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पत्राक्ष:
१. 'तुलसी प्रज्ञा के अंक ३ खण्ड १७ की प्रति हेतु आभारी हूं। इस शोध-पत्रिका में आपने बड़ी महत्वपूर्ण सामग्री प्रकाशित की है। पुरातत्त्व विषयक समाचार भी आह्लादजनक है व विदेशी विद्वानों का परिचय भी। इन स्तंभों को जारी रखना चाहिये। प्रत्येक अंक में ऐसे लेख प्रकाशित हो सकें तो श्रेयस्कर होगा। पत्रिका का कलेवर भी सुन्दर है। यह निश्चित ही एक उच्चकोटि की पत्रिका बन जावेगी। प्रभु ! आपकी साधना स्वस्तीमती करें।'
- रत्नचन्द्र अग्रवाल, भूतपूर्व निदेशक
पुरातत्त्व एवं संग्रहालय विभाग, जयपुर-१५ २. 'तुलसी प्रज्ञा का अक्टूबर-दिसम्बर, १९६१ का अंक मिला। धन्यवाद । दिन पर दिन इस अनुसन्धान पत्रिका का संपादन निखरता जा रहा है। लगता है अगर यही क्रम जारी रहा तो यह पत्रिका जैन धर्म की एक श्रेष्ठ अनुसन्धान पत्रिका बन जायेगी । अस्तु, आप अगर जैन धर्म से हटकर भी इसमें कुछ अनुसंधानपरक सामग्री दें तो उचित होगा।'
---डॉ. गिरिजाशंकर शर्मा
अलखसागर कूएं के पास, बीकानेर ३. 'आज "तुलसी प्रज्ञा" के अक्टूबर-दिसम्बर, १६६१ के अंक से पता चला कि आप तो 'जैन विश्व भारती' में पहुंच गये हैं। आपके और विश्व भारती के लिए यह मणिकांचन संयोग है । तुलसी प्रज्ञा के रूप-स्वरूप में आपके द्वारा जो सुधार हुआ है, वह प्रशंसनीय है। आपका संपादकीय तो पत्रिका में प्रकाशित सभी लेखों से उत्कृष्ट एवं खोजपूर्ण है। आपकी प्रतिभा का शतप्रतिशत सही उपयोग इस पत्रिका के द्वारा ही होगा। इसमें संशय नहीं है । आप जैसे विद्वान् को तो बहुत पहले विश्व भारती वालों को बुला लेना चाहिए था। खैर, देर आयद दुरुस्त आयद ।
पत्रिका को अन्य सामग्री भी शोधपूर्ण है। इस तरह की सामग्रीसंकलन का श्रेय तो आप ही को जाता है । बधाई ।'
-~मूलचन्द 'प्राणेश'
झझू (बीकानेर) ४. 'तुलसी प्रज्ञा का अक्टूबर-दिसम्बर अंक देखकर संतोष हुआ। लगभग २३८
तुलसी प्रज्ञा
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