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________________ १२] याचारांग मुन - A man Arr .WN AWARAN~nvr - - अथवा, असंयम के कारण अनेक बार उस को रोग होते है । या जिसके साथ वह बहुत समय से रहता पाया हो वे अपने मनुष्य उसे पहिले ही छोड़ कर चले जाते हैं । इस प्रकार चे सुन के कारण नहीं बन सकते और न दुखो से ही बचा सकते हैं और न वह ही उनको दुखों से बचा सकता है। प्रत्येक को अपना सुस-दुग्य खुद ही भोगना पटता है। [2] उसी प्रकार जो उपभोग सामग्री उमने अपने सगेसम्बन्धियों के साथ भोगने के लिये बड़े प्रयत्न से अथवा चाहे जसे कुकर्म करके इकट्टी की हुई होती है, उसको भोगने का अवसर प्राने पर या तो वह रोगों से घिर जाता है या वे सगे-सम्बन्धी ही उसको छोडकर चले जाते है या वह स्वयं ही उनको छोड़ कर चला जाता है । [६७] अथवा, कभी उसको अपनी इक्ट्ठी की हुई संपत्ति को बाटना पड़ता है, चोर चुरा ले जाते हैं, राजा छीन लेता है, या वह खुद ही नष्ट हो जाती है, या आग में जल जाती है। यो सुख की श्राशा से इकट्ठी की हुई भोग सामग्री दुःख का ही कारण हो जाती है किन्तु मोह से मूढ़ हुए मनुष्य इसको नहीं समझते [३] इस प्रकार कोई किमी की रक्षा नहीं कर सक्ता और न कोई किसी को बचा ही सकता है । प्रत्येक को अपने सुख-दुख खुद ही भोगने पड़ते हैं । जब तक अपनी अवस्था मृत्युसे घिरी हुई नहीं है, कान आदि इन्दियों, स्मृति और बुद्धि प्रादि बराबर हैं तब तक अवसर जान कर बुद्विमान् को अपना क्ल्याण साध लेना चाहिये । [६८-७१]
SR No.010795
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel
PublisherGopaldas Jivabhai Patel
Publication Year
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size5 MB
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