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लोकविजय
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पढार्थों को जो यथावस्थित रूप में (जैसा का तैसा) जानता है, वही यथार्थता मे रहता है; और जो यथार्थता में रहता है, वही पढार्थों के यथावस्थित रूप को जानता है। ऐसे ही मनुष्य दूसरो को दु.खो का सच्चा जान करा सकते हैं। वे मनुष्य संसार योघ के पार पहुंचे होते हैं और वे ही नीर्ण, मुक्त और विरक्त कहे जाते हैं, ऐसा मैं कहता हूं। [ १०१,६] ___जो मनुष्य ज्ञानी है, उसके लिये कोई उपदेश नहीं है। ऐसा कुशल मनुष्य कुछ करे या न करे उससे वह न बद्ध है और न मुक्त है। तो भी लोक संज्ञा को सब प्रकार बराबर समझ कर और समय को जान कर वह कुशल मनुष्य उन कर्मों को नहीं करता जिनका प्राचरण पूर्व के महापुरुषोने नहीं किया। [८१,१०३ ]
जो बंधे हुो (कमों से) को मुक्त करता है, वही वीर प्रशंसा का पात्र है। [१०२]
अपने को संसारियों के दुखो का वैद्य बताने वाले, अपने को पंडित मानने वाले कितने ही तीर्थक (मत प्रचारक) घातक, छेदक, भेदक, लोपक उपद्रवी और नाश करने वाले होते है । वे ऐसा मानते है कि क्सिीने नहीं किया, वह हम करेंगे। उनके अनुयायी भी उनके समान ही होते हैं । ऐसे मूढ मनुष्यों का संसर्ग न करो। वैसे दुर्वसु, असंयमी और जीवन चर्या में शिथिल मुनि सत्पुरुषो की श्राज्ञा के विगधक होते हैं । [१५-१००]
मोह से घिरे हुए और मंद कितने ही मनुष्य संयम को ' म्वीकार करके भी विषयों का सम्बन्ध होते ही फिर स्वछन्द हो