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गंगनहर
रंगात रंगा किमु नाम गंगा, नो नो तदुत्था सलिल प्रणाली | भगीरथः कोऽपि किमत्र जातो, न ज्ञायते तेऽद्य युगे कियन्तः ॥ १ ॥
कल्लोलमालाकुलिताभिरद्भिः, संघर्षशीलाभिगतासवस्त्रा, विचित्र वेशा
द्वारप्रदेशे पतिताभिरुच्चैः । किल नर्त्तकीव || २ ||
घोषोऽतुलस्तद् विपुलं शरीरं प्रकंपितं सूचयतीति सत्यम् । अस्मिन्युगे जल्पति यः स एव, मुख्योऽम्बुनापि प्रतिबुद्धमेतत् ||३||
निम्नं गतं वारि करोत्यनिम्नं, पृष्ठागतं वार्यऽपरं स्ववेगात् । ऊर्ध्वगमं याति पुनश्चनिम्नमुद्धारयेत् कः खलु निम्नवृत्तिम् ॥४॥
रोमोद्गमं द्रष्टुरिह प्रकृत्या, बिन्दूद्गमो वृद्धिमवाप्तुकामः । वारितो व्योम विहारहारी, स्पृष्टुं समस्तान् पथिकान् विलोलः ॥ ५॥
अर्थात् गंगनहर को देखकर लगा कि क्या यह गंगा नदी है ? या उससे निकली नहर है ? फिर प्रश्न हुआ —- क्या कोई भगीरथ पैदा हुआ है ? अथवा न जाने आज कितने भगीरथ हैं ।
यह नहर उत्ताल तरंगों से ऊपर से गिरते पानी के साथ जूझ रही है, मानो फेनिल वस्त्र पहनकर कोई विचित्र नर्तकी नृत्य कर रही हो ।
नहर का प्रकंपित शरीर और उसका अतुल निनाद बता रहा है कि इस युग में जो बोलता है, वही प्रमुख है । नहर के पानी ने भी यह रहस्य समझ लिया है ।
पीछे से आता पानी अपने वेग से पहले के पानी को ऊपर की ओर ढकेल देता है । ऊपर गया हुआ पानी फिर नीचे आ जाता है । सच है जिसका स्वभावही निम्न है उसे कौन उठा सकता है ?
ऊपर से गिरती धारा के जलकण आगे बढ़ने को ललचा रहे हैं । देखने वालों को ऐसा लगता है मानो प्रकृति को रोमांच हो गया है। जबकि हवा में उछल रहे जलकण पथिकों से सहयोग लेने को आकुल हो रहे हैं ?
- युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ ( कवि मुनि नथमल ) के द्वारा पहली बार गंगनहर को देख कर रचे गए पांच श्लोक |
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तुलसी प्रज्ञा
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