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( १३ )
अर्थः- तीन लोक में प्रतिष्ठित श्री ऋषभदेवसे आदि लेकर श्री वर्द्धमानस्वामी तक चौवीस तीर्थकरों ( तीथकी स्थापन करनेवाले ) है, उन सिद्धों की शरण प्राप्त होता हूँ । ॥ यजुर्वेद
॥ ॐ नमोऽर्हन्तो ऋषभो ॥
अर्थः-- अर्हन्त नाम वाले (वा) पूज्य ऋषभदेवको प्रमाण हो. फिर ऐसा कहा
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ॐ ऋषभंपवित्रं पुरनूतमध्वरं यज्ञेषु नग्नं परमं माहसंस्तुतं वारं शत्रुंजयंतं पुशुरिंद्रमाहुरिति स्वाहा । उत्रातारमिदं ऋषभंवदंति अमृतारमिन्द्रहवे सुगतं सुपार्श्वमिन्द्रहवे शक्रमजितं तदूर्द्धमान पुरुहूतमिंद्रमाहुरिति स्वाहा । ॐ स्वस्तिनः इन्द्रो वृद्धश्रवा स्वस्तिनः पूषा विश्ववेदाः स्वस्तिनस्तार्क्षीअरिष्टनेमिः स्वस्तिनो बृहस्पतिर्दधातु । दीर्घायुस्त्वायवलायुर्वाशुभजातायु ॐ रक्षरक्षअरिष्टनेमि स्वाहा वामदेव सांत्यर्थ मनुविधीयते सोऽस्माक अरिष्टनेमि स्वाहा ॥
अर्थः- ऋषभदेव पवित्रको और इन्द्ररूपी अध्वरको यज्ञोंमें नमको पशु वैररीके जीत - नेवाले इंद्रको आहुती देता हूं । रक्षा करनेवाले परम ऐश्वर्ययुक्त और अमृत और सुगत सुपार्श्व भगवान जिस एसे पुरुहूत ( इन्द्र ) को ऋषभदेव तथा वर्धमान कहते हैं उसे हवि देता हूं । वृद्धश्रवा ( बहुत धनवाला ) इन्द्र कल्याण करे, और विश्ववेदा सूर्य हमें कल्याण करै, तथा अरिष्टनेमि हमें कल्याण करे और बृहस्पति हमारा कल्याण करे । ( यजुर्वेद अध्याय २५ मं० १९ ) दीर्घायुको और बलको और शुभ मंगलको दे । और हे अरिष्टनेमि महाराज हमारी रक्षा कर (२) || वामदेव शान्तिके लिये जिसे हम विधान करते हैं वह हमारा अरिष्टनेमि है. उसे हवि देते हैं.
भावार्थ:-श्री ऋषभदेव श्री सुपार्श्व भगवान और अजितनाथ भगवान और अरिष्टनेमि आदि भगवान यह सब जैनियोंके तीर्थंकर हैं जिनकी मूर्त्ति जैनी लोग बनाते हैं और भक्ति करते हैं. ।
|| भागवत ग्रंथ ॥
एवमनुशास्यात्मजान्स्वयमनुशिष्टान्नपिलोकानुशासनार्थमहानुभावः परमसुहृद् भगवान् ऋषभापदेशः उपशमशीलानामुपरतकर्म्मणां महामुनीना भक्तिज्ञानवैराग्यलक्षणं पारमहंस्यधर्म्मनुपशिक्षमाणः स्वतनयशतज्येष्ठं परमभागतं भगवजनपरायणं भरतं धराणिपालनायाभिषिच्य स्वयं
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