोचकर बुद्धिमान मनुष्य घर के बन्धम का त्याग करके दोषयुक्त प्रवृत्तियाँ और ( उनके कारणरूप) श्रासक्ति का निर्भय होकर त्याग करे |
इस प्रकार घरवार की आसक्ति और अनन्त जीवो की हिंसाका त्याग करके, सर्वोत्तम मिताचर्या से विचरने वाले विद्वान् भिक्षु को, मिथ्यादृष्टि मनुष्य, संग्राम में हाथी पर लगने वाले तीरो के समान बुरे वचन कहते हैं, और दूसरे कष्ट देते हैं । इन वचनो और कष्टो को उठाते हुए, वह ज्ञानी, मन को व्यथित किये बिना सब सहन करे और चाहे जैसी आंधी में भी कप रहने वाले पर्वत के
समान डग रहे ।
भिक्षु सुख दुख में समभाव रखकर ज्ञानियो की संगति में रहे, और अनेक प्रकार के दुःखो से दुःखी ऐसे त्रस, स्थावर नीवो को अपनी किसी क्रिया से - परिताप न दे । इस प्रकार करने वाला और पृथ्वी के समान सब कुछ सहन कर लेने वाला महा मुनि श्रमण कहलाता है ।
उत्तम धर्म-पद का श्राचारण करने वाला, तृप्पा रहित, ध्यान और समाधि से युक्त और अभि की ज्वाला के समान तेजस्वी ऐसे विद्वान् भिक्षु के तप, प्रज्ञा और यश वृद्धि को प्राप्त होते हैं ।
* यह अध्ययन चौथी चूडा है 1
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याचाराग मृत्र
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मव दिशात्रो में नम कर, महान्, मत्र कर्मी को दूर करने वाले और अन्धकार को दूर कर प्रकाश के ममान नानी तरफ-उपर नीचे और मध्य में प्रकाशित रहने वाले महाव्रतो को सबकी रक्षा करने वाले अनन्त जिननं प्रकट किये है ।
___ सब बंधे हुयो (ग्रामक्ति से) में वह भिक्षु अबद्ध होकर विवरे, स्त्रियों में श्रासक्त न हो और सत्कार की अपेक्षा न रखे। इस लोक
और परलोक की धागा त्यागने वाला वह पंडित काम भोगों में न फैस।
इस प्रकार काम भोगो से मुक्त रह कर, विवेकपूर्वक श्रावण करनेवाले इस शृतिमान और महनशील भिनु के, पहिये किये हुए सब पापकर्म, अग्नि से चांदी का मैल जैसे दूर हो जाता है, वैसे ही दूर हो जाते है, विवेक ज्ञान के अनुसार चलने वाला, श्राकांना रहित और मैथुन से उपरत हुया वह ब्राह्मण, जैसे सांप पुरानी कांचली को छोड़ देता है, वैसे ही दुखशन्या से मुक्त होता है।
अपार जलके समूहरूप महासमुद्र के समान जिस संसार को ज्ञानियो ने हाथो से दुन्तर कहा है । इस संसार के स्वरूप को ज्ञानियो के पास से समझ कर, हे पंडित, उसका तू त्याग कर । जो ऐसा करता है, वही मुनि (कर्मों का) 'श्रन्त करने वाला' कहा जाता है । ___इस लोक और परलोक दोनो में जिसको कोई बन्धन नहीं है और जो पदार्थों की प्राकाक्षा से रहित निरालम्ब और अप्रतिबद्ध हैं, वही गर्भ मे आने जाने से मुक्त होता है; ऐमा मैं कहता हूँ ।
|| समाप्त ।।
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सुभाषित अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे; से केयणं अरिहई पूरइत्तए । (३: ११३)
संसार के मनुष्यो की कार नाओ का पार नहीं है, वे चलनी में पानी भरने का प्रयत्न करते है।
कामा दुरातिकमा, जीवियं दुप्पडिवूहगं, कामकामी खलु अयं पुरिस, से सोयइ जरइ तिप्पई परितप्पई । (२:९२)
काम पूर्ण होना असम्भव है और जीवन बढाया नहीं जा सकता । कामेच्छु मनुष्य शोक क्यिा करता है और परिताप उठाता रहता है।
आसं च छन्दं च विनिंच धीरे तुमं चैव तं सल्लमाह? जण सिया तेण नो सिया । (२:८४)
हे धीर ! तू अाशा और स्वच्छन्दता को चाग दे। इन दोनो कांटो के कारण ही तू भटकता रहता है। जिसे तू सुख का साधन समझता है, वही दुख का कारण हैं।
नालं ते तब ताणाए वा सरणाए वा, तुमंपि तेसिं नालं तारणाए वा सरणाए वा । जागितु दुखं पत्तेयसायं अणभिकन्तं च खलु वय संपेहाए खणं जाणाहि पंडिए जाव सोचपरिन्नाणेहिं अपरिहायमाणेहिं आयझें सम्म समणुवासेज्जासि-चि वमि । (२:६८-७१)
तेरे सगे-सम्बन्धी, विषय-भोग या द्रव्य-संपत्ति तेरी रक्षा नहीं कर सकते, और न तुझे बचा ही सकते हैं और तू भी उनकी रक्षा
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अाचारांग मूत्र
नहीं कर सकता है और न उनको बचा सकता है। प्रत्येक को अपने सुख और दुख बुट को ही भोगने पड़ते हैं। इस लिये, जब तक अवस्था मृत्यु के निस्ट नहीं है और कान श्रादि इन्द्रियों का बल और प्रज्ञा, स्मरणशक्ति अादि ठीक है नबतक अवनर जान कर बुद्धिमान मनुष्य को अपना कल्याण साध लेना चाहिये ।
विमुत्ता हु ते जणा, जे जणा पारगामिणो । लोभं अलोभण दुगुञ्छमाणे लद्धं काम नो भिगाहइ । (२:७४)
जो मनुष्य विषयों को पार कर गये हैं, वे ही वास्तव में मुक्त हैं। अकाम से काम को दूर करने वाले वे, प्राप्त हुए विषयो में लिप्त नहीं होने।
समयं मृढे धम्मं नाभिजाणइ । उयाहु वीरे अप्पमाओ महामोहे ! अलं कुसलस्स पमाएणं सन्तिमरणं संपेहाए, भेउरधम्म संपेहाए (२:८४)
कामभोगों में सतत मूट रहने वाला मनुष्य धर्म को पहिचान नहीं सकता | वीर भगवान ने कहा है कि महामोह में बिलकुल प्रमाद न करे । शांति के स्वरूप और मृत्यु का विचार करके और शरीर को नाशवान् जान कर कुशल मनुष्य क्यो प्रमाद करे ?
सव्वे पाणा पियाउया, सुहसाया, दुक्खपडिकूला, अप्पियवहा, पियजीविणो, जीविउकामा, सव्वसिं जीवियं पियं । मएण विप्पमाएणं पुढो वयं पकुबइ, जंसिम पाणा पव्वाहिया, पडिलेहाए नो निकरणाए, एस परिन्ना पवुच्चइ कम्मोवसन्ती । से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं. समुट्टाय तम्हा पावकम्म नेव कुजा न काखेज्जा । (२: ८०,९६-७)
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सब जीवों को श्रायुग्य और सुख प्रिय है, तथा दुःख और वध, प्रिय और प्रतिकूल है । वे जीवन की इच्छा रखने वाले और इसको प्रिय मानने वाले है । सबको ही जीवन प्रिय है । प्रमाद के कारण अब तक जीवों को जो दुःख दिया है, उसको बरावर समझ कर, फिर न करे, इसीका नाम सच्चा विवेक है । और यही कर्मों की उपशांति है | भगवान के इसे उपदेश को समझने वाला और सत्य के लिये प्रयत्नशील मनुष्य किसी पापकर्म को नहीं करता और न कराता है ।
सुभाषित
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से मेहावी जे अणुग्धायणस्स खेयन्ने, जे य बन्धमोक्खमन्नेसी ( २: १०२ )
जो हिंसा मे बुद्धिमान है और जो बंध से मुक्ति प्राप्त करने में प्रयत्नशील है, वही सच्चा बुद्धिमान है ।
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जे पत्ते गुणट्ठिए. से हु दण्डे पवच्चइ; तं परिन्नाय मेहावी, 'इयाणिं नो जमहं पुव्वमकासी पमाएणं ' (१:३४-६) प्रमाद और उससे होने वाली काम लोगो में ग्रासक्ति ही हिंसा है । इस लिये, बुद्धिमान ऐसा निश्चय करे कि, प्रमाद से मैने जो पहिले किया, उसे श्रागे नहीं करूँ ।
पहू य एजस्स दुगुञ्छणाए । आयंकदंसी ' अहियं ' ति नच्चा || जे अज्झत्थं जाणइ, से वहिया जाणा; जे वहिया जाड, से अज्झत्थं जाणइ एयं तुलं अन्नेसिं । इह सन्तिगया दविया : नावखन्ति जीविउँ । ( १:५५-७ )
जो मनुष्य विविध जीवो की हिंसा में अपना ग्रनिष्ट देख सकता है, वही उसका त्याग करने में समर्थ हो सकता है ।
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श्राचारांग सूत्र
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जो मनुष्य अपना दुःख जानता है, वहीं बाहर के का दु.ग्त्र जानता है; और जो बाहर के का दुख जानता है, वही अपना भी दुख जानता है। शांति को प्राप्त हुए सयमी दूसरे की हिंया करके जीना नहीं चाहते।
से बेमि-ने' व सयं लोग अभाइक्खेजा, नव अत्ताणं अमाइक्खेज्जा । जे लोगं अमाइक्खड़, से अत्ताणं अव्माइक्खइ. जे अचाणं अमाइक्खड़, से लोगं अन्माइक्खा । (१:२२)
मनुष्य दूसरो के सम्बन्ध मे अनावधान न रहे ।जो दूसरो के सम्बन्ध मे असावधान रहता है, वह अपने सम्बन्ध में भी असावधान रहता है; और जो अपने सम्बन्ध में असावधान रहता है, वह दूसरों के सम्बन्ध में भी असावधान रहता है ।
जे गुणे से आवट्टे जे आवटे से गुणे उड्ढं अहं तिरियं पाईणं पासमाणे रूबाई पासइ, सुणमाणे सद्दाई, सुणहः उड्ढे अहं तिरियं पाईणं मुच्छमाणे स्वेसु मुच्छइ सद्देसु यावि । एत्थ अगुच अणाणाए । एस लोए वियाहिए पुणो पुणो गुणासाए बंकसमायारे पमचे मारमावसे । (१:४०-४)
हिंसा के मूल होने के कारण कामभोग ही संसार में भटकाते हैं संसार में भटकना ही काम भोगो का दूसरा नाम है। चारो योर अनेक प्रकारके रूप देखकर और शब्द सुन कर मनुष्य उनसे यासक्त होता है । इसी का नाम संसार है । ऐसा मनुष्य महापुरुषो के वताए हुए मार्ग पर नहीं चल सकता, परन्तु बार बार कामभोगो में फस कर हिंसा श्रादि वक्रप्रवृत्तियो को करता हुया घर में ही मुर्छित रहता है।
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सुभाषित
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जे पज्जवजायसत्थस्स खेयन्ने से असत्थस्स खेयन्ने जे असत्यस्स खेयन्ने से पज्जवजायसत्थस्सा खेयन्ने । (३: १०९)
जो मनुप्य शब्द आदि काम भोगों से होनेवाली हिंसा को जानने मे कुशल है, वही अहिंसा को जानने में कुशल है; और जो अहिसा को जानने में कुशल है, वही शब्द आदि कामभोगो को होनेवाली हिंसा से जानने में कुशल है ।
संसयं परिजाणओ संसारे परिन्नाए भवइ, संसयं अपरिजाणओ संसारे अपरिन्नाए भवइ (५: १४३)
विपयों के स्वरूप को जो बराबर जानता है, वही संसार को बराबर जानता है, और जो विषयो के स्वरूप को नहीं जानता, वह संसार के स्वरूप को भी नहीं जानता ।
से सुयं च मे अज्झत्थं च में ।
वन्धप्पमोक्खो तुज्झत्थेव ।। (५: १५०) से सुपडिबुद्धं सूवणीयं ति नच्चा पुरिसा । परमचक्खू विप्परकम एएसु चेव चम्भचेरं ! ति वेमि ।
मैने सुना है और अनुभव किया है कि बन्धन से छूटना तेरे अपने ही हाथ में है । इमलिये, ज्ञानियो के पाससे ज्ञान प्राप्त करके, हे परमचनु वाले पुरुप ! तू पराक्रम कर, इसी का नाम ब्रह्मचर्य है, ऐसा मैं कहता हूं।
इमेण चैव जुज्झाहि किं ते मुझेण वज्झओ जुद्धारिहं खलु दुल्लभं । (५: १५३)
हे पुरुप | तू अपने साथ ही युद्ध कर, बाहर युद्ध करने से क्या ? इसके समान युद्ध के योग्य दूसरी वस्तु मिलना दुर्लभ है।।
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श्राचारांग मूत्र
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पुरिसा ! तुममेव तुमं-मिचं, कि बहिया मित्तमि च्छसी ? पुरिसा ! अचाणमेव अभिनिगिज्झ, एवं दुक्खा पमोक्खसि । (३: ११७-८)
हे पुरुप ! तू ही तेरा मित्र है बाहर क्यो मित्र खोजता है? अपने को ही वश में रख तो सब दु.खों से मुक्त हो सकेगा । ___सव्वओ पमत्तस्स भयं, सबओ अप्पमत्तस्स नत्थि भयं । (३ : १७३)
प्रमादी को सब प्रकार से भय हे, अग्रमादी को किसी प्रकार भय नहीं है,
तं आइत्तु न निहे, न निविखवे, जाणितु धम्म जहातहा। दिठेहिं निव्वेयं गच्छेज्जा, नो लोगस्से सणं चरे ।। (४ : १२७)
धर्म को ज्ञानी पुरुषो के पास से समझ कर, स्वीकार करके संग्रह न कर रखे, परन्तु प्राप्त भोग-पदार्थी में वैराग्य धारण कर, लोक प्रताह के अनुसार चलना छोड दे ।
इहारामं परिन्नाथ अहीण-गुणो परिव्यए। निट्ठियट्ठि वीरे आगमण सया परकमेनानि-चि बेमि । (५:१६८)
संसार में जहां-तहां आराम है, ऐसा समझकर वहाँ से इन्द्रियो को हटा कर सयमी पुस्प जितेन्द्रिय होकर विचरे । जो अपने कार्य करना चाहते हैं, वे वीर पुरुष हमेशा ज्ञानी के कहे अनुसार पराक्रम करे, ऐसा मैं कहता हूँ।
कायस्स विओवाए एस संगामसीसे वियाहिए। सहु पारंगमे gणी । अविहम्ममाणे फलगावयट्ठी कालो वणीए कंखेज्ज जाव सरीरभेओ-तिमि ॥ (६: १९६)
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सुभापित
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संयमी अपने अन्त समय तक युद्ध में पागे रहने वाले वीर के समान होता है । ऐसा मुनि ही पारगामी हो सकता है । किसी भी प्रकार के कष्ट से न घबराने वाला और अनेक दुःखो के याने पर भी पाट के समान स्थिर रहने वाला वह संयमी शरीर के अन्त तक काल की राह देखे पर घबरा कर पीछे न हटे पेला मैं कहता हूं।
न सका फासमवेएउं फास सयभागयं । रागद्दोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिव्वए । (अ० १६)
इन्द्रियो के सम्बन्ध में आने वाले विपयको अनुभव न करना शक्य नहीं है, परन्तु उसमे जो रागद्वेप है, उसको भितु त्याग दे।
उद्देसो पासगस्स नत्थि । कुसले पुण नो बढे नो मुक्के । से ज्जं च आरभे जंच नारभे । अणारद्धं च नारभे । छणं छणं परिन्नाय लोगसन्नं च सव्वसो । (२ : १०३) __जो ज्ञानी है उनके लिये कोई उपदेश नहीं है । कुशल पुरुष कुछ करे या न करे, उससे वह बद्ध भी नहीं है और मुक्त भी नहीं है । ती भी लोक रुचि को बराबर समझ कर और समय को पहिचान कर वह कुशल पुरुप पूर्व के महापुरुषो के न किये हुए कर्मों को नहीं करता ।
जमिणं अन्नमन्न-विइगिच्छाए पडिलेहाए न करे। पावं कम्मं किं तत्थ, मुणी कारण सिया ? समय तत्यु'वेहाए अप्पाणं विप्पसायए । (३:११५) ।
एक-दूसरे की लज्जा या भय से पाप न करने वाला क्या मुनि है ? सन्चा मुनि तो समता को समझ कर अपनी आत्मा को निर्मल करने वाला होता है ।
अणगारे, उज्जुकडे नियागपडिवान्ने, अमायं कुव्वमाणे वियाहिए। जाए सद्धाए निक्खन्तो, तमेव अणुपालिया; वियहित्तु विसात्तियं पणया वीरा महावीहि । (१:१८-२०)
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याचारांग सूट
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जो सरल है, मुमुनु है, और अदभी है, वही सच्चा अनगार है । जिस श्रद्धा से मनुष्य गृहत्याग करता है, इसी श्रद्धा को आशंका और आसक्ति को त्याग कर, सदा स्थिर रखना चाहिये । वीर पुरुप इसी मार्ग पर चलते आये हैं। उबहमाणे कुसलेंहिं संवसे, अकंतदुःखी तसथावरा दुही। अलसएं सबसहे महामुणी, तहा हि से सुस्समणे समाहिए ।।
सुख दु.ख में समभाव रखकर ज्ञानी पुरुषों की संगति में रहे, और अनेक प्रकार के दुःखो से दुःखी वन न्यावर जीवों को अपनी किसी क्रिया से परिताप न दे। ऐसा करने वाला, पृथ्वी के समान सब कुछ सहन करने वाला महामुनि उत्तम श्रमण कहलाता है । (०१६) विउ नए धम्मपयं अणुत्तरं, विणीयतण्हस्स मुणिस्स झायो। समाहियस्मग्गिसिहा व तेयसा. तवोय पन्ना य जसो य वड्ढड़ा।
उत्तम धर्म-पद का याचरण करने वाला, तृष्णारहित, भ्यान और समाधि से युक्त और अग्नि की ज्वाला के ममान तेजवी विद्वान् भिनु के तप, प्रज्ञा और यश वृद्धि को प्राप्त होते हैं । (अ० १६) तहा विमुक्कस्स परिन्नचारिणी, धिईमओ दुक्खखमस्स भिक्खुणो। विसुज्झई जसि मलं पुरेकडं, ममीरियं रुप्पमलं व जोइणा ॥
इस प्रकार कामभोगो से मुक्त रह कर, विवेक पूर्वक पाचरण करने वाले उस तिमान और सहनशील भिनु के पहिले किये हुए सब पापकर्म अग्नि से चादी का मैल जैसे दूर हो जाता है, वैसे ही दूर हो जाते है (म०१६) इमंमि लोए परए य दोसुवि, न विज्जई वंधण जस्स किंचि वि। से हु निरालंबणमप्पइदिए कलंकलीभावपहं विमुच्चाई।चित्रमि।। ____ इस लोक और परलोक दोनो मे जिसको कोई बन्धन नहीं है,
और ओ पदार्थों की आकांक्षा से रहित 'निरालम्ब' और अप्रतिबद्ध है, वही गर्भ में श्राने-आने से मुक्त होता है, ऐया मैं कहता हूं। (अ० १६)
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