Book Title: Tulsi Prajna 1992 01
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 40
________________ 'भिक्षु शब्दानुशासन' की रचना राजस्थान के थली प्रदेश में वि० सं० १९८० से १९८८ के बीच हुई । तेरापंथ के आठवें आचार्य श्री कालूगणी का व्याकरण विषयक अध्ययन बहुत विशद था। मुनिश्री चौथमल का अध्ययन अधिकांशतः कालूगणी के सान्निध्य में सम्पन्न हुआ। उन्होंने आगम, साहित्य, न्याय, दर्शन, व्याकरण, कोश आदि विविध विषयों का गहन अध्ययन किया । व्याकरण उनका सर्वप्रिय विषय था। उन्होंने पाणिनीय, जैनेन्द्र, शाकटायन, हेमशब्दानुशासन, सारस्वत, सिद्धान्त चन्द्रिका, मुग्धबोध, सारकोमुदी आदि अनेक व्याकरण ग्रन्थों का गंभीर मनन किया। आचार्य श्री कालूगणी की भावना थी कि एक समयोपयोगी, सरल और सुबोध संस्कृत व्याकरण तैयार हो ताकि संस्कृत के विद्यार्थियों के लिए सुविधा हो सके। क्योंकि उस समय उपलब्ध व्याकरणों में सारस्वत चंद्रिका बहुत अधिक संक्षिप्त थी। सिद्धान्तकौमुदी-वार्तिक फक्किका आदि की अधिकता के कारण जटिल थी। हेमशब्दानुशासन की रचना पद्धति कठिन थी । इस प्रकार एक भी ऐसा व्याकरण ग्रन्थ उपलब्ध नहीं था, जिसे सहज और सुगम माना जा सके । मुनिश्री चौथमल ने आचार्य श्री कालूगणी की भावना को साकार रूप दिया और आठ वर्षों के अनवरत परिश्रम से तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्षु के नाम से क्लिष्टता, विस्तार, दुरान्वय आदि से रहित एक सर्वांग सुन्दर व्याकरण तैयार किया। इसमें उणादिपाठ, धातुपाठ, न्यायदर्पण, लिंगानुशासन आदि का भी सुन्दर समावेश है । इस महान कार्य में सोनामई (अलीगढ़) निवासी आशुकविरत्न पं० रघुनन्दन शर्मा आयुर्वेदाचार्य का भी मूल्यवान सहयोग रहा । इसका सम्पादन मुनि राजेन्द्र कुमार ने किया है। भिक्षु शब्दानुशासन के विस्तृत होने के कारण प्रारंभिक छात्र उससे अधिक लाभ नहीं उठा सकते, यह सोचकर एक वर्ष के अहर्निश परिश्रम से मुनिश्री चौथमल ने आचार्य श्री कालूगणी के नाम पर कालूकौमुदी नामक संक्षिप्त प्रक्रिया तैयार की। कालू-कौमुदी एक संक्षिप्त किन्तु परिपूर्ण व्याकरण है। केवल कालूकीमुदी के अध्ययन से ही संस्कृत व्याकरण का सामान्यतः पूरा बोध हो सकता है। तेरापंथ धर्म संघ में इसके रचना काल से ही इसका अध्ययन-अध्यापन चल रहा है। इसके अध्ययन के अनन्तर भिक्षु शब्दानुशासन का अध्ययन चलता है। भिक्षु शब्दानुशासन के सूत्रों का क्रम सारस्वत व सिद्धान्त चन्द्रिका के समान ही बहुत सरल रखा गया है । इसके आठों अध्याय व्याकरण शास्त्र की समग्रता को प्रकट करने वाले हैं । मुनिश्री चौथमल ने अष्टाध्यायी क्रम से भिक्षु शब्दानुशासन की रचना की। पं० रघुनन्दन शर्मा आयुर्वेदाचार्य इसकी बृहद्वृत्ति के निर्माण में योगभूत् बने । बृहद् वृत्ति के साथ भिक्षु शब्दानुशासन की लघुवृत्ति की आवश्यकता भी महसूस होने लगी। आचार्यश्री तुलसी ने अपने मुनि जीवन में इसके निर्माण का कार्य प्रारंभ कर दिया था किन्तु अकस्मात् आचार्य पद का दायित्व आ जाने के कारण उसकी सम्पूर्ति अन्य मुनियों ने की। इस प्रकार संस्कृत व्याकरण के क्षेत्र में संस्कृत वाङमय को भिक्षुशब्दानुशासन-महाव्याकरण, भिक्षु शब्दानुशासन बृहद्वृत्ति, भिक्षु शब्दानुशासन लघुवृत्ति और कालुकौमुदी नामक ग्रन्थ तेरापंथ धर्म संघ की मूल्यवान देन हैं। मुनिश्री २१० तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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