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मूल राज्य की वापसी यात्राएं आदि ऐसी प्रत्यक्षदर्शी जानकारियां हैं जिनसे अध्येता वर्ग लाभ उठा सकता है। इसी भांति श्री छोगमलजी, जो एक बड़े वकील थे, ने आचार्यश्री के सुझाव पर सन् १९४८ में दैनंदिनी लिखना प्रारंभ कर दी थी। उसी दैनंदिनी को दिनांक सन् २४ मई, १९४८ से लेकर २२ अप्रैल, १९५२ तक दूसरे खण्ड में छापा गया है। यह दैनंदिनी जिस समय लिखनी प्रारंभ की गई थी, वह भारतीय इतिहास में एक संक्रमण काल था। भारत अंग्रेजी शासन से मुक्त हो चुका था तथा राजस्थान की विभिन्न रियासतों को सरदारपटेल राजस्थान में विलीनीकरण करने में व्यस्त थे। दैनंदिनी के अध्ययन से जानकारी मिलती है कि श्री चौपड़ा आचार्यश्री के सम्पर्क में आने के बाद अपना अधिकतर समय जैन श्वेताम्बर सम्प्रदाय की गतिविधियों में व्यतीत करने लगे थे। किन्तु जब कभी समय मिलता वे देश व अपने मूल राज्य बीकानेर की कांग्रेस पार्टी के लिए भी काम करने का समय निकाल लेते थे। शिक्षा प्रचार भी उनका कार्यक्षेत्र बन गया था। देश-विदेश के विद्वान् एवं राजनैतिक नेताओं से आपका सम्पर्क भी बना हुआ था। इसके अतिरिक्त दैनंदिनी से अन्य विविध प्रकार के विषयों पर भी प्रकाश पड़ता है। यह दैनंदिनी संपूर्णतः प्रकाशित नहीं हुई है । अच्छा हो इसे भविष्य में पूर्ण रूप से छाप दिया जाये।
तीसरे खण्ड जीवन गाथा में, जिसके कुल ५४ पृष्ठ हैं, श्री छोगमल चोपड़ा के परिजनों एवं उनके विशेष सम्पर्क में आये विशिष्ट लोगों द्वारा उनके जीवन के विभिन्न पक्षों को लेकर लिखे गये लेख विविध सूचनाओं को समेटे हुए हैं। चौथे खण्ड स्मृति गाथा में, जिसमें कुल ५६ पृष्ठ हैं, विभिन्न स्तर के विद्वानों, अधिकारियों और समाजसेवकों ने अपने-अपने संस्मरणों में श्री छोगमलजी के सम्बन्ध में विविध घटनाओं पर विस्तार से जानकारी प्रस्तुत की है। पांचवें खण्ड में गौरव गाथा के कुल सात ही पृष्ठ हैं । लेकिन श्री चौपड़ा की समाज के प्रति जो भी देन रही, उसके उपलक्ष्य में समाज ने समय-समय पर उन्हें जो सम्मान दिया तथा जीवन के अन्तिम सोपान पर उन्हें जो भावभीनी श्रद्धांजलि दी, उसकी अच्छी भली झलक इस खण्ड में मिलती है। अन्तिम परिशिष्ट वाले नौ पृष्ठों के खण्ड में श्री छोगमलजी ने अपने जीवन काल में समय-समय पर विभिन्न विषयों पर जो पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखे वे तथा ग्रन्थ में आये नामों की अनुक्रमणिका है वह सूचनापरक है।
जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा ने निश्चय ही इस ग्रन्थ का सुन्दर प्रकाशन करवाया है, जिसके लिए वह भी साधुवाद की पात्र है ।
-डा. गिरिजा शंकर शर्मा २. आगे की सुधि लेइ-आचार्य श्री तुलसी के प्रवचनों का संग्रह-प्रवचन पाथेय ग्रन्थ माला-१३, पहला संस्करण-१९६२, संपादक-मुनि धर्मरुचि, पृष्ठ-- २९८+६०, मूल्य-तीस रुपये, प्रकाशक-जैन विश्व भारती, लाडनूं ।
पिछले कुछ समय से आचार्यश्री के द्वारा दिये गये प्रवचनों का प्रकाशन हो रहा है । लघुता से प्रभुता मिले, जब जागे तभी सवेरा, मुखड़ा क्या देखे दरपन में, दिया
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तुलसी प्रज्ञा
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