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ने समान रूप से इसकी उपयोगिता स्वीकार की है। एक फ्रेंच महिला ने 'जनसिद्धान्त दीपिका' पर पी-एच. डी. भी किया है ।
भिक्षु न्यायfणका की रचना वि. सं. २००२ में भाद्र शुक्ला ६ के दिन श्रीडूंगरगढ़ (राजस्थान) में सम्पन्न हुई है । यह सात विभागों में ग्रथित है । पहले विभाग में लक्षण और प्रमाण के स्वरूप का निरूपण है । दूसरे विभाग में प्रत्यक्ष के स्वरूप का निरूपण है । तीसरे विभाग में मति के स्वरूप का निरूपण है । चौथे विभाग में श्रुत के स्वरूप का निरूपण है । पांचवें विभाग में नय के स्वरूप का निरूपण है । छठे विभाग में प्रमेय और प्रमिति के स्वरूप का निरूपण है। सातवें विभाग में प्रमाता के स्वरूप का निरूपण है । इसकी कुल सूत्र संख्या १३७ है । इसके भी संपादक युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ और हिन्दी भाषा में अनुवादकर्त्री साध्वी प्रमुखाश्री कनकप्रभा हैं ।
इनके अतिरिक्त युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ ने "न्याय पंचशतिः” की रचना की है । मुनिश्री नथमल ( बागौर) ने न्याय और दर्शन के क्षेत्र में "युक्तिवादः " और "अन्योपदेशः " नामक दो ग्रंथों का निर्माण किया है, किन्तु ये सब अप्रकाशित हैं ।
योग
तत्त्वदर्शन की तरह साधना पद्धति के क्षेत्र में जैन आचार्यों ने काफी गहराई का स्पर्श किया है । प्रत्येक धर्म का अपना स्वतन्त्र साध्य होता है और उसकी सिद्धि के लिए उसी के अनुकूल साधना पद्धति होती है। महर्षि पतंजलि ने सांख्यदर्शन की साधना पद्धति को व्यवस्थित रूप दिया और "योग" नाम से एक स्वतन्त्र साधना पद्धति विकसित हो गई । अब हर साधना पद्धति योग नाम से अभिहित होती है । इसी प्रकार जैन साधना पद्धति को जैन योग और बौद्ध साधना पद्धति को बौद्ध योग कहा जाने लगा | जैन साधना पद्धति की स्वतन्त्र संज्ञा भी है जाता है ।
जिसे मोक्ष मार्ग कहा
जैन योग पर सम्यग् प्रकाश डालने वाले अनेक ग्रंथ जैन आचार्यों द्वारा लिखे जा चुके हैं, जिनमें समाधितन्त्र, योग दृष्टि समुच्चय, योगबिन्दु, योगशास्त्र, योग विद्या, अध्यात्म रहस्य, ज्ञानार्णव, योग चिन्तामणि, योग दीपिका आदि प्रमुख हैं । आज के वैज्ञानिक युग में योग का भी वैज्ञानिक विश्लेषण किया जा रहा है। वैज्ञानिक उपलब्धियों की आधारभूत इकाई भी योग है । अतः यह आवश्यक माना जाने लगा कि वैज्ञानिक प्रगति के समानान्तर योग के रहस्यों का भी नये सन्दर्भों में उद्घाटन हो । भारतीय योग ने पश्चिम को भी प्रभावित किया है। जैन योग के सन्दर्भ में भारत और विदेशों में विभिन्न जिज्ञासाएं उत्पन्न होने लगीं । उनका समाधान बहुत आवश्यक था । आचार्यश्री तुलसी ने योग विषयक "मनोनुशासनम् " ग्रन्थ का प्रणयन कर एक बहुत बड़ी आवश्यकता की पूर्ति की है। इसकी उपयोगिता जैन और जैनेतर सभी विद्वानों मुक्त कंठ से स्वीकार की है । यह आकार में लघु सकता है। पर प्रकार में गुरु है । इसमें योग सम्बन्धी सर्व साधारण द्वारा अग्राह्य सूक्ष्मताएं नहीं हैं । किन्तु जो है,
हो
वह अनुभूतिजन्य और बहुजन साध्य है ।
मनोनुशासनम् की रचना वि० सं० २०१८ में धवल समारोह के अवसर पर हुई
तुलसी प्रज्ञा
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