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क्रमशः 'गीतों का गुलदस्ता' और 'उलझे तार' छपे थे। मुनि मोहजीतकुमार ने गुलदस्ते के गीतों का संग्रह किया और उनकी लय (तर्ज) पहचान कर उन्हें संपादित किया । 'उलझे तार' में प्रकाशित कविताओं का संपादन नहीं हुआ, किन्तु मुनिश्री ने स्वयं स्पष्ट कर दिया कि 'उलझे तार मेरी प्रारंभिक कविताओं का संग्रह है। उनमें किसी निश्चित जीवन-दर्शन की पृष्ठभूमि नहीं है । यह भी उन्होंने लिख दिया ।
गुलदस्ते में ७१ हिन्दी में और ४२ राजस्थानी में लिखे गीतों का संग्रह है । इन गीतों में गेय तत्त्व प्रधान है। विषयवस्तु प्रायः आध्यात्मिक है किन्तु कहीं भी अरुचिकर नहीं लगती । 'पहले निज लक्ष्य बनायें ! दृढ़ता से फिर उस ओर निरन्तर आगे बढ़ते जायें !!' और 'अर्हम् अर्हम् अर्हम् अर्हम् उच्च स्वर से बोल रे ! सांसों की चाबी से अपने मन का ताला खोल रे !!' इसी प्रकार राजस्थानी में - 'प्रभूजी रा गीत आपां आज गावांला ! भगती रा फूल चरणां चढावांला !!' और 'पायो भैक्षव शासनसार, अपणो भाग्य सरावो रे ! होसी निश्चय बेड़ो पार अपणो भाग्य सरावो रे ! !' जैसे गीत समूह गान की तरह गाए जा सकते हैं । स्वयं कवि ने कहा है - जो गीतिकाएं सहज बनती हैं, वे प्रभावशाली भी रहती हैं। जिन्हें बहुत सोच-विचार या जोड़-तोड़ कर बनाया जाता है वे अधिक प्रभावकारी नहीं होती ।' किन्तु गुलदस्ते की बहुसंख्यक गीतिकाएं प्रभावोत्पादक हैं । यह कवि की अपनी सफलता है ।
और बेलाग बात कही है कि 'मैंने किसी जीवन में जो प्रतीति हुई है, उसे अकृत्रिमकवि का यह कथन भी अधिकांश में सार्थक
'उलझे तार' के संबंध में कवि ने एक अनुभूति को उधार नहीं लिया है। मेरे अपने भाव से मैंने कविता के कपड़े पहनाये हैं ।' है । 'संभल-संभल कर चलो, घाव पर ठेस नहीं लग जाए'; 'तुमने जब मेरी वीणा पर हाथ रखा है । कोई स्वर उसमें से निश्चित निकलेगा ही !! ' आदि कविताएं कोई नई बात नहीं कहतीं, परन्तु अनुभूति निश्चित रूप से नई हैं ।
इसी प्रकार 'मुझे तर्क से भले निरुत्तर कर सकते हो, किन्तु स्वयं अपने को भी क्या छल सकते हो ?' अथवा 'आओ, हम आपस में मिलकर सुख भी बांटें, दुःख भी बांटें ।' -जैसी कविताएं भला किसे आकृष्ट नहीं करेंगी ? हां, हम असहमत हो सकते हैं कि"विष पीकर भी सुधा-सदृश उद्गार निकालो।" किन्तु जब कवि कहता है- "किसी विवशतावश तुमने विषपान किया है, वह तो अब कर चुके, उसे क्यों याद कर रहे हो ?" - तो प्रश्न सोचनीय नहीं रहता ।
सब मिलाकर दोनों काव्य कृतियां मनोरंजक और विचारोत्तेजक हैं । मूल्य कम होने से सहज प्राप्य भी हैं । प्रस्तुति और साज-सज्जा आकर्षक है ।
छन्दराउ जइतसी रउ ( वीठू सूजइ रउ कहियउ ) - प्रथम संस्करणसन् १६६१, संपादक – श्री मूलचन्द 'प्राणेश', मूल्य - साठ रुपये, पृष्ठ—–१२२+१२, प्रकाशक - भारतीय विद्या मंदिर शोध प्रतिष्ठान, रतनबिहारी पार्क, बीकानेर |
'छन्द राव जैतसी' राजस्थानी भाषा की उत्कृष्ट कृति है । राजस्थानी भाषा वैदिक वाङमय की तुरीय भाषा अथवा भरतमुनि द्वारा अभिसंज्ञित वाह्लीका भाषा से उद्भुत परंपरागत समृद्ध भाषा है । इस भाषा के बहुसंख्यक शब्द आधुनिक शब्द कोषों में नहीं
तुलसी प्रज्ञा
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