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श्रमण, वर्ष ५९, अंक ४ अक्टूबर-दिसम्बर २००८
भरत : एक शब्द-यात्रा
वेद प्रकाश गर्ग*
जैन मान्यतानुसार त्रिषष्टिशलाका महापुरुषों में बारह चक्रवर्तियों की भी गणना होती है। इन बारह में सम्राट भरत प्रथम चक्रवर्ती थे। जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकरों में आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभ के शत पुत्रों में भरत ज्येष्ठ पुत्र थे। ऋषभदेव की पत्नी सुमंगला इनकी माता थी। भरत ही ऋषभदेव के उत्तराधिकारी बने। भरत के पीछे उनके पितामह १४वें अर्थात् अंतिम कुलकर नाभिराय की तथा पिता ऋषभदेव की प्रतापी परम्परा थी।
ब्रह्मा-पुत्र आदि मनु स्वयंभुव के वंश में राजा प्रियव्रत हुए। ये बड़े वीर एवं प्रजापालक थे। इनका उत्तराधिकारी अग्नीध्र हुआ। यह प्रियव्रत का दायद पुत्र था (अर्थात् कन्या का पुत्र था), जिसे जम्बूद्वीप का शासक बनाया गया था। अग्नीध्र के नौ पुत्रों में सबसे बड़े पुत्र नाभि थे। ये अत्यन्त प्रतापी एवं तेजस्वी थे। नाभिराय के जीवन-काल में ही भोगभूमि की समाप्ति और कर्मभूमि का आरम्भ हुआ। उन्होंने युग-प्रवर्तन किया। उनका एक नाम 'अजनाभ' भी था। उनके नाम पर ही इस कार्यभूमि (आर्य खंड) को 'नाभिखंड' अथवा 'अजनाभवर्ष कहा गया। यह भारतवर्ष का प्राचीन नाम है।'
अयोध्या नरेश महाराज नाभिराय की पत्नी मरुदेवी के गर्भ से प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का जन्म अयोध्या में हुआ। उनका जन्म दो युगों की संधि-बेला अर्थात् मानव सभ्यता के प्रथम चरण में हुआ था, जब भोगभूमि का अन्त और कर्मभूमि का प्रारम्भ हो रहा था। ऋषभदेव ने सामाजिक जीवन की समुचित व्यवस्था कर उसके विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। कृषिकर्म में 'वृषभ' की प्रतिष्ठा प्रतिपादित की और स्वयं भी 'वृषभदेव' कहलाए। 'वृषभ-लांछन' उनकी पहचान का विशेष चिह्न है।
ऋषभदेव क्षात्र-धर्म के प्रथम प्रवर्तपिता थे। प्राचीन भारत के क्षत्रियों का आद्य वंश उनके नाम पर ही 'इक्ष्वाकु-वंश कहलाया। अपने विशिष्ट गुणों के कारण ही उन्हें एक श्रेष्ठ राजा तथा विष्णु के चौबीस अवतारों में आठवाँ अवतार माना गया है। ऋषभदेव अपने ज्येष्ठपुत्र भरत को राजपद पर अभिषिक्त कर स्वयं संन्यस्त हो *१४, खटीकान, मुजफ्फरनगर-२५१००२ (उ०प्र०)
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