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शरीर के पूर्व बन्धित कर्म संस्कार । इस दिशा में भी शोध आवश्यक है ।
अब देखें उपचार विधि । फ्रायडवाद में जहां सम्मोहन, स्पर्श संकेत, साहचर्य विधि व संकल्प का प्रयोग किया जाता है। वहां जैन दर्शन में भी पूरी वैज्ञानिक विधि का वर्णन हुआ है । जैसे सामयिक, कायोत्सर्ग, प्रतिक्रमण, प्रतिलेखना, आलोचना, प्रत्याख्यान, प्रायश्चित् आदि ।
__ जैनों के कुछ नित्य नियम होते हैं जिन्हें 'आवश्यक' कहा गया है । उसमें एक है-प्रतिक्रमण । सही ढंग से समझ कर अगर यह क्रिया की जाये तो न केवल बहुत सी शारीरिक व मानसिक बीमारियों से मुक्ति हो जाए बल्कि कर्म निर्जरा भी हो।
जैन दर्शन में सम्मोहन भी है किन्तु वह आदर्श सम्मोहन के रूप में है । जिस तरह मनश्चिकित्सक रोगी के शरीर को शिथिल कर अवचेतन में बैठी कुंठाएं व विकार की जड़ तक पहुंचता है, उसी तरह प्रतिक्रमण में एक अंग आता है-कायोत्सर्ग । अपने आप अपने शरीर को शिथिल करना । यही है-आत्म सम्मोहन की क्रिया। कायोत्सर्ग के पश्चात् आता है प्रतिक्रमण यानी १८ तरह के शल्य हो निकालने की क्रिया ।
स्वीकृत किए कर्मों से पीछे लौटना । दिन भर के हुए दुष्कृत पापों की (मन, वचन काय के द्वारा) आलोचना । फ्रायड ने जिस स्वप्न सिद्धांत की चर्चा की उसे जैन दर्शन में भी माना गया है। तभी तो स्वप्न में हुए पापों तक की भी आलोचना प्रतिक्रमण में की जाती है। जब प्रतिक्रमण से निःशल्य हुआ जाता है तब आती है संकल्प विधि । इस संकल्प विधि को "प्रत्याख्यान" कहा जाता है । ऐसा कोई शल्य जो भविष्य में बन्ध का कारण बने उसे रोकने के लिए सोच सकझ कर प्रत्याख्यान लिए जाते हैं। अपनी धारणा शक्ति व सामर्थ्य शक्ति के अनुसार । "चौदह नियम" व "तीन मनोरथ" भी इसी संकल्प विधि में ही आते हैं।
जैन दर्शन की दूसरी प्रमुख विशेषता है-यतना । विवेकपूर्व काया, वचन व मन के योग को संचालित करना ही 'यतना' है। किसी निमित्त से कषाय का उभरना अलग बात है और उस निमित्त से जुड़ जाना अलग बात है । जब राग-द्वेष भाव का साहचर्य साथ रहता है तभी बन्ध का कारण होता है। इस साहचर्य विमुक्त दशा को ही 'वीतराग" दशा कहा गया है । कुण्ठा व ग्रंथि रहित साधक को ही निग्रन्थ कहा जाता
फॉयडवाद में जैसे अशुभ विचारादि को शुभ संकल्प आदि में परिवर्तित किया जाता है, वैसे जैन दर्शन में भी भावनाओं व लेश्याओं का वर्णन हुआ है। कर्मवाद के चिंतक जानते ही होंगे कि-उद्वर्तन, अपवर्तन, उदीरणा, प्रदेशोदय, संक्रमण इत्यादि अवस्थाओं में कर्म निर्जरा कैसे की जाती है।
द्रव्य या भाव मन द्वारा अनजाने में पाप शल्यों का सेवन हो जाए तो इनके लिए जैनागमों में प्रायश्चित का वर्णन आता है । इस प्रकार जैसा कि पहले बताया गया है कि फॉयड केवल नियतवादी था जब कि जैन दर्शन में काल, स्वभाव, कर्म, नियति व पुरुषार्थ इन पांचों को महत्व दिया है । फ्रायडवाद की अपूर्णता इसी में झलक जाती है कि उसने कामवासना सिद्धान्त को अति महत्व दिया जब कि उसी के मित्र एडलर ने उसके इस सिद्धान्त की आलोचना की है।
खण्ड १७, अंक ४ (जनवरी-माचं, ६२)
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