Book Title: Tulsi Prajna 1992 01
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 13
________________ ही स्थान पर परिभ्रमण करता रहता है। उसके चौतरफ परिभ्रमण करने वाले सात, सात तारों के दो समूह हैं जो छोटे, बड़े सप्तर्षि मण्डल कहे जाते हैं। ऋग्वेद में इन्हें "नः पितरः"-हमारे पूर्वज कह कर स्मरण किया गया है। ऋग्वेद में सप्तषियों को 'नवग्वाः' और 'दशग्वाः' कहा गया है। "ते दशवाः प्रथमा यज्ञमूहिरे"-अर्थात् दशग्वाः नक्षत्र (सप्तर्षि बड़े) प्रथम यज्ञ कर्ता हैं और 'यया तरन् दशमासो नवग्वा:'-दश मास तक दृश्यमान रहने से छोटे सप्तर्षि भी आंगिरस हैं । ऋग्वेद में ही सप्त होताओं का भी विवरण है। ये सप्त होता (यज्ञकर्ता) भृगु और अथर्वा के नेतृत्व में क्रमशः दशग्वा और नवग्वा कहे गए हैं, यही आंगिरस हैं । यज्ञ कर्ता हैं। सप्त मुख दशग्वों पर उषा की कृपा रहती है। अतः उन्हें 'गवां अयन' और दूसरे को 'आंगिरस अयन' कहा गया है। दोनों ही का कालमान दशमाह बताया गया है।" ऋग्वेद (१०.१०६.४) में साफ लिखा है-'सप्त ऋषयस्तपसे ये निषेदुः'-कि वे सप्तर्षि हैं जो तप के कारण वहां आसमान में बैठे हैं । शतपथ ब्राह्मण के लेखनकाल में वे स्थाई रूप से उत्तर में उदित होने वाले तारे मान लिये गये थे (अमी ह्य त्तरा हि सप्तर्षय उद्यन्ति-२.१.२.४)।" ऋग्वेद (१.११५.१) में सूर्य को चराचर जगत् का आत्मा (सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च) कहा गया है किन्तु उसे काल का कारण नहीं माना गया। सर्व प्रथम वायुपुराणकार उसे दिन की नाभि कहता है क्योंकि वह चक्रवत् चलता है- अहस्तु नाभिः सूर्यस्य एक चक्रः स वै स्मृतः' (५१.६०) । वह चन्द्रमा, सप्तर्षि और अन्य सब ग्रहों का प्रतिष्ठायक भी सूर्य को ही मानता है नक्षत्र ग्रह सोमानां प्रतिष्ठा योनि रेव च । चन्द्र ऋक्ष ग्रहा सर्वे विज्ञेयाः सूर्य संभवाः ॥ और मैत्रायणी उपनिषद् (६.१४) में तो साफ ही कह दिया गया है कि-सूर्य ही काल का कारण है। इसी भाव को वृद्ध गर्ग ने 'कालज्ञानं महापुण्यं कालश्चादित्य उच्यते' -कह कर दोहराया है। इस प्रकार भारत की प्राचीन कालगणना नक्षत्रों पर आधृत है। आज का नक्षत्र विज्ञानी जानता है कि बृहस्पति, नक्षत्र जगत् का सबसे बड़ा ग्रह है। शुक्र भी बहुत बड़ा ग्रह है किन्तु वह पृथ्वी से अधिक सूर्य के निकट है इसलिए सूर्योदय से पूर्व और सूर्यास्त के बाद आसमान में निश्चित स्थान पर दीख पड़ता है । मृग नक्षत्र-आद्रा भी व्यास में सूर्य से ४५० गुणा बड़ा है । ध्रुव पृथ्वी की उत्तरी धुरी के ठीक ऊपर दीखता है। वह नक्षत्र जगत् की भी धुरी लगता है। उसके चौतरफ लघु सप्तर्षि और बृहत् सप्तर्षि दाहिने से घूमते नजर आते हैं। सप्तर्षियों के ठीक सामने शर्मिष्ठा के पांच तारे हैं। दायें-बायें ब्रह्ममण्डल के आठ और नक्षत्र अभिजित् के पांच तारे हैं जो सभी प्रदक्षिणा में दीख पड़ते हैं।* जैनागम-ठाणं में पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभद्रपद, पूर्वफाल्गुनी, उत्तरफाल्गुनी नक्षत्रों खण्ड १७, अंक ३ (जनवरी-मार्च, ६२) १५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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