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चरितम्
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भूमिका
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विधान, इनके व्य
वातापीके चालुक्योंके राज्यकालमें भी जैनधर्मको राजाश्रय प्राप्त था। इसीलिए मूलवल्लि, आदि अनेक ग्राम इस मन्दिरको भुक्ति रूपसे लगाये गये थे। इतना ही नहीं इस वंशके उत्तरकालीन राजाओंने जैनसंघोंको भी भूदान किया था।'
अन्तरीप क्षेत्रमें भी इस युगमें जैनधर्मको केवल राजाश्रय ही प्राप्त न था अपितु वह कतिपय राज्योंका आश्रय भी था। वनवासीके कदम्बकुल और गंगावाडीका गंगवंश इस तथ्यके ज्वलन्त साक्षी हैं । ऐहोल शिलालेख बताता है "युद्ध पराक्रमके द्वारा जयश्रीके ग्राहोता महा तेजस्वी राजाओंके लिए मत्तगज समान जिसने ( पुलकेशीने ) सहसा हो कदम्बों रूपी कदम्ब वृक्षोंके समूहको अशेष रूपसे नष्ट कर दिया था।" अर्थात् चालुक्यों द्वारा पददलित बनवासीकी रज्यलक्ष्मी कदम्बोंको छोड़कर चली गयी थी। तथापि "जैन मन्दिरोंकी समुन्नत अवस्था उनमें होने वाले पूजनविधान, इनके व्ययको चलानेके लिए दिये गये। राजाओंके उदार दान, यह सिद्ध करते हैं कि कदम्ब साम्राज्यमें जैनधर्म लोकप्रिय धर्म था तथा ऐसे नागरिक पर्याप्त संख्यामें थे।
जो श्री १००८ जिनेन्द्रदेव की पूजा करते थे। इस युगमें जैनधर्म शैवसम्प्रदायका सबल प्रतिद्वन्द्री हो गया था। तथा कदम्ब A कालमें निर्वाध गतिसे फैलता जा रहा था।"3 ये उद्गार वरांगचरितके २२-२३ वें सर्गोंके जिनमह वर्णनकी प्रतिध्वनिसे प्रतीत होते हैं । जैनाचार्य सिंहनन्दिको सहायतासे प्रतिष्ठापित गंगवाडीके गंगवंशका तो कहना ही क्या है। इस वंशके वर्तमान कुलधरोंपर आज भी मर्यादा-मंत्री चामुण्डरायकी महत्त्वाकांक्षा हीन स्वामि परायणता तथा धार्मिकताकी छाप है। यहां अनेक भट्टारकोंकी गद्दियां तो हैं ही; श्री १००८ गोम्मटेशके महामस्तकाभिषेकमें प्रथम कलश भी राज्यका ही होता है।
आठवीं सदींके मध्य ( ई० ७५३ के लगभग ) वातापीके चालुक्य विक्रमादित्य ( द्वि० ) के पुत्र तथा उत्तराधिकारीको पराजित करके दन्तिदुर्गने नये करनाट-महाराष्ट्र राज्यका निर्माण किया था जो राष्ट्रकुट नामसे इतिहासमें अमर है । इस वंशके राज्यकालमें जैनधर्म को राजधर्म होनेका सौभाग्य प्राप्त था। समस्त दक्षिण भारतमें फैले जैन मन्दिरोंके खण्डहर अथवा इतर धर्मायतनोंमें परिवर्तित जैनायतन ये बतलाते हैं कि जटाचार्यने जिन विशाल जिन भवनादिका वर्णन किया है वे केवल कविकी कल्पना ही न थे । जटाचार्य द्वारा दिया गया होरा, माणिक, नीलम आदिकी जिनमूर्तियां बनवानेका उपदेश भी दक्षिणमें बहुलतासे कार्यान्वित हुआ था। इसकी साक्षी मडबिदरेके जिनमन्दिर आज भी दे रहे हैं। पौराणिक घटनाओंको दीवालों तथा छतों पर चित्रित करना अथवा अंकित करनेके जटाचार्य के वर्णनको परछांयी हलीवीड, मडविदुरेआदिके मन्दिरोंमें आज भी स्पष्ट झलकती है। अन्य वरांगचरित
वर्द्धमान कविका वरांगचरित"-जटाचार्यके समयका विचार करते समय देखा है कि १३वीं शती तकके ग्रन्थकारोंने विविध रूपसे जटासिंहनन्दिका स्मरण किया है। इसके बाद के ग्रन्थकारोंका उनके विषयमें मौन खटकता है आचार्यके अनुगामियोंका शोधक जब कारणकी खोज करता है तो उसे एक ऐसा संस्कृत वरांगचरित मिलता है जिसे रचयिता स्वयं 'संक्षिप्य । १. स्टडीज इन साउथ इण्डियन जैनिज्म, पृ०१११ । -(ए० इं०, भा ८, पृ०७) २. ऐहोल शिलालेख, श्लो० १७, ए० ई०, ( भा०
८, पृ० ५)। ३. मोरे कृत कदम्बकुल, पृ० ३५ तथा २५२। ४. डा० आल्तेकर कृत राष्ट्रकूटस्, पृ०। ५. सराठी अनुवाद । सहित सन् १९२७में पं० जिनदास, शोलापुर द्वारा संपादित ।
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