Book Title: Tulsi Prajna 1992 01
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 14
________________ में दो, दो तारे, अभिजित्, श्रवण, अश्वनी, भरणी, मगसिर, पुष्य, ज्येष्ठा नक्षत्रों में तीन, तीन तारे और धनिष्ठा, रोहिणी, पुनर्वसु, हस्त, विशाखा नक्षत्रों में पांच, पांच तारे बताए गए हैं। ___ वहां लिखा है कि अभिजित्, श्रवण, धनिष्ठा, रेवती, अश्वनी, मृगसिर, पुष्य, हस्त और चित्रा-ये ६ नक्षत्र चन्द्रमा के पृष्ठभाग में रहते हैं और कृत्तिका, रोहिणी, पुनर्वसु, मघा, चित्रा, विशाखा, अनुराधा और ज्येष्ठा चन्द्रमा से स्पर्श योग करते हैं। ठाणम् में १५,३० और ४५ मुहूर्त तक प्रकाशमान दीखने वाले तारों का भी विवरण है। वहां मघा नक्षत्र में सात तारे बताए गए हैं ।१५ उपर्युक्त परिदृश्य भारतीय कालगणना की प्रगति दर्शाता है। हमारी कालगणना में बृहस्पतिमान (१२ वर्ष) और बार्हस्पत्य संवत्सर (पांच बृहस्पति मान अथवा पांच-पांच वर्षों के १२ युग ) का विशेष महत्त्व है। बृहस्पति और शुक्र हमारे प्रथम काल-निदेशक हैं। कालान्तर में उत्तरी ध्रुव की पहचान हुई और उसे धुरी जानकर पृथ्वी का परिभ्रमण समझा गया और फिर सूर्य का महत्त्व उजागर हुआ। आरंभ में बहुत से नक्षत्रों की तरह धुंध और गैस के आवरण में ढका होने से सूर्य अथवा सूर्यों को मण्डल की संज्ञा प्राप्त न थी। आज भी सूर्य का अपना मण्डल छोटे-छोटे ज्योति पुंज (asteroids) और धूमकेतुओं (comets) से घिरा है और पृथ्वी और सूर्य के बीच में शुक्र (venus) दीख पड़ता है। ४. गणना में व्यतिक्रम भारतीय गणना बहुत व्यवस्थित और परितः प्रमाणित गणनाएं हैं। अत्यधिक प्राचीनता और बहुमुखी प्रगति के कारण उनमें व्यतिक्रम हो गए। लगभग एक सहस्राब्दी पूर्व व्यतिक्रम और व्यामोह अधिक बढ़े। कश्मीरी पं० कल्हण तो स्पष्ट कहते हैं भारतं द्वापरान्तेऽभूद्वार्तयेति विमोहिताः । केचिदेतां मृषा तेषां कालसंख्या प्रचक्रिरे ।। कि लोग इस दन्तकथा से कि महाभारत युद्ध द्वापर और कलि की संधि में हुआ, मोहित होकर मिथ्याकाल की परिकल्पना किये हुए हैं। उन्होंने कुरु पाण्डवों को कलियुग के ६५३ वर्ष बीतने पर हुआ माना है। कुछ अन्य विद्वान् निम्न दो श्लोक उद्धृत करके मघा नक्षत्र से पूर्व नक्षत्र आश्लेषा से वाम (उल्टी) ओर से गणना करते हैं पंचसप्तति वर्षाणि प्राक्कालेः सप्त ते द्विजाः । मघास्वासन् महाराजे शासत्युर्वी युधिष्ठिरे ॥ पंच विंशतिवर्षेषु गतेष्वथ कलौयुगे । समाश्रयन्त्याश्लेषां मुनयस्ते शतं समाः ॥ १८४ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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