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श्राचाराग सूत्र
को जल्दी न दे दे, परन्तु उस आहार को सब के पास ले जा कर कहे कि, ' मेरे पूर्व परिचित ( दीना देने वाले ) और पश्चात परिचिन (ज्ञान यादि सिखाने वाले ) श्राचार्य आदि को क्या में यह ग्राहार दे दूँ?' इस पर वे मुनि उसको कहे कि ' हे श्रायुपमान् ।
,
तु
जितना चाहिये उतना उनको दे ।' [ ५६ ]
कोई मुनि अच्छा अच्छा भोजन माग ला कर मन में सोचे कि यदि इसे खोल कर बताउंगा तो ग्राचार्य ले लेंगे और यदि वह उम भोजन को बुरे भोजन से ढंक कर ग्राचार्य यादि को बताये तो उसे दोष लगता है । इस लिये, ऐसा न करके, बिना कुछ छिपाये उसको खुला ही बताये | यदि कोई मुनि अच्छा अच्छा आहार वा कर बाकी का ग्राचार्य आदि को बतावे तो भी दोष लगता है; इस लिये ऐसा न करे । [ ५७ ]
कोई मुनि अच्छा भोजन लेकर मुनि के पास आकर कहे कि, 'तुम्हारा श्रमुक मुनि बीमार है तो उसको यह भोजन खिलाओ, यदि वह न खावे तो तुम खा जाना ।' अब वह मुनि उस अच्छे भोजन को खा जाने के विचार से उस बीमार मुनि से यदि कहे कि यह भोजन रूखा, है, चरपरा है, कडवा है या कपैला हैं; तो उसे दोष लगता है | यदि उन सुनियो ने ग्राहार देते समय यह कहा हो कि, 'यदि वह बीमार मुनि इसको न हमारे पास लाना; तो खुद ही उसे खाकर जैसा कहा हो वैसाही करे | [ ६०-६१ ]
खावे तो इसके फिर झूठ बोलने के
बदले
भिक्षा मांगने जाते समय मार्ग, सराय, बंगले,
गृहस्थ के घर
या भिक्षुओ के मटो से भोजन की सुगंध आने पर मुनि उसको,
(
क्या ही अच्छी सुगंध,' ऐसा कह कर न सूंघे । [ ४४ ]