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कि उसे दबाना पड़े। इसके लिए पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि मनुष्य में कुछ मूल प्रवृत्तियां होती हैं, जिसके कारण वह क्रियाशील होता है। इन मूल प्रवृत्तियों में कुछ ऐसी होती हैं, जो नैतिक मन के कारण प्रतिबन्धित होती हैं। इन मूल प्रवृत्तियों में कुछ हैं-१. जीने की आकांक्षा, २. आहार की वृत्ति ३. विनाश प्रवणत्ता, ४. वासनात्मकता, ५. संग्रह प्रवृत्ति, ६. रचना प्रवृत्ति, ७. पलायन (भय) ८. जुगुप्सा, ६. युयुत्सा १०. पैतृक, ११. यूथ चारित्व (समूह शीलता इत्यादि)।
इसके अलावा फ्राइड ने लुब्धा के सिद्धान्त को भी प्रतिपादित किया है । जिसके अनुसार मनुष्य के दमित विचार व इच्छाओं में जिन विचारों का प्रमुख स्थान है, वह है-मनो-कामवासनाओं का। जन्म से लेकर बुढ़ापे तक मनुष्य में यही विचार अत्यधिक दमित रहता है। विचारों के तीव्र दमन से जब मानसिक तनाव बढ़ जाता है, तब शारीरिक व्याधियां उत्पन्न हो जाती हैं । मनश्चिकित्सक इन शारीरिक व्याधियों को दवाओं के माध्यम से दूर करने का यत्न करता है । साथ ही साथ मानसिक चिकित्सा भी करता है । इस मनोचिकित्सा उपचार विधि में सम्मोहन, स्वतन्त्र साहचर्य, स्वप्न विचार, हस्त स्पर्श, संकेत व संकल्प आदि के प्रयोग करता है ।
१६ वीं सदी में जर्मन फ्रेडरिक एलिस्टन मैस्मर नामक मनोवैज्ञानिक हुआ । जिसने मैस्मिरेज्म और सम्मोहन द्वारा रोगोपचार की विधि निकाली जिसके द्वारा मनश्चिकित्सक पहले रोगी को निद्रावस्था में ला देता है। फिर हस्त स्पर्श व संकेत द्वारा वह रोगी के दमित विचारों को उभारता है । सम्मोहित अवस्था में स्मरण शक्ति का अद्भुत विकास हो जाता है । ऐसी अवस्था में रोगी अपनी बचपन से लेकर तब तक सारी बातें कुठाएं, द्वेष, घृणा, वासना, विकार इत्यादि जो भी उसने दबा रखा है, खुलकर सामने रख देता है।
__ इसी तरह चिकित्सक रोगी के स्वप्न का भी विश्लेषण करता है । स्वप्न में पांच क्रियाएं होती हैं-विस्थापना, संक्षिप्तीकरण, प्रतीकीकरण, नाटकीकरण व अनुविस्तार । इन मानसिक प्रतिक्रियाओं के आधार पर चिकित्सक रोग की जड़ तक पहुंचता है। स्वप्न में दमित विचार व कामनाएं अयथार्थ धरातल पर पूरी होती हैं । अतः स्वप्न के प्रतीकों की व्याख्या से व्यक्ति की विचारधारा एवं अन्य प्रक्रियाओं को जाना जा सकता
उपरोक्त विधियों द्वारा जब रोग के मूल कारणों का पता चलता है, तब चिकित्सक उपचार प्रारम्भ करता है।
इस उपचार विधि में उनका प्रबल समर्थन रहता है कि दमित विचारों, इच्छाओं व कामनाओं को भोग लो। जैसे किसी ने परिस्थितिवश क्रोधावेश को दबाये रखा है, तो चिकित्सक उसे सम्मोहित कर, उसके आवेश का कारण जानेगा कि किस कारण वह क्रोधित हुआ है ? सम्मोहित अवस्था में ही वह रोगी के हाथ में कोई वस्तु जैसे तकीया देगा और कहेगा कि यह वही है जिसने तुम्हें क्रोध दिलाया । सम्मोहित अवस्था में रोगी उसी वस्तु पर टूट पड़ता है । क्रोध की भावदशा के अनुसार अगर क्रोध तीव्र रहा तो
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तुलसी प्रज्ञा
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