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उसके टुकड़े कर फैला देता या मसल देता है। इस तरह उसकी क्रोध की ग्रंथि निकल जाती हैं।
इसके अलावा संकल्प द्वारा भी रोगोपचार किया जाता है। जैसे किसी की कुव्यसन की आदत छुड़ानी है, तो सम्मोहित कर रोगी को कुव्यसन के दोषों को बताया जाता है। फिर नये संकल्प द्वारा उसमें इच्छा शक्ति को जागृत किया जाता है । जिसमें परामर्श, समाजीकरण, पुनशिक्षण, संपूर्तिकरण, आदि विधियों का सहारा लिया जाता
इस प्रकार फ्रॉइड के सिद्धान्तों का विश्लेषण करे, तो बहुत हद तक वह नियतिवादी माना जा सकता है । जब कि मॉइड का ही साथी मनोविश्लेषक एलफेड एडलर प्रयोजनवादी है। एडलर फ्रॉइड के कामभावना सिद्धान्त से सहमत नहीं था। एडलर के अनुसार व्यक्ति का सभी व्यवहार कामशक्ति से प्रेरित नहीं होता वरन् इच्छा व संकल्प शक्ति से प्रेरित होता है । सभी मानसिक व्याधियां काम वृत्ति के दमन के कारण नहीं होती बल्कि हीनभावना के कारण होती हैं। मनुष्य अपनी संकल्प शक्ति से उन हीन भावनाओं की क्षतिपूर्ति करे तो महान कार्य कर सकता है।
तो ये रहा फ्राइडवाद या पाश्चात्य मनोविज्ञान । अब जैन दर्शन की बात लें, फिर इनका तुलनात्मव अध्ययन करे ।
जैसे पहले बताया गया कि यूरोपीय पुनर्जागरण के समय तीन मनीषि उभरे थेमार्क्स, आइन्स्टीन व फ्रॉइड । इन तीनों महाशयों ने क्रमशः साम्यवाद, सापेक्षवाद व मनोविज्ञान विचारधारा को प्रारम्भ किया। इसी दिशा में अगर जैन दर्शन का मनन किया जाय तो "मिति मे सव्वे भूएसु" की गाथा मार्क्स के साम्यवाद का समर्थन करती नज़र आती है। इसी तरह जैनदर्शन का मौलिक सिद्धांत "अनेकान्तवाद" भी आइन्स्टाइन के "सापेक्षवाद" से कुछ भिन्न नहीं है। कर्मवाद जैन दर्शन का आधार स्तम्भ है, जिसकी ही स्पष्ट छाया हम फ्राइडवाद में पा सकते हैं ।
जैन दर्शन के अनुसार मात्र मनुष्य ही नहीं, सभी चेतन सांसारिक जीवात्मा निरन्तर कर्म बंध करती रहती है । कर्म बन्ध होता है-मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय
और आश्रवों के माध्यम से । जब तक उन कर्माश्रवों का संवर एवं पूर्व अर्जित कर्म की निर्जरा(क्षय) नहीं होती तब तक वह सुख (आनन्द) को प्राप्त नहीं कर पाता अब प्रत्येक जीवात्मा में यह सामर्थ्य नहीं कि सभी कमों का निरन्तर क्षय करता चला जाय अतः वह कुछ आश्रवों का क्षय करता है तो कुछ कर्मों का उपशमन (दमन), जिसे क्षयोपशन कहा जाता है । जैसे कि फ्रॉइडवाद मानता है कि दमन (उपशमन) की प्रतिपूर्ति होने पर ही मनुष्य सुखानुभव कर पाता है तो हमारे जैनागमों में भी बताया गया है कि आठवें गुणस्थान के बाद दो श्रेयिणां निकलती है, उपशमन और क्षपक श्रेणी । नौवीं में क्रोध मान और माया को, दसवीं में लोभ को, उपशान्त श्रेणी वाला ग्यारहवीं अवस्था में मोह को दबाता हुआ बढ़ता है इसलिए उसके अन्तर्मुहुत के बाद उससे नीचे के गुणस्थानों में जाना अवश्यभावी बन जाता है, जबकि क्षपक श्रेणी वाला क्रमशः क्षय करते खण्ड १७, अंक ४ (जनवरी-मार्च, १२)
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