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________________ बिमोह ---- - --- ---------- - चोरी आदि करने, कराने में कुछ बुरा नहीं जान पडता । कुछ कहते हैं, ‘लोक है। कुछ कहते, 'लोक नहीं है। कोई लोक को ध्रुव कहते हैं, कोई अध्रुव कहते है । कोई उसको सादि (आदि वाला) कहते हैं तो कोई उसको अनादि कहते है। कोई उसको अन्तवाला कहते है तो कोई उमको अनन्त कहते हैं। इसी प्रकार वे सुकृत-दुकृत, पुण्य पाप, साधु-प्रसाधु सिहि-प्रसिद्धि और नरक-अनरक के विपयो में अपनी अपनी मान्यता के अनुसार वादविवाद करने है। उनसे इनता ही कहना चाहिये कि तुम्हारा कहना अहेतुक है। ग्राशुप्रन, सर्वदर्शी और सर्वज्ञ भगवान ने जिस प्रकार धर्म का उपदेश दिया है, उस प्रकार उनका (वादियो का) धर्म यथार्थ नहीं है। [१६] अथवा, ऐसे विवाद के प्रसगो में मौन ही धारण करे, ऐसा मैं कहता हू । 'प्रत्येक धर्म में पाप को (त्याग करने को) स्वीकार किया है । इस पाप से निवृत्त होकर मैं विचरता हूं यही मेरी विशेपता है, " ऐसा समझ कर विवाद न करे। [ २००] - और, यह भी भली भाति जान ले कि खान-पान, वस्त्र, पात्र, कंबल या रजोहरण मिले या न मिले तो भी मार्ग छोड कर कुमार्ग पर चलने वाले विधर्मी लोग कुछ दे, (कुछ लेने के लिये) निमत्रण दे या सेवा करे तो उसे स्वीकार न करे । [१९८] मतिमान जिन ( मूल में 'माहण' शब्द है, जिसका अर्थ सच्चा ब्राह्मण या मा+हण अर्थात अहिसा का उपदेश देने वाले जिन होता है ।) के वताए हुए धर्म को समझ कर, फिर भले ही गांव में रहे या अरण्य में रहे, अथवा गांव में न रहे या अरण्य में न रहे, परन्तु महापुरपो के बताए हुए अहिसा, सत्य और अपरिग्रह, इन नीनी व्रतो के स्वरूप को बगवर समझ कर आर्य पुरुप
SR No.010795
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel
PublisherGopaldas Jivabhai Patel
Publication Year
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size5 MB
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