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प्रसिद्ध विद्वान् प्रो० डॉ० पी० एल० वैद्य के मार्गदर्शन में मैंने ऐसी ही पुस्तक लिखने का संकल्प किया था किन्तु प्रशासनिक कार्यों में अतिव्यस्त रहने से मैं अभी तक उसे पूरा नहीं कर पाया; इसलिये इस पुस्तक लेखन के लिए मेरी बधाई स्वीकार करें, जो हिन्दी माध्यम से प्राकृत अध्ययन में निस्संदेह महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगी।
-डॉ० जी० वी० तगारे ए-४, परंजपे हाउसिंग स्कीम
माववनगर रोड, सांगली . ६. दिगम्गरत्व और दिगम्बर मुनि- लेखक---कामता प्रसाद जैन, प्रकाशकश्री रघुवरदयाल जैन स्मृति ग्रन्थमाला, नई दिल्ली। प्रकाशन वर्ष-१६६१, पृष्ठ सं० १६२, मूल्य-स्वाध्याय।
प्रस्तुत पुस्तक में दिगम्बरत्व का प्रतिपादन किया गया है और इसे निर्दोषता, निर्भयता, निःशंकता, निरपेक्षता, निर्विकारता, निश्चितता तथा निर्लोभता का सूचक बताया गया है । वास्तव में छठवें-सातवें गुणस्थान की भूमिका में साधक के लिए वस्त्र ग्रहण करने का विकल्प ही नहीं आता। संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ के सिवाय अनन्तानुबन्धी आदि तीनों कषायों की चौकड़ी का अभाव हो जाने से उनके पूर्ण निर्ग्रन्थ दशा प्रकट हो जाती है । जब आत्मा में ही कोई ग्रंथि नहीं रही, तब तन पर वस्त्र की गांठ लगाने की बात ही नहीं उठती।।
वैसे अचल वह सचल के पक्ष-विपक्ष में अनेकों तर्क दिए जा सकते हैं, उनके लाभअलाभ गिनाए जा सकते हैं, परन्तु वे सब कुतर्क होंगे क्योंकि वस्तु के स्वरूप में कोई फर्क नहीं पड़ता । वस्तु का स्वरूप तो तर्क-वितर्क से परे है । पानी ठंडा क्यों होता है ? नारी के मूंछे क्यों नहीं हैं ? आदि प्रश्नों की तरह दिगम्बरत्व ठीक है या नहीं-इस पर भी कोई बहस नहीं हो सकती। तथापि मुनि को लोक व्यवहार और सामाजिक मर्यादा का ध्यान रखते हुए अन्यों को भी मोक्ष मार्ग का पथिक बनाने के लिए दिगंबरत्व की अवधारणा पर नए युग के परिप्रेक्ष्य में चिन्तन करना चाहिए।
लेखक ने प्रसिद्ध वैज्ञानिक आर्कमिडीज का उदाहरण दिया है जो भावावेश में सारे नगर में नग्न घूमा था और उसने आदि प्रचारक ऋषभदेव का उदाहरण देकर दिगम्बरत्व को उचित ठहराया है तथा इसी को मनुष्य की आदर्श स्थिति सिद्ध किया है । पुस्तक में आद्योपान्त दिगम्बर साधुओं की जीवनचर्या का बखान किया गया है तथा देशी शासकों व विदेशी आगन्तुकों द्वारा इसे सम्मान्य ठहराया है। विविध ग्रन्थों के उद्धरणों द्वारा लेखक ने दिगम्बरत्व को शाश्वत सुख दिलाने वाला राजमार्ग माना है किन्तु पुस्तक में रचनाकार को सर्वथा का अज्ञात ही रहने दिया गया है। 'प्रकाशकीय' तथा 'अन्तर्भावना' के अन्तर्गत जो स्वकथ्य प्रस्तुत हुआ है, वह भी आत्मश्लाघा से भरपूर है। फिर भी दिगम्ब रत्व का रहस्य जानने के लिए इस पुस्तक की उपादेयता असंदिग्ध है।
७. सचित्र तीर्थंकर चरितावली-रचनाकार-जीवन प्रकाश 'जीवन', प्रकाशक २३६
तुलसी प्रज्ञा
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