Book Title: Tulsi Prajna 1992 01
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 43
________________ थी। इसके सात प्रकरण हैं । इसका रचनाक्रम सूत्र रूप में है। इसके पहले प्रकरण में योग का विस्तृत निरूपण है। दूसरे प्रकरण में मन की अवस्थाओं का निरूपण है । तीसरे प्रकरण में ध्यान, आसन, भावना आदि का प्रतिपादन है । चौथे प्रकरण में ध्यान के प्रकार, धारणा, विपश्यना, लेश्या आदि का विवेचन है। पांचवें प्रकरण में वायु के प्रकार और उनकी विजय का निरूपण है। छठे प्रकरण में महाव्रत, श्रमणधर्म, संकल्प, जप आदि का निरूपण है। सातवें प्रकरण में जिन कल्प की पांच भावनाओं-प्रतिमाओं का प्रतिपादन है। इसकी कुल सूत्र संख्या १८० है। इसके हिन्दी अनुवादक और व्याख्याता युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ हैं। व्याख्या से जन साधारण के लिए ग्रंथ की उपयोगिता बढ़ गई है। मनोनुशासनम् के उपरान्त भी योग प्रक्रिया को विश्लेषण पूर्वक समझाने के लिए एक और ग्रंथ की आवश्यकता अनुभव की गई । उसकी पूर्ति 'सम्बोधि' द्वारा की गई। सम्बोधि शब्द सम्यग् ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र को अपने में समेटे हुए है । सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान भी अज्ञान बना रहता है और चारित्र के अभाव में ज्ञान और दर्शन निष्क्रिय रह जाते हैं । आत्मदर्शन के लिए तीनों का समान और अपरिहार्य महत्त्व है । इस दृष्टि से ही इसका नाम सम्बोधि रखा गया है। सम्बोधि युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ की श्लोकबद्ध कृति है । इसमें आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, भगवती, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकदशा, प्रश्न व्याकरण, दशाश्रुत स्कन्ध आदि आगमों का सार संगृहीत है। इसकी शैली गीता के समान है। गीता के तत्त्वदर्शन में ईश्वरार्पण का जो माहात्म्य है, वही माहात्म्य जैन दर्शन में आत्मार्पण का है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा ही परमात्मा या ईश्वर है। गीता का अर्जुन कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि में कायर होता है तो सम्बोधि का मेघकुमार साधना की समरभूमि में कायर होता है । गीता के संगायक कृष्ण हैं तो सम्बोधि के संगायक महावीर हैं। कृष्ण का वाक् संबल प्राप्त कर अर्जुन का पुरुषार्थ जाग उठता है तो महावीर की वाक् प्रेरणा से मेघकुमार की मूच्छित चेतना जागृत हो जाती है। मेधकुमार ने जो प्रकाश पाया, उसी का व्यापक दिग्दर्शन सम्बोधि में है। सम्बोधि का सम्पादन और विवेचन मुनिश्री शुभकरण और मुनि श्री दुलहराज ने किया है। इसका अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित हो चुका है। इसके सोलह अध्याय हैं । उनमें से पहले आठ अध्यायों की रचना वि० सं० २०१२ में महाराष्ट्र में तथा शेष आठ अध्यायों की रचना वि० सं० २०१६ में कलकत्ता में हुई। इसकी कुल श्लोक संख्या ६६६ है। - क्रमशः खण्ड १७, अंक ४ (जनबरी-मार्च, ६२) २१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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