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भूमिका
ALALITARADAS
सैव वर्ण्यते' कहकर प्रस्तुत करते हैं ! इसमें कथा-वस्तु ज्यों की त्यों है। केवल धार्मिक विवेचनोंमें लाघव किया गया है। इसके निर्माता 'मूलसंघ, बलात्करगण, भारतीगच्छमें उत्पन्न परवादि-दन्तिपञ्चानन वर्द्धमान' हैं । डा. उपाध्येके मतसे अब तक दो
वर्द्धमान प्रकाशमें आये हैं प्रथम हैं न्यायदीपिकाकार धर्मभूषणके गुरु तथा दूसरे हुमच शिलालेखके रचयिता वर्धमान हैं । इन। बराङ्ग दोनोंका समय तेरहवीं शतीसे पहिले ले जाना अशक्य है। अतः यह कहना अनुचित न होगा कि वर्द्धमानका वरांगचरित सरलतर परितम् ! होनेके कारण प्रचारमें आ गया होगा और स्वाध्यायी जटाचार्यके मूल, वरांगचरितसे दूर हो गये होंगे।
कन्नड वरांगचरित'–संस्कृत कवियों के समान दक्षिणी भाषाओंके कवियोंका मौन भी घरणि पंडितके वरांगचरितके कारण हुआ होगा। इसके लेखक विष्णुवर्द्धनपुरके निवासी थे तथा ई० १६५० के लगभग हुए थे। इन्होंने अपने पूर्ववर्ती ग्रन्थकारोंका स्मरण करते हुए एक वर्द्धमान यतिका भी उल्लेख किया है। अतः डा. उपाध्येका अनुमान ठीक ही है कि कन्नड़वरांगचरितका आधार वर्द्धमानका संक्षिप्त वरांगचरित रहा होगा।
लालचन्द्रकृत भाषा वरांगचरित-जटाचार्यकी धर्मकथाकी लोकप्रियता इसीसे सिद्ध हो जाती है कि जब जैन शास्त्रोंके भाषा रूपान्तरका समय आया तो भाषाके बिद्वान् वरांगचरितको न भूल सके। इसके अन्तमें लिखा है श्री वर्द्धमानकी रचना संस्कृतमें होनेके कारण सबकी समझमें नहीं आ सकती अतएव उसकी भाषा करना आवश्यक था। इस कार्यको पाण्डेलालचन्द्रने आगरा निवासो, बिलालगोत्रीय शोभानन्द्रकी सहायतासे माघशुक्ला ५ शनिवार १८२७ में पूर्ण किया था।
कमलनयनकृत भाषा वरांगचरित -ग्रन्थकी प्रशस्तिके अनुसार यह कृति भी वर्द्धमानके संस्कृत काव्यका भाषान्तर मात्र है। इसे मैनपुरी निवासी श्री कमलनयन नागरवारने सम्वत् १८७२ में समाप्त किया था। लेखकके पितामह श्री साहौ नन्दरामजी थे तथा पिता हरचन्ददास वैद्य थे। ये यदुवंशी बढेला थे, इनका गोत्र काश्यप था । लेखकने अपने बड़े भाई क्षितिपतिका भी उल्लेख किया है।
आगम एवं श्रुत-स्मृतके बाद आया शास्त्र ( लेखिनीकृत) परम्परामें भारतकी प्राग्वैदिक परम्परा में, एक प्रकारसे वीर निर्वाणकी दशमी ( ९१० ) शतीमें 'बहुश्रुत विच्छित्तौ' "न्यूनाधिकान्, त्रुटिताऽत्रुटितान् स्वमत्या" क्षमाश्रमण देवद्धिगणी द्वारा लिपिबद्ध जैन ( श्वे. मान्य) आगम, उदार-(पाश्वात्य )-मनीषियोंको संभवतः वैदिक वाङ्मयके बाद ही मिल जानेसे उन्होंने इन्हें मान्यता दी। क्योंकि वीरनिर्वाणकी पञ्चम-षष्ठ शतीमें लिपिबद्ध प्राचीनतम श्रमण (प्राग्वैदिक ) आगम तब तक ताडपत्री-रूपमें शास्त्र भण्डारोंमें देवमूर्तिके समान पूज्य वा बन्दनीय थे। किन्तु अर्वाचीन शोधक क्षमाश्रमण देवद्धिगणी और मैक्सम्यूलर की स्पष्ट-तथ्यवादिताकी उपेक्षा करके प्राचीनतम आचार्यों को अपने सम्प्रदाय का सिद्ध करने के लिये, उन्हें मूल (श्रमण-ब्राह्मण ) रूपसे पृथक् दिखाकर अपनी विशेष शोधोपलब्धि प्रदर्शित करते हैं । 'वरांगचरितम्' भी इसका अपवाद नहीं है।
-खुशालचन्द्र बोरावाला १. कर्णाटक कविचरित, आ० २, पृ० ४१७ । इसकी हस्तलिखित प्रति अपूर्ण है। २. हरसुखलाल जैन पुस्तकालयको सं० १९०५ में
लिखी गयी इस्तलिखित प्रति । ३. श्री कामताप्रसाद, अलीगंज ( एटा, उत्तरप्रदेश) की हस्तलिखित प्रति ।
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