Book Title: Yatindravihar Digdarshan Part 01
Author(s): Yatindravijay
Publisher: Saudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh

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Page 14
________________ (3) આવા મિથ્યાભિમાની જને ખરેખર પિતાને નુકશાન કરે છે. એટલું જ નહિ પરંતુ પોતાના પાડોશના બાંધવ દેશ, પિતાની સમીપના બાંધવ ધર્મને, પોતાના પાસેનો બાંધવ સમાજને પણ વ્યર્થ નુકશાન કરે છે, આવા સ્વદેશની, સ્વધર્મની કે સ્વસમાજની અભિવૃદ્ધિના વૈરી જગતમાં રાક્ષસની પેઠે પોતાનો અને પરને નાશજ કરે છે. આટલું જ નહિં પરંતુ ઉચ્ચમાં ઉચ્ચ મનુષ્ય જન્મ હોવા છતાં શાલારૂપ જગતમાં રહી જાણે આ જગતમાં રહેવાને લાયક ન હોય તેમજ પલાયન પણ કર્યા કરે છે. जैनों की भारी कमी होने का आज जो जटिल प्रश्न खडा हो रहा है उसका असली कारण खोजा जाय तो मुनिविहार का अभाव ही है / यदि नियम पूर्वक सर्वत्र मुनिवरों का विहार होता रहे तो अधिक नहीं तो मूलपूंजी (अवशिष्ट जैन संख्या) में तो किसी तरह घाटा पडने की संभावना खडी नहीं हो सकती। .. - अरे ! अन्धश्रद्धालुओं का मोह और शिथिलाचार की मौजमजाह छोड कर अप्रतिबद्ध विहार किये विना प्रतिगाँवों, या प्रतिदेशों के भावुकों की धार्मिक स्थिति, जिनमन्दिर, ज्ञानभंडार, पाठशाला; आदि की आर्थिक स्थिति और जनसमृद्धि का पता किस प्रकार लग सकता है ? जब इन बातों का पता नहीं, तब उनके सुधारने की आशा निराशा ही समझना चाहिये / ___आज इतिहास के अतिगहन विषय को परिस्फुट करके दिखलाने वाली, पूर्वकालीन जाहोजलाली को प्रत्यक्ष बताने वाली भौर श्रादर्श आत्माओं के कृतकार्यों का स्मरण करा के आश्चर्यान्वित करनेवाली तीर्थमालाएँ, ताम्रपत्रों के लेख, प्रशस्तिलेख और

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