Book Title: Varangcharit
Author(s): Sinhnandi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 22
________________ बराङ्ग चरितम् जटाचार्य के समयको धार्मिक-सामाजिक अवस्था वरांगचरितके १५, १६ आदि सर्गों में विशाल जिन मन्दिरोंका वर्णन है । वे कितने श्री सम्पन्न थे इसका भी विशेष चित्रण आचार्य ने किया है। उनमें हीरा, माणिक, नीलम आदिको मूर्तियाँ थीं । आचार्यने उनकी भित्तियोंपर बने पौराणिक चित्रों का उल्लेख किया है । पर्वोके समय किस सज-धजके साथ महामह आदि वहाँ होते थे यह वर्णन पाठकको रोमाञ्चित कर देता है। क्या स्त्री क्या पुरुष दोनों ही अधिकसे अधिक पूजा, स्वाध्याय, दानादि करते थे। इतना ही नहीं मंदिरों को ग्राम तक लगाये जाते थे । तात्पर्य यह कि वर्णनसे ऐसा लगता है कि आचार्य उस समयका वर्णन कर रहे हैं जब दक्षिणमें जैनधर्म उत्कर्षकी चरम सीमापर था। इतना हो नहीं अन्य धर्मोकी संभवत वैसी स्थिति नहीं थी अन्यथा २४वें तथा सर्ग में आचार्य afe मतोंपर इस प्रकार आक्रमण न करते। जैनेतर देवताओंका निराकरण वैदिक यागादि तथा पुरोहितोंके विधि विधानों का खण्डन तथा ब्राह्मण प्रधान समाजका विरोध स्पष्ट बताता है कि शैवादि मतोंकी इस समय उतनी अच्छी अवस्था नहीं थी जितनी जैन धर्म तथा जैनाचार्योंको थी। यही कारण है कि उन्होंने ब्राह्मणपर बड़े-बड़े व्यङ्गय किये हैं वे कहते हैं कि ब्राह्मण राजसभा से निकाल दिये जाते हैं तो क्रुद्ध होते हैं किन्तु उनका क्रोध या शाप व्यर्थ हो जाता है । इस कथनसे स्पष्ट है कि उस समय ब्राह्मणोंको राजाश्रय प्राप्त नहीं था। और असंभव नहीं कि जटाचार्यके देशमें सर्वत्र जैनधर्मको जय थो। आपाततः हमारा ध्यान ७वीं ८वीं शतीके कर्णाटकके इतिहासकी ओर जाता है । प्राचीन भारतीय इतिहास के प्रवाह परिवर्तनका प्रबल साक्षी पुलिकेशी द्वितीयका 'ऐहोल शिलालेख " ऐसे ही समय में अंकित किया गया था जब दक्षिण भारत "जयति भगवाज्जिनेन्द्रो " से गूंज रहा था। यह लेख गत शक संवत् ५५६ ( ६३४-५ ( ई० ) में अंकित किया गया था जैसाकि वहाँ दत्त भारतवारसे ३७३५ वर्षं वीतनेपर' निर्देशसे स्पष्ट है । इस शिलालेख के विद्वान् सम्पादक कोलहोर्न इसे साहित्यिक दृष्टिसे भी अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं वे लिखते हैं-"सैंतोसवीं पंक्तिका वर्णन शिलालेख के कविको कालिदास और भवभूतिकी श्रेणी में बैठाता है, निश्चित हो यह अतिशयोक्ति है। किन्तु मेरी दृष्टि से यह शिलालेख कवि को सभा पण्डितों तथा प्रशस्तिकारोंकी प्रथम पंक्ति में बैठा देता है। रविकीर्ति अलंकार शास्त्र के नियमोंके पण्डित हैं और सच्चे दाक्षिणात्य के समान कतिपय उत्प्रेक्षाओं में सर्वोपरि हैं। " पद्मचरित के अन्त में दत्त समयका निर्देश भी इसी के आस पास है । फलतः अनायास ही आधे नामका साम्य यह कल्पना उत्पन्न करता है कि ऐहोल लेखके कवि रविकीर्ति और पद्मचरित के यशस्वी रचयिता रविषेणमें कोई सम्बन्ध तो न था ? क्योंकि पद्म ( राम ) चरित ऐसा महापुराण सहज हो इन्हें कालिदास १. चालुक्य ( वातापी ) पुलकेशी द्वितीयका ऐहोल शिलालेख, प्रथम पंक्ति ( एपीग्राक्रिया इण्डिका, भा० ८, पृ० ४ ) । २. “त्रिशत्सु त्रिसहस्रेषु भारतादाहवादित' । सप्ताब्द शत युक्तेषु शगतेष्वब्देषु पञ्चसु । " ३. एपीग्राफिया इण्डिका, भा० ८, पृ० ३ । ४. पद्मचरित, खण्ड ३, पर्व १२३, श्लो० १८१, पृ० ४४५ । Jain Education International For Private Personal Use Only [ E. I. vol. viii, P7.] भूमिका [१९] www.jainelibrary.org

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