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वह कुछ न करे । छेद मे से पानी को श्राते देखकर या नाव को डगमगाते देखकर नाव वाले को जा कर ऐसा न कहे कि, 'यह पानी भरा रहा है, इसी प्रकार इस बात को मन में घोटना भी न रहे । परन्तु व्याकुल हुए बिना तथा चित्त को प्रशान्त न करके, अपने को एकाग्र करके समाहित करें। वह नाववाला थाकर उसे कहे कि, छत्र पकड़, यह शस्त्र पकड, इस लड़के लडकी को दूध या पानी पिला,' तो वह ऐसा न करे । इस पर चित्र कर कोई ऐसा वहे कि, यह भिन्तु
'ग्रह'
तो नाव पर बेकाम बोझा ही है इस लिये इसको पकड़ कर पानी मे डाल दो ।' यह सुनकर वह भिक्षु तुरन्त ही भारी कपड़े लग करके हलके कपड़े शरीर और मुँह से लपेट ले, और यदि चे क्रूर मनुष्य उसका हाथ पकड़कर पानी मे डालने यावें तो वह उनको कहे कि, 'ग्रायुष्यमान गृहस्थ । हाथ पकड कर मुझे फेंकने की, जरूरत नहीं में तो खुद ही उतर जाता हूँ । इतने परभी वे उसको फेंक दें तो भी वह अपने चित्त को शान्त रखे, उनका सामना न करे परन्तु व्याकुल हुए विना सावधानी से उस पानी को तैरकर पार कर जावे ( १२०-१२१ ).
भिक्षु पानी में तैरते समय हाथ-पैर आदि न उछाले, गोते न खावे, क्योकि, ऐसा करने से पानी नाक-कान मे जाकर यों ही नष्ट होता है । भिक्षु पानी में तैरते थक जाय ते वह अपने सब या कुछ कपड़े अलग करदे, उनसे बंधा न रहे । किनारे पर पहुंचने पर शरीर को पूछे, रगडे या तपाचे नहीं, पर पानी के अपने श्राप सूखने पर उसको पोछ कर आगे चले ।
भिक्षु और भिक्षुणी के प्राचार की यही सम्पूर्णता है कि सब विषयो में सदा राग द्वेष रहित होकर अपने कल्याण में तत्पर रह कर सावधानी से प्रवृत्ति करे ।
श्राचाराग सूत्र