Book Title: Yatindravihar Digdarshan Part 01
Author(s): Yatindravijay
Publisher: Saudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
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________________ सिद्धान्त सामग्री को प्राप्त करने, बुद्धिबल को बढाने, आत्म विकाश करने, देशाचार-विचारों को जानने, शरीरस्वास्थ्य प्राप्त करने, भिन्न भिन्न प्रकृतिक मनुष्यों के स्वभाव को समझने और संसारवासी भावुक वर्ग को श्राद्धर्म संबन्धि वास्तविक तत्त्वों का भान कराने के लिये अप्रतिबद्ध विहार करते रहना चाहिये / जो साधु साध्वी कूप मंडूकवत् गृहस्थों के मोह में फंस कर एक ही गाँव, या उपाश्रय में पड़े रहते हैं, उन्हें संसार की वास्तविक, या अवास्तविक वस्तुस्थिति का पता नहीं लग सकता। इतना ही नहीं, बल्कि ऐसे शिथिल स्वच्छन्दचारी साधु साध्वी अपने अमूल्य संयमधर्म और मानवजीवन को बरबाद करके दुर्गति के पात्र बन जाते हैं / ऐसे साधु साध्वियों से समाज को कुछ भी फायदा हासिल नहीं होता. किन्तु उलटे वे समाज को भारभूत हो पडते हैं / दर असल में ऐसे ही शिथिलाचारियों के लिये लोगोंने यह सूक्त उच्चारण किया है कि स्त्री पीयर नर सासरे, संजमियां थिर वास / एता होय अलखामणा, जो मंडे नित वास // 1 // एक गुजराती साक्षरने ठीकही लिखा है कि કેટલાક મનુષ્ય જે જાત્યંધ થાય છે જેઓ બીજાને દેખતા નથી. તેમાં કેટલાક મનુષ્ય પોતાના દેશ સિવાય બીજા દેશનું, બીજા ધર્મનું બીજા સમાજનું કે જ્ઞાતિનું સારૂં જોઈ શકતા નથી અને જોઈ શકતા નથી તે સીખી પણ શકતા નથી. કુવાના દેડકાની માફક પોતાના નાના વર્તુલનેજ જગત સમજી લે છે.