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________________ याचारांग सूत्र - - - - वन्दना-नमस्कार करते रहते भी ज्ञानभ्रष्ट और दर्शनभ्रष्ट होने के कारण जीवन को नष्ट कर डालते हैं । संयम स्वीकार कर लेने पर बाधाएँ आ जाने के कारण सुखार्थी हो कर असंयमी बन जाने वाले इन्द्रियो के दास कायर मनुष्य अपनी प्रतिज्ञायो को तोड देते हैं। ऐसो की प्रशंसा करना पाप है । ऐसे श्रमण विभ्रान्त हैं, विभ्रान्त हैं । [१६०-१६१,१६३] इनका निष्क्रमण दुनिष्क्रमण है । निंदा के पात्र ऐसे मनुप्य बारबार जन्म-मरण को प्राप्त होते रहते है। ये अपने को विद्वान् मानकर, 'मैं ही बडा हूँ।' ऐसी प्रशंसा करते रहने हैं। ये दुसरे तटस्थ संयमियों के सामने उद्धत होते है और उनको चाहे जो कहते रहते हैं। [१९६] ___ वालकों के समान मूर्ख ये अधर्मी मनुष्य हिंसार्थी होकर कहने लगते है कि, 'जीवो की हिंसा करो; ' इस प्रकार ये भगवान के बताये हुए दुष्कर धर्म की उपेक्षा करते है। इन को ही प्राज्ञा के विराधक, काम भोगो मे डूबे हुए और वितंडी कहा गया है। [ १६२ ] संयम के लिये प्रयत्नशील मनुष्यो के साथ रहते हुए भी ये अविनयी होते हैं। ये विरक्त और जितेन्द्रिय मनुप्यो के साथ रहते हुए भी अविरक्त और श्रदान्त होते हैं। [ १६३] ऐसी विचित्र स्थिति जान कर बुद्धिमान को पहिले ही धर्म को बराबर समझ लेना चाहिये और फिर अपने लक्ष्य में परायण बन कर शास्त्रानुसार पराक्रम करना चाहिये, ऐसा मैं कहता है। [१६१, १६३]
SR No.010795
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel
PublisherGopaldas Jivabhai Patel
Publication Year
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size5 MB
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