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श्राचागंग सत्र
जाते हैं । 'अपरिग्रही रहेंगे ऐसा सोचकर उद्यत होने पर भी ये कामभोगो के प्राप्त होते ही उनमें फंस जाते हैं और स्वछन्द रहकर बारवार मोह में फंसते है। वे न तो इन पार है और न उस पार । सच्चा साधु ऐसा नहीं होता । संयम में से अरति दूर करने वाले और संयम से न ऊबने वाले मेधावी बीर प्रशंसा के पात्र है । ऐसा मनुष्य शीघ्र ही मुक्त होता है । [७३, ६५, ७२, ८५]
उद्यमवंत, श्रार्थ, पार्यप्रन और श्रार्थदर्शी ऐमा, संयमी मुनि समय के अनुसार प्रवृत्ति करता है । काल, बल, प्रमाण, क्षेत्र, अवसर, विनय, भाव और स्व-पर सिद्धान्तो को जानने वाला, परिग्रह से ममत्वहीन, यथासमर प्रवृत्ति करने वाला ऐसा वह नि संकल्प भिक्षु राग और द्वेष को त्याग कर संयमधर्भमें प्रवृत्ति करता है । अपनी जरूरत के अनुसार वस्त्र, पात्र, कंबल, रजोहरण, स्थान और श्रासन यह सब वह निय रीति से गृहस्थों के पास से मांग लेता है । गृहस्थ अपने लिये या अपने स्वजनो के लिये अनेक कर्म-समारम्भो के द्वारा भोजन, व्यालू, कलेवा या उत्सवादि के लिये आहार श्रादि खाद्य तयार करते हैं या संग्रह कर रखते है । उनके पास से वह भिक्षु अपने योग्य आहार विधिपूर्वक मांग लेता है।
___ वह भिक्षु महा श्रारम्भ से तैयार किया हुअा अाहार नहीं लेता न दूसरो को दिलाता है या दूसरो को उसकी अनुमति देता है । सत्यदर्शी वीर गाढा-पतला और रूखा-सूखा भिक्षान्न ही लेते हैं। भिक्षा के सब प्रकार के दोप जान कर, उन दोपो से मुक्त होकर वह मुनि अपनी चर्या में विचरता है। वह न तो कुछ खरीदता है, न खरीदवाता है और न खरीदने की किसी को अनुमति देता है। कोई