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भूमिका
वरांगचरित आद्य-महाकाव्य था । हरिवंश पुराणका निर्देश यद्यपि रविषेणाचार्यकी काव्यमयी मूर्तिको बरांगचरितसे पहिले रखता A है तथापि इसके हो आधारपर पूर्वापरताका निर्णय दे देना शीघ्रकारिता होगी, क्यों उद्योतनसूरि ही नहीं, आचार्य जिनसेन (द्वितीय ) की दृष्टि में भी जटाचार्य प्रथम महाकवि थे। पद्मचरित तथा वरांगचरितके नामोंको सदृशता, उद्योतनसूरि द्वारा पहिले 'जडिल' का स्मरण फिर रविषेणका निर्देश आचार्य जिनसेन प्रथम द्वारा एक ही साथ सा पद्मचरित तथा वरांगचरितका ।
महिमागान तथा जिनसेन द्वितीय द्वारा केवल जटाचार्यका संस्तवन यही संकेत करता है कि वरांगचरित प्रथम महाकाव्य था। चरितम्
मंत्रिवर चामुण्डराय आदिके निर्देश भी इसी निष्कर्षका संकेत करते हैं। अपभ्रंश हरिवंश पुरागका निर्देश यद्यपि इस क्रमसे नहीं, है नथापि इसमें कालक्रमका ख्याल करके ग्रन्थ तथा ग्रन्थकारोंके नाम दिये हों ऐसी बात भी नहीं है। क्योंकि यह रविषेणके ।
पद्मचरितके साथ-साथ जिनसेन प्रथमके हरिवंशका भी वरांगचरित और जटिलमुनिसे पहिले उल्लेख करता है। देशो भाषाके - कवियोंके निर्देशोंके द्वारा भी इसी मान्यताका समर्थन होता है क्योंकि उनमें केवल जटासिंहनन्दिके स्तोताओंका ही बहुमत है। । पद्मचरित जहाँ विस्तृत मंगलाचरण करता है वहीं वह भी अपने पूर्ववर्तियोंके विषयमें सर्वथा मौन है। सौभाग्यसे रविषेणाचार्यने
अपनी कृतिके अन्त में समय दे दिया है अतएव उनका समय निश्चित है किन्तु वरांगचरित समयके विषयमें कोई भी सबल संकेत नहीं देता है फलतः इन दोनों पुराण ग्रन्थोंके आदिमें पूर्ववर्ती ग्रन्थकारोंका अनिर्देश तथा उत्तरवर्ती उद्योतनसूरि, जिनसेनाचार्य प्रथम तथा द्वितीय आदिके निर्देशोंके आधारपर यही कल्पना होती है कि जैन-कवि परम्परामें जटाचार्य आदि पुरुष । रहे होंगे। जटाचार्यके सहगामी
वरांग-चरितके वस्तु तथा वर्णन आदिको देखनेपर पता चलता है कि जटाचार्यने सुसंयत जीवनका उपदेश दिया है। इस संयत जीवनको प्राण प्रतिष्ठा करते हुए जटाचार्यने जैनाचार-विचारका उपदेश दिया है। इसलिए जैन पारिभाषिक शब्दोंका बहुलतासे प्रयोग करके अपने काव्यको संस्कृतज्ञोंके लिए भी श्रमसाध्य बना दिया है। संसारकी अनित्यता, धर्मकी श्रेष्ठता, मनुष्य जन्मकी दुर्लभता धर्म-अर्थ-कामादिका 'परस्पराविरोधेन' केवन आचार्यके मुख्य विषय हैं। इन सब बातोंको दृष्टिमें रखते। हुए जब हम अश्वघोषकी कृतियोंको देखते हैं तो दोनोंकी समता 'हाथका आँवला' हो जाती है । अश्वघोषने भी त्याग मय जीवन-g
का उपदेश दिया है इसके लिए उन्होंने बौद्ध आचार-विचारका प्रतिपादन किया है। इनकी कृतियोंमें भी बौद्ध पारिभाषिक पदों।। की भरमार है और वे विद्वजन संवेद्य हैं। 'चतुरार्य सत्यों का प्रतिपादन इनका थी मुख्य विषय है। इसके सिवा अश्वघोषकी । कृतिका नाम बुद्धचरित तो जटाचार्यको इनके अति निकट ला देता है क्योंकि इनकी कृतिका नाम भी वरांग चरित है। वेद
ब्राह्मणकी सर्वोपरिताके समान संस्कृतको श्रेष्ठताको अश्वघोषने भो नहीं माना है। इनके सौन्दरनन्द तथा बुद्धचरितमें व्याकरण । विषयक वैचित्र्य जटाचार्यके हो समान हैं। चोनो यात्रो ह्वेनसांग द्वारा उस युगमें दक्षिण-भारतमें बौद्धधर्मको फलता फूलता लिखना यह निष्कर्ष निकालनेके लिए बाध्य करता कि जटाचार्यने शायद अश्वघोषको कृतियाँ देखी होंगी। यदि ह्वेनसांगके विवरणमें वह दृष्टि न होती जो एक अति श्रद्धालु धार्मिक यात्रीकी होती है। तथा अश्वघोषको कृतियोंकी प्रतियाँ दक्षिणभारतमें भी मिलीं होती तो यह कल्पना कुछ आधार हो सकती थी। संयोगकी बात है कि अब तक जितनी भी प्रतियाँ अश्वघोष
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