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विक्रम पूर्व १४वें शतक में हुए महर्षि लगध ने इस व्यतिक्रम को व्यवस्थित किया और २७ नक्षत्रों के नक्षत्र मण्डल का निरूपण किया। उन्होंने व्यवस्था दी
स्वराक्रमेते सोमाकौं यदा साकं सवासवो। स्यात्तदादियुगं माघस्तपः शुक्लोऽयनं ह्य दक् ।। प्रपद्येते श्रविष्ठादौ सूर्याचन्द्रमसावुदक् ।
सर्धेि दक्षिणार्कस्य माघ श्रावणयोः सदा ।। कि जब सूर्य, चन्द्र, धनिष्ठा-तीनों एक साथ क्षितिज पर उदित हों तो माघ शुक्ल प्रतिपदा से कालगणना शुरू होती है क्योंकि उत्तरायण गति माघ में घनिष्ठा से और दक्षिणायन गति श्रावण में आश्लेषा से होती है। पुनः विक्रम पूर्व छठी सदी में हुए वृद्ध गर्ग तथा विक्रम पूर्व दूसरी सदी में वर्तमान रहे आर्यभट्ट-प्रथम और वराहमिहिर आदि ने नक्षत्र वेध कर चित्रा से (नक्षत्र गणना अश्विनी से) वर्षारंभ माना। वराहमिहिर कहते हैं
आश्लेषात् दक्षिणमुत्तरमयनं धनिष्ठाद्यम् । ननं कदाचिदासीयेनोक्त पूर्व शास्त्रेषु ॥१॥ सांप्रतमयनं कर्कटकाद्यं मृगादितश्चान्यत् ।
उक्ताभावो विकृतिः सवितुः प्रत्यक्ष परीक्षण व्यक्तिः ॥२॥ कि आश्लेषा और धनिष्ठा में कभी उत्तरायण-दक्षिणायन होता होगा, परन्तु आज तो कर्क और मकर राशि से है।
इस प्रकार 'नक्षत्रचक्रे प्रथमं धनिष्ठाः' और 'मुखं वा एतन्नक्षत्राणां यत्कृत्तिकाः'ये दो स्थितियां बदली अथवा दो बार कालगणनाएं व्यवस्थित हुई। पुनः तीसरी बार की व्यवस्था में स्पष्टतया दो वर्षों की कमी की गई
द्वयूनं शकेन्द्रकालं पंचभिरुद्धृत्य शेष वर्षाणां ।
युगणं माघसिताद्यं कुर्यात् धुगणं तदन्ह्या दयात् ।। कि शकेन्द्रकाल-विक्रम पूर्व ५४३ वर्ष में दो वर्ष कम करें और चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से गणनारंभ हो । अर्थात् सप्तर्षि-संवत्सर में पृथक्-पृथक् तीन कालों मेंप्रथम धनिष्ठादि गणना से, द्वितीय कृतिकादि गणना से तथा तीसरी बार चित्रादि गणना से कालमान स्थिर किया गया। प्रथम काल गणना का सप्तर्षि पर्याय ३०३० वर्षों का है और दूसरी-तीसरी गणनाओं में उसे २७०० वर्षों में सीमित कर दिया गया है किन्तु अभिजित् नक्षत्रमान के लिए प्रत्येक चौथे शतक में १८ वर्ष योग का विधान भी किया गया। ३. सप्तर्षि-परिचय और कालगणना में प्रगति
अति प्राचीन काल से ध्रुव तारा और उसके परिध्रुवतारों को भारतीय कालगणना में प्रमुख स्थान प्राप्त है । परम्परागत अनुश्रुति है कि ध्रुवतारा ६००० वर्षों तक एक १८२
तुलसी प्रज्ञा
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