Book Title: Varangcharit
Author(s): Sinhnandi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 18
________________ बराङ्ग परितम् FAAAAAAA जटाचार्य जैनसिद्धान्तके प्रगाढ़ पंडित थे । जब वरांगचरितके चौथे सर्ग में पहुंचते हैं तो यह ध्यान ही नहीं रहता कि किसी काव्य-1 को देख रहे हैं अपितु ऐसा प्रतीत होता है कि धर्मशास्त्रका अध्ययन चल रहा है। डॉ० उपाध्येने ठीक हो अनुमान किया है । कि आचार्य गृद्धपिच्छके तत्वार्थसूत्रको ही सुकुमारमति पाठकोंके सामने रखनेके लिए आचार्यने वरांगचरितकी सृष्टि की होगी। जैन सिद्धान्तका कोई भी ऐसा सिद्धान्त नहीं है जिसका आचार्यने वरांगचरितमें प्रतिपादन न किया हो। गृहस्थाचारसे लेकर 1 भूमिका ध्यान पर्यन्त सभी बातोंका सांगोपांग वर्णन इस ग्रन्थमें उपलब्ध है। जटाचार्य की दृष्टिमें काव्य 'अकल्याणके विनाश' तथा 'तुरन्त वैराग्य और निर्वाणके लिए'२ ही था। आचार्यने देखा होगा कि लोगोंकी प्रवृत्ति धर्मशास्त्रोंके स्वाध्यायसे हटती जाती है। वाल्मोकिकी रामायणादि ऐसे काव्य ग्रन्थोंकी ओर बढ़ रही है। उन्हें तो लोककल्याण हो अभीष्ट था फलतः उन्होंने रत्नत्रय स्वरूप अर्हद्धर्मके ज्ञान तथा आचरणके लिए यह धर्मकथा ( महाकाव्य ) रच डाली। यही कारण है कि वर्ण्य विषयोंका क्रम तथा कहीं-कहीं पद्योंका भाव सहज ही सूत्रकार तथा उनके सूत्रों को स्पष्ट समतामय दिखता है। आचार्यने इस बातका पूरा ध्यान रखा है कि कोई मौलिक चर्चा छूट न जाय यही कारण है कि चौथेसे दशवें सर्ग तक गतियोंका वर्णन कर चुकनेपर उन्होंने देखा कि इस सबके मूल हेतु सम्यक्त्व-मिथ्यात्वका स्वरूप तो रह गया। फिर क्या था ग्यारहवें सर्गके प्रारम्भमें युवराजके द्वारा प्रश्न किया जाता है और संसार तथा मोक्षके महाकारण रूपसे इन दोनोंका निरूपण हो जाता है। तथ्य तो यह है कि सैद्वान्तिक तथा दार्शनिक चर्चाओंके कारण ही इस आदि महाकाव्य में भाषा प्रवाह, सुकुमारकल्पना, अलंकार बहुलता आदिको उस मात्रामें नहीं पाते जिस मात्रामें उनका प्रारम्भ हुआ था, अथवा कालिदासादिके महाकाव्योंमें पायी जाती है । यह तो जटाचार्यकी लोकोत्तर प्रतिभा थी जिसके बलपर वे तत्त्वचर्चा ऐसे नीरस विषयको लेकर भी अपनी कृतिकी काव्यरूपताको भी अक्षुण्ण रख सके। सिद्धान्तके समान आचार्यका न्यायशास्त्रका ज्ञान भी विशाल था। आचार्यके इस ज्ञानका उपयोग जैन-सिद्धान्तकी मल मान्यता कर्मवादकी प्रतिष्ठामें हुआ है । अन्तरंग तथा बहिरंग पराधीनताके कारण कर्तृत्ववादपर उनका मुख्य आक्रमण है। उन्होंने कालवाद, दैववाद, ग्रहवाद, नियोगवाद, नियतिवाद, पुरुषवाद, ईश्वरवाद, आदि समस्त विकल्पोंको उठाकर इनका बड़े सौन्दर्यके साथ अकाट्य युक्तियों द्वारा परिहार किया है। इनके एकान्त स्वरूपका प्रतिपादन करते हुए इनको प्रत्यक्षवाधित सिद्ध किया है । बलिवादका चित्रण करते हुए जटाचार्य कहते हैं कि वह बलि क्या फल देगी जो आराध्य देवोंमें पास जानेके पहिले ही काकादि पक्षियों द्वारा खा ली जाती है। और पहुँचतो भी हो तो वह देव क्या करेगा जो भेंटके लिए लालायित रहता है। 'समय ही प्रत्येक वस्तुका बलाबल' करता है तो संसारके कार्योंमें इतनी अधिक अव्यवस्था तथा आकस्मिकता क्यों है ? यदि अनुकूल प्रतिकूल ग्रह ही लोगोंके शुभ तथा अशुभको करते हैं तो यह सबसे बड़ी वञ्चना है क्योंकि भले-बुरेके अन्य प्रत्यक्ष हेतु देखने में आते ही हैं । इतना ही नहीं स्वयं सूर्य तथा चन्द्रमा अपने सजातीय राहु तथा केतुके द्वारा क्यों ग्रसे जाते हैं और [१५] १. वरांगचरितकी भूमिका, पृ० २० । २. "काव्यं".."शिबेतर क्षतये । सद्यः परिनिवृतये ॥" ( काव्यप्रकाश)। Jain Education intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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