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अाचारांग मूत्र
नहीं कर सकता है और न उनको बचा सकता है। प्रत्येक को अपने सुख और दुख बुट को ही भोगने पड़ते हैं। इस लिये, जब तक अवस्था मृत्यु के निस्ट नहीं है और कान श्रादि इन्द्रियों का बल और प्रज्ञा, स्मरणशक्ति अादि ठीक है नबतक अवनर जान कर बुद्धिमान मनुष्य को अपना कल्याण साध लेना चाहिये ।
विमुत्ता हु ते जणा, जे जणा पारगामिणो । लोभं अलोभण दुगुञ्छमाणे लद्धं काम नो भिगाहइ । (२:७४)
जो मनुष्य विषयों को पार कर गये हैं, वे ही वास्तव में मुक्त हैं। अकाम से काम को दूर करने वाले वे, प्राप्त हुए विषयो में लिप्त नहीं होने।
समयं मृढे धम्मं नाभिजाणइ । उयाहु वीरे अप्पमाओ महामोहे ! अलं कुसलस्स पमाएणं सन्तिमरणं संपेहाए, भेउरधम्म संपेहाए (२:८४)
कामभोगों में सतत मूट रहने वाला मनुष्य धर्म को पहिचान नहीं सकता | वीर भगवान ने कहा है कि महामोह में बिलकुल प्रमाद न करे । शांति के स्वरूप और मृत्यु का विचार करके और शरीर को नाशवान् जान कर कुशल मनुष्य क्यो प्रमाद करे ?
सव्वे पाणा पियाउया, सुहसाया, दुक्खपडिकूला, अप्पियवहा, पियजीविणो, जीविउकामा, सव्वसिं जीवियं पियं । मएण विप्पमाएणं पुढो वयं पकुबइ, जंसिम पाणा पव्वाहिया, पडिलेहाए नो निकरणाए, एस परिन्ना पवुच्चइ कम्मोवसन्ती । से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं. समुट्टाय तम्हा पावकम्म नेव कुजा न काखेज्जा । (२: ८०,९६-७)