Book Title: Tulsi Prajna 1992 01
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 41
________________ सोहनलाल (चूरू) ने तुलसी प्रभा के नाम से हेमशब्दानुशासन की संक्षिप्त प्रक्रिया तैयार कर जैन संस्कृत व्याकरणों के क्रम में एक नई श्रृंखला का सन्धान किया । दर्शन और न्याय नय, जैन तत्त्व दर्शन, जीवविज्ञान, पदार्थं विज्ञान, आचार शास्त्र, मोक्ष मार्ग, प्रमाण, निक्षेप, सप्तभंगी, स्याद्वाद आदि विषयों के निरूपण के लिए तीसरी शताब्दी में आचार्य उमास्वाति ने सर्वप्रथम तत्त्वार्थ सूत्र की रचना की । इसे "मोक्ष शास्त्र" भी कहा जाता है । यह ग्रन्थ दिगम्बर और श्वेताम्बरों को समान रूप से मान्य है । इस पर सिद्धसेन, हरिभद्र, अकलंक, विद्यानन्द उपाध्याय यशोविजय आदि उच्चकोटि के जैन विद्वानों ने टीकाएं लिखी हैं । जैन दर्शन साहित्य का विकास भूत मानकर ही हुआ है । तत्त्वार्थ सूत्र को केन्द्री संभव नहीं है । उसमें स्वयं भी काफी परि तत्वार्थ सूत्र की गहनता को प्राप्त करना हर एक के लिए कुछ ऐसे विषयों का समावेश भी है जो काल-परिवर्तन के साथ वर्तित हो चुके हैं। वर्तमान युग में दर्शन और न्याय के क्षेत्र में भी कुछ नये उन्मेष और विकास हुए हैं । अत: यह आवश्यक प्रतीत हुआ कि जैन तत्त्वदर्शन और न्यायशास्त्र को आधुनिक परिवेश में विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत किया जाए । विद्वद् समाज में इसके प्रति उत्सुकता भी थी । तेरापंथ के नौवें आचार्य श्री तुलसी ने दर्शन विषयक "जैन सिद्धान्त दीपिका ", न्याय विषयक “भिक्षु न्याय कर्णिका” की रचना करके जैन दर्शन और न्याय के अध्येताओं के लिए सरल, सुबोध और मूल्यवान् सामग्री प्रस्तुत की है । तत्वार्थ सूत्र की टीकाएं संस्कृत में होने के कारण संस्कृत भाषा के विद्वान् ही उनका लाभ उठा सकते हैं । यद्यपि हिन्दी में भी उसकी व्याख्या लिखी गई है किन्तु संस्कृत की तुलना में वह पर्याप्त नहीं कही जा सकती। जैन सिद्धान्त दीपिका और भिक्षुन्यायकर्णिका का रचनाक्रम सूत्र और वृत्ति के क्रम से है । दोनों ग्रन्थों की मूल भाषा संस्कृत होने के कारण अन्य अध्येताओं को भी उसका सम्यग् लाभ प्राप्त हो, इस दृष्टि से युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ ने हिन्दी भाषा में उनकी विस्तृत व्याख्या लिखी । "जैन दर्शन : मनन और मीमांसा" के नाम से यह स्वतन्त्र ग्रंथ के रूप में भी प्रकाशित है। इससे जैन दर्शन के अध्ययनशील विद्यार्थी बहुत लाभान्वित हुए हैं । जैन सिद्धान्त दीपिका की रचना वि. सं. २००२ में वैशाख शुक्ला १३ के दिन चूरू (राजस्थान) में सम्पन्न हुई। यह दस प्रकाशों में रचित है । पहले प्रकाश में द्रव्य, गुण और पर्याय का निरूपण है । दूसरे प्रकाश में जीव विज्ञान का निरूपण है । तीसरे प्रकाश में जीव और अजीव के भेदों का निरूपण है । चौथे प्रकाश में बन्ध, पुण्य, पाप और आश्रव के स्वरूप का निरूपण है । पांचवें प्रकाश में संवर, निर्जरा और मोक्ष मार्ग के स्वरूप का निरूपण है । छठे प्रकाश में मोक्ष मार्ग का में जीवस्थान ( गुणस्थान) का निरूपण है । आठवें प्रकाश में देव, गुरु और धर्म का निरूपण है । नौवें प्रकाश में दया, दान और उपकार के स्वरूप का निरूपण है। दसवें प्रकाश में निक्षेप का निरूपण है । इसकी कुल सूत्र संख्या ३०६ है । इसके सम्पादक और हिन्दी भाषा में अनुवादक युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ हैं । भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों विश्लेषण है। सातवें प्रकाश खण्ड १७, अंक ४ ( जनबरी - मार्च, १२ ) २११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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