Book Title: Tulsi Prajna 1992 01
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 25
________________ अनूप शर्मा ने अस्तेय महाव्रत की विवेचना करते हुए कहा है कि सच्चे अर्थों में वही ब्राह्मण है जो, चाहे वस्तु कैसी भी हो बिना निर्देश के ग्रहण न करे 'स-चित्त हो, या कि अचित वस्तु हो, अनल्प हो, या कि अभूरि द्रव्य हो, जिसे न हो ग्राह्य निदेश के बिना, वही सुना ब्राह्मण लोक में गया ।' (वर्द्धमान, पृ० ५३१) इसी प्रकार डॉ० छल बिहारी गुप्त 'तीर्थंकर महावीर' में कहते हैं 'तीसरा अणुव्रत अचौर्य सुकाम, दूसरे धन पर न आए ध्यान, धन यदि मिल जाए मग चलते, बिन्दु भर भी जो नहीं ढलते ।' (तीर्थकर महावीर, पृ० २६१) जनाचार शास्त्रों में इसकी दृढ़ता के लिए पांच भावनाएं हैं जिनपर चलकर सत्य महाव्रत का पालन किया जाता है । ये पांच भावनाएं हैं-सोच विचार कर वस्तु की याचना करना, आचार्यादि की अनुमति से भोजन करना, परिमित पदार्थ ग्रहण करना, पुनः-पुनः पदार्थों की मर्यादा करना तथा साथी श्रमण से परिमित वस्तुओं की याचना करना। जैनाचार का चौथा महाव्रत है ब्रह्मचर्य । मानसिक बल, शारीरिक स्वस्थता और आत्मिक प्रकाश की रक्षा के लिए मन, वचन एवं कार्य से संभोग का सर्वथा परित्याग करना ही ब्रह्मचर्य है । निरंजन सिंह 'योगमणि' ने अपने महाकाव्य 'शिव चरित' में ब्रह्मचर्य के इसी स्वरूप को उद्घाटित करते हुए कहा है मन कर्म वचन तीनों से सर्व अवस्थाओं में यह रोति, मैथुन का हो नितान्त अभाव तो यही ब्रह्मचर्य की नीति । (शिवचरित, पृ० ६७४) पं० अनूप शर्मा ने इन्हीं भावों को परिपुष्ट करते हुए कहा है 'न चित्त से या तन से न वाक्य से विचारता मैथुन प्राणी-मात्र में, सदैव संस्तुत्य सभी प्रकार से वही सुना ब्राह्मण शास्त्र में गया। (वर्द्धमान, पृ० ५३१) डॉ० छल बिहारी गुप्त ने ब्रह्मचर्य अणु व्रत की विवेचना करते हुए पर-स्त्री-गमन के निषेध का निर्देश दिया है । वे कहते हैंखण्ड १७, अंक ४ (जनबरी-मार्च, १२) १६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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