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इतना करने पर ही कह सकते है कि उसने महाव्रत का
चौथा महाव्रत - मैं सब प्रकार के मैथुन का यावज्जीवन त्याग करता हूँ। मैं देव, मनुष्य और तिर्यच सम्बन्धी मैथुनको स्वयं सेवन न करूं दुसरो से सेवन न कराऊँ और करते हुए को अनुमति न हूँ । ( यादि पहिले के अनुसार । )
इस महाव्रत की पांच भावनाएँ ये है
पहिली भावना - निर्ग्रन्थ बारबार स्त्री-सम्बन्धी बातें न करे क्योकि ऐसा करने से उसके चित्त की शांति भंग होकर, केवली के उपदेश दिये हुए धर्म से भ्रष्ट होना सम्भव है ।
दूसरी भावना - निर्ग्रन्थ स्त्रियों के मनोहर अंगो को न देखे और न विचारे ।
तीसरी भावना - निर्ग्रन्थ स्त्री के साथ पहिले की हुई कामक्रीडा को याद न करे |
चौथी भावना - निर्ग्रन्थ परिमाण से अधिक और कामोद्दीपक आहार पानी सेवन न करे ।
पाचवीं भावना-निर्ग्रन्थ स्त्री, मादा - पशु या नपुंसक के श्रामन या शय्या को काम मे न ले ।
इतने पर ही कह सकते है कि उसने महाव्रत का बराबर पालन किया ।
पाचवा महाव्रत - मैं सब प्रकार के परिग्रह ( आसक्ति ) का यावज्जीवन त्याग करता हूं। मैं क्म या श्रविक, छोटी या बड़ी सचित या श्रचित कोई भी वस्तु से परिग्रह बुद्धि न रखूं, न दूसरो से रखाऊं और न रखते हुए को अनुमति दु । ( यदि पहिले के अनुसार )