________________
१६ :
श्रमण, वर्ष ५९, अंक ४/अक्टूबर-दिसम्बर २००८
जैन ग्रन्थ 'भगवतीसूत्र' में गौतम भगवान् महावीर से पूछते हैं- भगवन् ! जीव वही है जो शरीर है या जीव भिन्न है या शरीर भिन्न है। गौतम के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए महावीर कहते हैं- हे गौतम! जीव शरीर भी है और शरीर से भिन्न भी है। आचार्य कुन्दकुन्द ने भी यह माना है कि आत्मा और शरीर एक है लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से, नैश्चयिक दृष्टि से कदापि एक नहीं हैं। यह सत्य भी है क्योंकि आत्मा और शरीर के एकत्व को स्वीकार किये बिना स्तुति, वंदन, सेवा आदि नैतिक क्रियाएँ असंभव हैं तथा आत्मा और देह की भित्रता माने बिना आसक्तिनाश और भेदविज्ञान की संभावना नहीं हो सकती।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि आत्मा और शरीर दोनों की सत्ता है और दोनों के संयोग का नाम ही व्यक्तित्व है। एक कथन है 'मैं खाता हूँ।' इस कथन के सन्दर्भ में पहला प्रश्न होता है कि कौन खाता है? क्या शरीर खाना खाता है, नहीं। क्योंकि यदि शरीर खाना खाता तो मृत शरीर को भी खाना खिलाया जा सकता। लेकिन ऐसा नहीं होता है। तब दूसरा प्रश्न उठता है कि क्या आत्मा है जो खाना खाती है, नहीं। एक चेतन पदार्थ, जड़ पदार्थ को कैसे खा सकती है। पीडा किसको होती है शरीर को या आत्मा को। यदि केवल शरीर ही होता तो पीड़ा नहीं होती और यदि शरीर भी होता और आत्मा भी होती लेकिन उनमें सम्बन्ध नहीं होता तो भी पीड़ा नहीं होती। अत: आत्मा और शरीर का सम्बन्ध है इसे नकारा नहीं जा सकता।
सन्दर्भ:
१. चार्वाक षष्टि, गगनदेव गिरि, ज्योति प्रकाशन, पटना, १९८० २. वही 3. All mental states (no matter what their character as regards
utility may be) are followed by bodily activity of some sort. They lead to inconspicuous changes in breathing, circulation, general muscular tension and glandular or other viceral activity, even if they do not lead to conspicuous movements of the
muscles of the voluntary life. Psychology, p. 5 ४. दर्शनस्पर्सनाभ्यामेकार्तग्रहनात् , न्यायदर्शनम् ३/१/१ ५. यदि देहभावे भावाद् देहधर्मत्वमात्मधर्माणां मन्येत, ततो देहभावेऽप्य
भावादतद्धर्मत्वमेवैषां किं न मन्येत। ब्रह्मसूत्र, शांकर भाष्य, अनुवाद
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org