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तेरापंथ का संस्कृत साहित्य : उद्भव और विकास [ मुनि गुलाबचन्द्र " निर्मोही "
संस्कृत और संस्कृति इन दोनों का अनवच्छिन्न सम्बन्ध रहा है । भारतीय संस्कृति, इतिहास और परम्परा का गरिमापूर्ण दर्शन जितना संस्कृत साहित्य में उपलब्ध होता है, उतना अन्य साहित्य में उपलब्ध नहीं होता । भारतीय संस्कृति का प्रसार जितना संस्कृत के द्वारा हुआ है उतना अन्य किसी माध्यम से नहीं हुआ ।
संस्कृत साहित्य के महत्त्व का एक प्रमुख कारण उसकी प्राचीनता है । इतना प्राचीन साहित्य अन्य किसी भाषा में उपलब्ध नहीं होता । पश्चिमी विद्वानों की दृष्टि में मिश्र देश का साहित्य सबसे प्राचीन माना जाता है । किन्तु उसकी प्राचीनता भी विक्रम से केवल चार हजार वर्ष पूर्व की है । भारतीय साहित्य में संस्कृत की अपेक्षा से ऋग्वेद की रचना सर्वाधिक प्राचीन मानी जाती है । कुछ विद्वान् ऋग्वेद की रचना को कम प्राचीन मानते हैं । इस मत के लिए सब सहमत न भी हों किन्तु लोकमान्य तिलक ने गणित के प्रमाणों द्वारा ऋग्वेद की काल गणना के सम्बन्ध में जो मत स्थापित किया है, वह यौक्तिक लगता है । उन्होंने सिद्ध किया है कि ऋग्वेद के अनेक सूक्तों की रचना विक्रम से कम से कम छह हजार वर्ष पूर्व अवश्य हुई थी । इस दृष्टि से संस्कृत साहित्य के सर्व प्रथम ग्रन्थ का निर्माण आज से लगभग आठ हजार वर्ष पूर्व हुआ था । अन्य किसी भी भाषा का उपलब्ध साहित्य इतना प्राचीन नहीं है । संस्कृत साहित्य की जो धारा उस समय प्रवाहित हुई, वह आज तक अनवच्छिन्न गति से चली आ रही है । अन्य भाषाओं के साहित्य का अध्ययन करने से यह प्रतीत होता है कि वह अनुकूल परिस्थितियों में पनपता है और उसका प्रवाह कुछ दिनों तक चालू रहता है किन्तु प्रतिकूल परिस्थितियों के उत्पन्न होते ही उसका प्रवाह मन्द हो जाता है । संस्कृत साहित्य में यह दोष नहीं दीखता । वेदों की मंत्र संहिताओं की रचना के अनन्तर उनकी व्याख्या का काल आता है । तदनन्तर उपनिषदों और उसके पश्चात् रामायण, महाभारत तथा पुराणों का युग आता है । उनके बाद काव्य, नाटक, व्याकरण, गद्य, कथा, आख्यायिका, स्मृति, तन्त्र आदि के निर्माण का समय आता है जो मध्य युग के पहले साहित्य- प्रेमी भारतीय नरेशों के सान्निध्य में बहुत पनपा ।
संस्कृत साहित्य सर्वागीण है । साधारणतया लोगों की संस्कृत साहित्य में केवल धर्म-ग्रन्थों को ही बहुलता है किन्तु है । संस्कृत के प्राचीन ग्रन्थकारों ने भौतिक जगत् के विश्लेषण किया है । विज्ञान, ज्योतिष, वैद्यक, स्थापत्य,
खण्ड १७, अंक ४ (जनवरी-मार्च, ε२ )
धारणा बनी हुई है कि वास्तविकता इससे भिन्न साधनभूत तत्त्वों का भी पर्याप्त पशु-पक्षी सम्बन्धी लक्षण ग्रन्थ
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