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संस्कृत साहित्य में प्रचुर मात्रा में विद्यमान हैं। श्रेय और प्रेय-इन दोनों ही प्रकार के ग्रन्थों की उपलब्धि संस्कृत साहित्य में है। अन्य भाषा के साहित्य की ऐसी स्थिति नहीं है। पश्चिमी विद्वानों का मत है कि संस्कृत साहित्य का जो अंश प्रकाशित हुआ है वह भी ग्रीक और लेटिन साहित्य के समग्र ग्रन्थों से दुगुना है। जो अभी तक हस्तलिखित ग्रन्थों के रूप में पड़ा है या किसी प्रकार नष्ट हो गया है, उसकी तो गणना ही अलग है।
जैन परम्परा में भी संस्कृत साहित्य का प्राचुर्य है। जैन आगमों तथा तत्सम प्रन्थों की भाषा मूलत: प्राकृत, अर्द्धमागधी अथवा शौरसेनी रही है । आगमोत्तर साहित्य की अधिकांश प्राचीन रचनाएं भी प्राकृत में हुई हैं किन्तु जनरुचि को देखते हुए जैनाचार्यों ने संस्कृत को भी प्राकृत के समकक्ष प्रतिष्ठा प्रदान की। जिस समय वैदिक साहित्य और संस्कृति का व्यापक प्रभाव समाज में बढ़ने लगा तथा शास्त्रार्थ और वाद-विवाद के अनेक उपक्रम होने लगे, तब जैन आचार्यों ने भी संस्कृत को अधिक महत्त्व देना प्रारंभ किया। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर और हरिभद्र के ग्रन्थ इसके परिणाम कहे जा सकते हैं । यह समय ईसा की दूसरी शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक का है। आठवीं शताब्दी के पश्चात् जैन संस्कृत साहित्य की रचना के मूल में यहां की राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति ने अधिक काम किया है। जैन आचार्यों को संस्कृत साहित्य के निर्माण में जिन कारणों से प्रेरणा प्राप्त हुई, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं
१. जैन धर्म के मौलिक तत्त्वों का प्रसार २. आप्त पुरुषों तथा धार्मिक महापुरुषों की गरिमा का बखान ३. प्रभावी राजा, मंत्री या अनुयायियों का अनुरोध । .
उक्त कारणों के अतिरिक्त एक अन्य कारण यह भी हो सकता है कि अनेक जैन आचार्य मूलतः ब्राह्मण थे। अतः बचपन से ही संस्कृत उन्हें विरासत के रूप में प्राप्त हुई थी। उस विरासत से अपनी प्रतिभा को और अधिक विकसित करने के लिए साहित्य सृजन का माध्यम उन्होंने संस्कृत को चुना। जैन संस्कृत साहित्य का प्रवाह ईसा की दूसरी शताब्दी से प्रारम्भ हुआ और चौदहवीं शताब्दी तक निरन्तर चलता रहा । पन्द्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी के संस्कृत ग्रन्थों में रचना स्थल का उल्लेख प्राप्त नहीं होता । सतरहवीं और अठारहवीं शताब्दी में संस्कृत में प्रचुर साहित्य लिखा गया । उन्नीसवीं शताब्दी में जैन विद्वानों द्वारा लिखित संस्कृत साहित्य बहुत कम प्राप्त है। बीसवीं शताब्दी में जैन संस्कृत साहित्य का पुनः उत्कर्ष हुआ। इस उत्कर्ष के मूल श्रेयोभाक् तेरापंथ धर्मसंघ के आचार्य तथा विद्वान् मुनि हैं । तेरापंथ धर्म संघ के उद्भव का इतिहास दो सौ से कुछ अधिक वर्षों का है। किन्तु संस्कृत भाषा का बीजारोपण वि०सं० १८८१ में हुआ। विगत पांच दशकों में वह निरन्तर पुष्पित और फलित होता रहा है । तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य श्रीमज्जयाचार्य ने संस्कृत का बीजारोपण किया। पांचवें, छठे और सातवें आचार्य क्रमशः मघवागणी, माणकगणी और डालगणी ने उसकी सुरक्षा की। आठवें आचार्य श्री कालगणी ने इसे और अधिक सिंचन दिया जिससे उनके जीवन के उत्तरार्द्ध
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तुलसी प्रज्ञा
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