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राजस्थानी भाषा के प्रति उत्फुल्ल में तेरापंथ धर्मसंघ की सेवाओं रहा है।
वातावरण का निर्माण हो रहा है तो उस संदर्भ मूल्यांकन का भी उचित अवसर प्रतीत हो
संत साहित्य की अपनी एक अन्तर्दृष्टि होती है । पर यायावर होने के कारण उनके साहित्य में विभिन्न क्षेत्रों के भाव और भाषा की एक संयोजना भी होती है । तेरापंथ के संतजन भी निश्चित रूप से पादचारी रहे हैं । यद्यपि उनका विहार क्षेत्र भारत का बहुत बड़ा भू-भाग रहा है, पर फिर भी यह स्पष्ट है कि उनका प्रमुख विहार क्षेत्र राजस्थान ही रहा है। राजस्थान के हर अंचल में प्रवासित होने के कारण हर क्षेत्रीय आंचलिकता को समाहित कर उन्होंने राजस्थानी भाषा को महत्त्वपूर्ण समरसता प्रदान की है । इस समरसता का एक कारण यह भी रहा है कि तेरापंथ के मुनिजन राजस्थान के हर क्षेत्र से आते हैं । स्वभावतः उनके बोलचाल और व्यवहार में एक ऐसी समन्वित राजस्थानी का प्रारूप तय हो जाता है और वही उनके साहित्य में प्रतिबिम्बित होता है, इसलिए इस धर्मसंघ की भाषा समग्र राजस्थानी की प्रतिनिधि भाषा का रूप ग्रहण कर लेती है | आचार्य भिक्षु से लेकर आचार्य तुलसी के काल तक के साहित्य का अध्ययन किया जाये तो उसमें मेवाड़ी, मारवाड़ी, हाडोती, थळी आदि प्रदेशों के समन्वय की अनेक कड़ियां मिल जायेंगी । इस तरह भाषा की दृष्टि से पूरी राजस्थानी को जोड़ने में इस धर्मसंघ ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है ।
तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्षु न केवल इस संघ के आद्यप्रणेता ही है अपितु आद्य साहित्य स्रष्टा भी हैं। अपने जमाने के वे एक महान् संत थे। उन्होंने आत्ममुखता और जनाभिमुखता में एक अद्भुत संतुलन बनाया । विरोध ने उनके कर्तृत्व की धार को भोथरा बनाने का प्रयास किया, पर अपने स्वत्व के बल पर उन्होंने उसे ही अपना रक्षा कवच बना लिया । उनका साहित्य उनके कर्तृत्व की अकथ कहानी है । जैन परम्परा से जुड़े हुए होने के कारण उनका साहित्य जैन विचार-दर्शन से भीगा हुआ होने पर भी अध्यात्म से संवलित है । अपनी आध्यात्मिक अनुभूति को उन्होंने जो रसात्मकता प्रदान की है वह अद्भुत है । सचमुच उनका भाव पक्ष ही ऊर्जस्व नहीं था अपितु शिल्प भी उत्तम कोटि का था । सामने वाले के तर्क को आधार बना कर व्यंग्यात्मक शैली में उत्तर देना उनकी अलभ्य विशेषता थी। मेरे विचार से राजस्थानी साहित्य व्यंग्यात्मक लेखन में कोई भी आचार्य भिक्षु से ऊपर नहीं जा सकेगा । ऐसे प्रसंगों को साहित्य में उतार कर उन्होंने न केवल अपनी परम्परा को अकूत खजाना सौंपा है अपितु राजस्थानी भाषा को भी अपूर्व क्षमता प्रदान है ।
मानव प्रकृति के वे गज़ब के पारखी थे । अपने लेखन में मनुष्य के मानसिक उतारचढ़ाव को उन्होंने जिस तरह से अभिव्यक्त किया है उसे उन्हें पढ़कर जाना जा सकेगा । कबीर की तरह की एक संत की फक्कड़ता ने उनके साहित्य को निर्भयता का बहुत बड़ा अवदान दिया है । तात्कालिक धार्मिक-साम्प्रदायिक, सामाजिक व्यवस्था पर उन्होंने न केवल करारे व्यंग्य किए हैं अपितु उनकी परत परत को उघाड़ कर उस स्थिति का अद्भुत चित्रण किया है । इन सारी बातों पर प्रकाश डालने के लिए एक स्वतन्त्र शोध-प्रबन्ध
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तुलसी प्रज्ञा
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