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पञ्चाशद्वर्षेभ्यः पूर्व रचितोऽपि मुद्रितः सम्प्रति । विलसति प्राकृतवाक्य-रचनाबोधाभिधो ग्रन्थः ॥१॥ श्री युवाचार्य रचितस्तथा च सम्पादितः कमलमुनिना। स प्राकृतभाषाया बोधविधायको भवेदाशु ॥२॥ नाना ग्रन्थाः परित: सन्तीह परं नैतादृशः कोऽपि ।। यः प्राकृतभाषाया बोधविधाने क्षमः क्षिप्रम् ।।३।। आकाशे चन्द्राधा ज्योतिष्मन्तः सहस्रशो नक्तम् ।
सूर्योदये परं ते जातत्रपया विलीयन्ते ॥४॥ ग्रन्थ रचना, सम्पादन, कागज, छपाई-सफाई और पक्की जिल्द आदि सभी नयनाभिराम और हृदयहारी हैं । ऐसे उत्तम ग्रंथ के प्रकाशन के लिए लेखक, सम्पादक और प्रकाशक-सभी हृदय से अभिनन्दनीय हैं ।
-अमृतलाल शास्त्री दो पाठकों के पत्र १. "पूज्य मुनि श्री श्रीचन्दजी द्वारा संपादित 'प्राकृत व्याकरण रचना बोध' पुस्तक मिली। पू० युवाचार्य श्री का जहां भी मन जाता है वहां कुछ नवीन ही मिलता है । आज तक प्राकृत बोध के लिए जितने भी व्याकरण लिखे गये हैं उन सभी में यह एक नया और अनुपम प्रयास है। यह पुस्तक न केवल प्राकृत भाषा सीखने में सहायक होगी अपितु प्राकृत बोलने और लिखने में भी एक उत्तम साधन सिद्ध होगी। विशेषता यह भी है कि अन्य प्राकृत व्याकरण में समास जैसे विषय की चर्चा नहीं रहती, वह प्रस्तुत में मिलती है। शब्द सूची का चयन भी एक नए प्रकार से हुआ है जो अधिक उपयोगी है । प्राकृत सीखने वालों के लिए एक यह अनुपम भेंट है।"
-दलसुख मालवणिया निदेशकचर, ला० द० भा० सं० विद्यामन्दिर, अहमदाबाद २. "मुझे प्राकृत रचना बोध पुस्तक मिली । मैं अभी 'ब्राह्मण, जैन, बौद्ध साहित्य में महाभूत्'-विषयक अपने व्याख्यान की तैयारी में व्यस्त हूं जो मुझ मार्च के शुरू में ही देना है, किन्तु मैं आपकी पुस्तक को सरसरी दृष्टि से देखने को बाध्य हो गया। यह परंपरागत प्राकृत व्याकरण का विशद अध्ययन है और इससे उन प्रौढ़ व्यक्तियों को भी बहुत लाभ होगा जो किसी कारणवश विद्यालय अथवा महाविद्यालय स्तर पर प्राकृत पढ़ने का सुयोग नहीं पा सके थे।
___ आजकल प्राकृत भाषाओं के दुर्दिन है किन्तु यदि इस पुस्तक के अनुसार पाठ्यक्रम तैयार किए जाएं तो विद्यालयों में प्राकृत पढ़ने में बहुत सहूलियत होगी और प्राकृत शिक्षकों को भी इससे बहुत सहयोग मिलेगा। सन् १९२८ में जब मैं 'हेमचन्द्र व्याकरण' पढ़ रहा था तो पालि-प्राकृत के
खण्ड १७, अंक ४ (जनवरी-मार्च, ६२)
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