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लाक्सार
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मैंने सुना है और अनुभव किया है कि बन्धन से छूटना प्रत्येक के अपने हाथ में है। इस लिये, ज्ञानियो के पास से समझ कर, हे परमचतुवाले पुरुष ! तू पराक्रम कर । यही ब्रह्मचर्य है ऐसा मैं कहता हूं। [१ ]
संयम के लिये उद्यत हुश्रा मनुष्य, ऐसा जानकर कि प्रत्येक को अपने कर्म का सुख-दुख रूपी फल स्वयं ही भोगना पड़ता है, प्रमाद न करे । लोक-व्यवहार की उपेक्षा करके सब प्रकार चे संगो से दूर रहने वाले मनुष्य को भय नहीं है। [१४६, १४६]
कितने ही मनुष्य ऐसे होते है जो पहिले सत्य के लिये उद्यत होते हैं और पीछे उसी मे स्थिर रहते हैं; क्तिने ही ऐसे होते हैं जो पहिले उद्यत होकर भी पीछे पतित हो जाते है। ऐसे असंयमी दूसरों से ऐसा कहते हैं कि अविद्या से भी मोक्ष मिलता है। वे संसार के चक्कर में फिरते रहते है। तीसरे प्रकार के ऐसे होते है जो पहिले उद्यत भी नहीं होते और पीछे पतित भी नहीं होते। ऐसे असंयमी लोक के स्वरूप को जानते हुए भी संसार में ही इवे रहते है। ऐसा जानकर मुनियोने कहा है कि बुद्धिमान को ज्ञानी की अाज्ञा को मानकर स्पृहा रहित, सना प्रयत्नशील होकर तथा शील
और संसार का स्वरूप सुनकर, समझ कर काम रहित और द्वन्द्वहीन बनना चाहिये। [५५२-१४५,१५३]
हे बन्धु ! अपने साथ ही युद्ध कर, बाहर युद्ध करने से क्या होगा? खुद के सिवाय युद्ध के योग्य दूसरी वस्तु मिलना दुर्लभ है। जिन प्रवचन में कहा है कि जो रूप प्रादि में ग्रासक्त रहते है, वे ही हिमा में प्रासक्त रहते है। कर्मका स्वरूप समझ कर किसी की