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सर्पिणी है दूसरे की नारि हो सदा मन में कि सुदृढ़ विचार, जो स्वयं की पत्नी से सन्तुष्ट भावना उसकी सदा ही पुष्ट ।
( तीर्थंकर महावीर, पृ० २६१ ) जैन शास्त्रों में इस महाव्रत की परिपालना के लिए भी पांच भावनाएं निर्दिष्ट हैं। ये हैं—स्त्री कथा न करना, स्त्री के अंगों का अवलोकन न करना, पूर्वानुभूत काम क्रीड़ा का स्मरण न करना, अधिक भोजन न करना तथा स्त्री से सम्बद्ध स्थान में न रहना ।
जैनाचार का पांचवा महाव्रत है, अपरिग्रह | संग्रह अथवा आसक्ति का पूर्ण परित्याग ही अपरिग्रह है । यह अर्थ वैषम्य जन्य ज्वलंत सामाजिक समस्याओं का सुन्दर समाधान तो प्रस्तुत करता ही है साथ ही विश्व शांति का भी मूल-मंत्र है । श्री वीरेन्द्र प्रसाद जैन ने परिग्रह को ही सांसारिक कलह का मूल बताते हुए अपरिग्रह पर बल दिया है
'हैं द्वेष - कलह - संघर्ष लोक के सारे इस दनुज परिग्रह के ही सदा सहारे ।
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निस्सीम कामनाओं की बांधो सीमा, तुम करो परिग्रह का शासन क्षय धीमा ।
(पार्श्व प्रभाकर, पृ० २०२ ) रमेश चन्द्र शास्त्री ने अपरिग्रह को ही अर्थजन्य समस्याओं के समाधान का संबल
कहा है
'धन-वैभव से थके पिटे, जर्जर मानव का अपरिग्रह ही सम्बल, निरुद्देश्य जन जीवन को भी करता सभी समस्याओं का हल ।
(देवपुरुष गांधी, पृ० १४६ )
परिग्रह के कारण ही संसार के अधिकांश दुःख उत्पन्न होते हैं । भौतिक पदार्थों पर आसक्ति रखने से विवेक नष्ट हो जाता है । आत्मा अपने स्वरूप से विमुख होकर और राग-द्वेष के वशीभूत होकर लक्ष्य भ्रष्ट हो जाता है । अत: न केवल समाज मैं व्याप्त विविध वैषम्य को दूर करने में अपितु समसामयिक जीवन में भी अपरिग्रह का महत्वपूर्ण स्थान है । यही कारण है कि अपरिग्रह की अभिव्यक्ति हमें 'उर्मिला', 'रामराज्य', 'तारकवध' तथा 'सारथी' प्रभृति महाकाव्यों में स्थान-स्थान पर परिलक्षित होती है ।
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इस प्रकार उक्त विवेचन से वह स्वतः सिद्ध है कि आधुनिक कवियों पर जैनाचार का व्यापक प्रभाव पड़ा है और उन्होंने अपने-अपने काव्यों में स्थान-स्थान पर जैनाचार को अभिव्यक्ति प्रदान की है ।
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तुलसी प्रज्ञा
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